Friday, September 27, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-7(समापन कड़ी)-

उद्धव-कृष्ण संवाद-7(समापन कड़ी)-
        भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले- “प्रभु कितना गहरा दर्शन है | कितना महान सत्य | 'प्रार्थना' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो केवल हमारी 'पर-भावना' है परन्तु जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि 'ईश्वर' के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति का अनुभव होने लगता है | समस्या तो तब पैदा होती है, जब हम इसे भूलकर सांसारिकता में डूब जाते हैं।“
        सम्पूर्ण श्रीमद् भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है | सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक | अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक ही थे | वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का अनुभव हुआ, वह उस परम तत्व की चेतना में विलीन हो गया | यह एक अनुभूति थी-शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित परम चेतना की |तत्वमसि यानि तत-त्वम-असि | अर्थात वह परम तत्व तुम ही हो |
          इसके बाद श्री कृष्ण ने उद्धव को जो उपदेश दिया वह “उद्धव गीता” नाम से प्रसिद्ध है | श्री मद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध में वह उपदेश संकलित है, जो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम सखा उद्धव को दिया था। उपदेश लेने के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार उद्धव बद्रिकाश्रम चले गए, वहीँ तपस्या में लीन होकर उन्होंने अपनी जीवन लीला समाप्त की और परमात्मा के धाम गमन कर गए|
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Thursday, September 26, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-6

उद्धव-कृष्ण संवाद-6
                   उद्धव बोले- "कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे अभी भी पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई है | क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"
      भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"
         कृष्ण मुस्कुराए- "उद्धव इस सृष्टि में प्रत्येक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है | न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ | मैं तो केवल एक 'साक्षी' हूँ | मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ | यही ईश्वर का धर्म है |"
        "वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण | तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे? हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?आप क्या चाहते हैं कि हम भूल पर भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?" उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा |
       तब कृष्ण बोले-"उद्धव, तुम मेरे शब्दों में छिपे गहरे अर्थ को समझो | जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक 'साक्षी' के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम फिर कुछ भी अनुचित या बुरा कर सकोगे? मैं कहता हूँ कि तब तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे | जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो।धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है | अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Wednesday, September 25, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-5

उद्धव-कृष्ण संवाद-5
       इतने सारे प्रश्न अकेले उद्धव के मन के नहीं हैं | महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनो-मस्तिष्क में यही सवाल उठते हैं | आप इतना समझ लीजिये कि उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए थे | इन प्रश्नों पर भगवान श्रीकृष्ण मुसकुराते हुए बोले-
      "प्रिय उद्धव, मेरे द्वारा सृजित इस सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है | उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं | यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए |"
      ऐसे अनपेक्षित उत्तर से उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूत-क्रीड़ा के लिए उपयोग किया |उसका यही निर्णय विवेक है | धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने ममेरे भाई अर्थात मुझसे ऐसा ही अनुरोध कर सकते थे।वे कह सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा, परन्तु उन्होंने राजसभा में तो कहना दूर, मेरे से भी आग्रह तक नहीं किया | तुम जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता? पासे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
             चलो इस बात को भी जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें क्षमा किया जा सकता है | लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी भूल की और वह यह कि उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए क्योंकि वे अपने ‘दुर्भाग्य का खेल’ मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे | वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं | इस प्रकार उन्होंने अपनी एक प्रार्थना से मुझे बाँध दिया | मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति तक नहीं थी |
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब के सब मुझे भूल गए | केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे |
      अपने भाई के आदेश पर जब दु:शासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया,तब  द्रौपदी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही |  उसने भी मुझे नहीं पुकारा | उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दु:शासन ने उसे लगभग निर्वस्त्र ही कर दिया था |
                      जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर, “हरि, हरि ...... अभयम् कृष्णा ...अभयम्”  की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा करने का अवसर मिला |उसने जैसे ही मुझे पुकारा, मैं अविलम्ब वहां पहुँच गया | अब तुम्हीं बताओ, इस स्थिति में मेरी गलती कहाँ थी?"
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Tuesday, September 24, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-4

उद्धव-कृष्ण संवाद-4       
     अब आते है उद्धव-कृष्ण के मध्य हुए दूसरे संवाद पर-
           द्वारिका में जब यदुवंश की समाप्ति के बाद भगवान श्री कृष्ण निज धाम को प्रस्थान करने लगे तो उद्धव ने भी उनके साथ जाने की इच्छा प्रकट की | भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि आप ‘वासु’ नामक देव के अवतार हैं और आपका यह अंतिम जन्म है | आपको अभी मेरे धाम आने के लिए कुछ प्रतिक्षा करनी होगी।तब उद्धव ने कहा कि केशव ! मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं, क्या आप निज धाम गमन करने से पूर्व उनका उत्तर देकर मुझे संतुष्ट करेंगे ? श्री कृष्ण बोले-“ उद्धव!तुम मुझे सबसे प्रिय हो, मैं तुम्हारी प्रत्येक शंका का समाधान करूँगा, पूछो |"
तब उद्धवजी ने पूछना शुरू किया-
       "हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है ?"
       कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, सहायता करे। मित्र को जब आवश्यकता हो, मित्र को तत्काल उसकी स्थिति समझकर सहायता करनी चाहिए |"
         उद्धव को श्रीकृष्ण से इसी प्रकार के उत्तर की आशा थी।उन्होंने तत्काल ही एक के बाद एक कई प्रश्न भगवान श्री कृष्ण से कर दिए ।
       "कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीयऔर प्रिय मित्र थे | एक भाई के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया | कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं | आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता भी हैं, किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया? आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं? चलो, ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा, जबकि ऐसा करना आपके हाथ में था | आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे | आप कम से कम उन्हें धन,  राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक ही सकते थे |
       उसके बाद जब उन्होंने अपने भाइयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे | आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए पांचाली को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे |अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे | यह करने के स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो चुकी थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया | लेकिन आप यह यह दावा भी भला कैसे कर सकते हैं ?द्रोपदी को एक आदमी सरेआम घसीटकर राज सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है | भला ऐसे में एक महिला का शील कहां बचा? फिर आपने द्रोपदी का क्या बचाया?
        अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपात-बन्धु कैसे कहा जा सकता है?बताइए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो फिर उस सहायता का क्या लाभ ?क्या यही धर्म है?"
     इतने सारे प्रश्नों को एक साथ पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे|
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Monday, September 23, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-3

उद्धव-कृष्ण संवाद-3
         उद्धव के इस प्रश्न पर कृष्ण ने मुसकुराते हुए उनके कन्धे पर हाथ रखा और बोले, “प्रिय सखा, वृन्दावन गोकुल में कोई मेरे प्रेम के लिए व्याकुल नहीं है, सब उस आनंद को ढूंढ रहे जो मैंने उनको दिया और जो उन्होंने मेरे साथ बिताए गए समय में पाया | कुछ मेरे बचपन की लीलाओं के आनंद के अनुभव को याद कर तड़प रहे तो कुछ मेरे संग की गयी शैतानियों और क्रीड़ाओं को याद कर विक्षिप्त से दिखते हैं तुम्हें |”
                    श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया  -  “ वास्तविकता तो यह है कि गोपियाँ भी मुझसे प्रेम के कारण व्याकुल नहीं हैं या मुझसे विछोह के कारण व्याकुल नहीं है। वो व्याकुल हैं उस रस के कहीं चले जाने से जो उनको पूर्णता प्रदान करता था | अगर उन्होंने प्रेम किया होता तो वो सभी की सभी अभी भी उस प्रेम का आनंद ले रही होती | प्रेम सिर्फ और सिर्फ आनंदमय है, उसमें व्यथित होने की कोई सम्भावना ही नहीं है | व्यथा या दुःख केवल मुझसे दूरी का है, मेरे इस शरीर से दूरी का है अन्यथा मैं तो प्रत्येक स्थान और प्रत्येक प्राणी में हूँ और वे सभी मुझमें है|”
        “प्रेम समर्पण का नाम है ना कि किसी परआधिपत्य स्थापित करने का | प्रेम जीवन को जीने का नाम है ना कि किसी को प्राप्त कर उस पर अधिकार कर लेने का | प्रेम तो केवल एक भावना है, पारलौकिक है, सर्वज्ञ है, सर्वस्व है,वह केवल किसी एक व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं | अगर आपकी भावना सीमित है तो फिर वह प्रेम नहीं है । आज मुझसे प्रीत को पाने को किये गए जिस त्याग को वो याद कर रोते हैं वो मात्र प्रेम रुपी यज्ञ में एक आहुति थी, जो कि यज्ञवेदी की प्रेमरूपी अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए अति आवश्यक है |”
      “उन्हें मैं निष्ठुर लगता होऊंगा, निर्मोही भी कहते होंगे वो मुझे | पर अब परिस्थितियाँ पहले जैसी नहीं रही, न ही मैं वो ही पहले वाला ग्वाला कान्हा हूँ | अब मैं एक राज्य का उत्तराधिकारी हूँ, अब मेरे ऊपर पूर्ण राज्य की प्रजा के पालन की जिम्मेदारी है | उन्हें जिस कृष्ण से प्रेम था, वो सभी जिम्मेदारियों से मुक्त था | आज का कृष्ण प्रजा पालक है, तब का कृष्ण सिर्फ एक नटखट बालक था |”
        उद्धव चकित थे इस कृष्ण को देख कर | पर कृष्ण अभी भी मुसकुरा रहे थे | कृष्ण ने उद्धव के दोनों कंधों पर अपने दोनों हाथ रखे और मुसकुराते हुए उद्धव को कहा, “मेरे प्रिय सखा उद्धव, जीवन एक उत्सव है, इसके हर पल को अपने हिस्से की जिम्मेदारियों को निभाने के साथ साथ प्रेम पूर्वक हर्षौल्लास से जीना चाहिए | यही जीवन का मूल सार है |”
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Sunday, September 22, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-2

उद्धव-कृष्ण संवाद-2
          श्री कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानार्जन के लिए गए थे तब रह रहकर उन्हें व्रज की याद सताती थी | वहां यही उद्धव उनका मित्र था जो सदैव रीति-नीति, निर्गुण ब्रह्म और योग की बात करता रहता था | तब श्री कृष्ण को चिंता हुई कि यह संसार केवल मात्र विरक्ति युक्त निर्गुण ब्रह्म से तो चलेगा नहीं, इसके लिए तो विरह और प्रेम की आवश्यकता है | उद्धव से वे उकताने लगे थे जो सदैव कहता रहता था कि कौन माता, कौन पिता, कौन सखा, कौन बन्धु ? इसीलिए प्रेम और विरह का ज्ञान कराने के लिए ही श्री कृष्ण ने सन्देश देकर उद्धव को वृन्दावन भेजा था | ऐसा नहीं है कि श्री कृष्ण को ज्ञान नहीं था कि उद्धव के साथ कैसा व्यवहार होगा? सब पता था कृष्ण को परन्तु वे अपने मित्र को उस प्रेम और विरह से परिचित करना चाहते थे जो समस्त ज्ञान के ऊपर है | इस प्रकार सूरदासजी ने अपने ‘भ्रमर-गीत’ में इसका वर्णन बड़े ही सुन्दर रूप से किये है |
 उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै,किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो,
हम जो कहति हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत,
धुन देखियत नहिं नीकी।
          भ्रमर-गीत के बारे में विस्तार से चर्चा फिर कभी, अभी तो हम उद्धव के साथ श्री कृष्ण के पास लौट चलते हैं |
                  वृन्दावन से सब प्रकार से हतोत्साहित होकर उद्धवजी को आखिर लौटना ही पड़ा | वे समझ नहीं पा रहे थे कि मेरा ज्ञान, साधारण सी दिखने वाली गोपिकाओं के सामने आकर, आखिर असफल क्यों हो गया ?  वृन्दावन से उद्धव बड़े उद्विग्न होकर लौटे और साथ ही कई प्रश्न उनके साथ वहाँ से आये जिनका बोझ उद्धव से उठाये नहीं जा रहा था | वे सीधे कृष्ण के पास उनके विश्राम गृह में गए और उनके चरणों के पास बैठकर अपना सर झुका कर बैठ गए |
           कृष्ण उद्धव को देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उठाकर उद्धव को अपने सीने से लगाया | फिर अपने पास बैठाकर उनसे माता यशोदा, नन्द बाबा और अपने सभी मित्रों का कुशल क्षेम पूछा | उन्होंने उद्धव की आवाज में एक ठहराव सा पाकर उद्धव से उन सबके कुशल क्षेम की जानकारी ली |
           उद्धव उदास मन से कृष्ण से बोले, “हे कृष्णा,  तुम्हारे लिए मैंने वृंदावन के कण कण में अविरल, असीमित, निर्विकार और शाश्वत प्रेम पाया | मैंने गोपियों की वेदनाएं भी सुनी। सब के सब तुम बिन ऐसे तड़पते हैं जैसे जल बिन मछली और तुम यहाँ मुसकुराते हुए राजपाट का आनंद भोग रहे हो, राजसी कन्याओं के साथ अठखेलियाँ और क्रीडा कर रहे हो, रास कर रहे हो | तुम तो बड़े निर्मोही ठहरे, इतने निर्मम और निर्दयी कैसे बन गए तुम ?”
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Saturday, September 21, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-1

उद्धव-कृष्ण संवाद-1 
       महाभारत काव्य के एक पात्र हैं, उद्धव | उद्धव भगवान श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे | गुरुकुल में उनके साथ पढ़े भी थे और उससे भी बड़ी बात कि वे भगवान के परम सखा थे | जब भगवान श्री कृष्ण मथुरा में कंस का वध कर चुके थे, तब उद्धव को उन्होंने अपना सारथी बनाया था | उद्धव ज्ञान को भक्ति पर अधिक महत्त्व देते थे | उनका कहना था कि ज्ञान से परमात्मा को तत्व रूप से जानना ही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हाँ, तात्विक ज्ञान आवश्यक है परन्तु सर्वोपरि तो प्रेम और भक्ति है | उद्धव ने इस बात को सहजता से स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे ज्ञान को अधिक महत्वपूर्ण समझ रहे थे | तब भगवान ने उन्हें समझाने के लिए अपना सन्देश देकर व्रज में भेजा | भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि प्रेम के प्रभाव को ज्ञान से दबाना कितना कठिन है ?
        उद्धव जी अपने ज्ञान की गठरी बांधे चल देते हैं, व्रज की ओर | उनका एक ही उद्देश्य है कि वे जाकर गोपियों को समझाए कि वे क्यों कृष्ण के विरह में इतनी व्याकुल हैं ? जब वे गोकुल पहुंचते हैं तो यह देख कर दंग रह जाते हैं कि केवल गोपियाँ ही नहीं बल्कि सभी निवासी, गायें, यमुनाजी,  यहाँ तक कि पेड़ पौधे तक सभी मुरझाये हुए से हैं | जब उद्धव ने यह दृश्य देखा तो वे सभी को अपने ज्ञान के प्रकाश में समझाने लगे कि कृष्ण एक साधारण मनुष्य और मेरे मित्र से अधिक कुछ भी नहीं है | तुम उसके वियोग में इतना क्यों पगला रही हो ? इस पर गोपियाँ कहती हैं कि हे उधो, यह मन एक ही है, कोई दस बीस तो है नहीं | उस कृष्ण के बिना एक पल के लिए जीना हमारे लिए संभव ही नहीं है | उस एक के बिना सब कुछ सूना है | उद्धव फिर भी अपने ज्ञान से उन्हें समझाने का अंतिम प्रयास करते हैं परन्तु वे कुछ भी सुनने से इनकार कर देती है | अंततः उद्धव जी को अपनी ज्ञान की गठरी समेट कर वापिस लौटना पड़ा | उन गोपिकाओं पर उद्धव जी के ज्ञान का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा | लाख ज्ञान देकर भी वे उन गोपिकाओं के श्री कृष्ण के विरह में बह रहे आंसुओं को रोक नहीं पाए | महान कवि सूरदासजी ने इस पर एक काव्य लिखा है, “भ्रमर गीत” | भ्रमर गीत में गोपिकाएं उद्धव को कहती हैं –
उधौ मन ना भये दस-बीस
एक हतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस |
    भ्रमर गीत में सूरदासजी ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को व्रज सन्देश देकर भेजा जाता है और उद्धव जो हैं, योग और ब्रह्म के ज्ञाता, प्रेम से दूर तक उनका कोई सरोकार नहीं है | जब वे गोपिकाओं से योग और ब्रह्म की बातें करते हैं, तब वे बातें उन्हें रास नहीं आती और गोपिकाएं उन्हें काले भंवरे की उपमा दे देती है | भ्रमर गीत में 100 से अधिक पदों का संकलन है |
क्रमशः
प्रस्तुति-प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Thursday, August 15, 2019

अलख निरंजन

अलख निरंजन
             ‘अलख निरंजन' क्या है?
दत्तात्रेय भगवान का एक प्रचलित जयघोष है ‘अलख निरंजन’।अलख निरंजन का भावार्थ क्या है?
     "अलख" शब्द का अर्थ है, अगोचर अर्थात जिसे स्थूल दृष्टि से देखा नहीं जा सके। लख शब्द लक्ष का अपभ्रंश है।लक्ष का तात्पर्य देख पाने की शक्ति से है। अलक्ष यानी ऐसा जिसे हम सामान्य नेत्रों से देख ही न पाएं, सामान्य बुद्धि जिसे समझ ही न पाए। वह इतना चमकीला इतना तेजस्वी है कि उसे देख पाना सहज संभव नहीं।
        "निरंजन" शब्द बना है, नि: और अंजन से। अंजन कहते हैं, काजल को।काजल काला होता है।यहां काला रंग अंधकार का भाव लिए हुए है अर्थात अज्ञान।इस प्रकार निरंजन का अर्थ हुआ,अज्ञान का न होना यानि अज्ञान का नष्ट हो जाना अर्थात ज्ञान हो जाना।
       इस प्रकार ‘अलख निरंजन’ का भाव हुआ, ज्ञान का ऐसा प्रकाशमान तेज, जिसे देख पाना संभव न होते हुए भी उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार होना,अज्ञान की कालिमा से मुक्त होकर ज्ञान में प्रवेश करना।
             इसका एक अर्थ और भी बताया जाता है-
अघोरपंथियों के अनुसार अलख का अर्थ होता है जगाना (या पुकारना) और निरंजन का अर्थ होता है अनंत काल का स्वामी…अलख निरंजन का घोष करके वे कहते हैं- हे! अनंतकाल के स्वामी जागो, देखो हम आपको पुकार रहे हैं।
        अलख का अर्थ है अगोचर; जो देखा न जा सके।
निरंजन परमात्मा को कहते हैं। अतः 'अलख निरंजन' का अर्थ यह भी हुआ- "परमात्मा जिन्हें देखा न जा सके पर वह सब जगह व्याप्त हैं।" परमात्मा सब जगह होने की बात को विभिन्न प्रकार से कहा जा सकता है जैसे वासुदेव: सर्वम् , सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् आदि।
   आप सभी को रक्षा बंधन और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
      अभी अल्प प्रवास पर अमेरिका आया हुआ हूँ। परसों अर्थात 17 अगस्त की रात्रि को स्वदेश के लिए प्रस्थान करना है, अतः लेखन को यहीं विराम देना होगा। इस बार प्रवास की अवधि में स्वाध्याय और सत्संग, दोनों का अच्छा अवसर और लाभ मिला।स्वाध्याय में विशेष तौर पर श्री मद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध का अध्ययन रहा, जिसमें उद्धव-श्री कृष्ण प्रसंग है। इसी स्कंध में दत्तात्रेय भगवान के 24 गुरुओं का प्रसंग है, जिस पर पिछली श्रृंखला आधारित थी।
       दूसरी बात:- चिन्मय मिशन के बारे में आचार्य श्री गोविंद राम जी शर्मा से प्रायः चर्चा होती रहती थी परंतु इस मिशन के बारे में मुझे ज्यादा अनुभव नहीं था। हाँ, कुछ अध्ययन स्वामी श्री चिन्मयानंद जी की गीता की टीका का भी किया था परंतु इस बार ऑकलैंड (कैलिफोर्निया) में स्वामी श्री चिन्मयानंदजी के शिष्य और स्वामी श्री तेजोमयानन्द जी के साथ रहे श्री जिम गिलमैन से सत्संग का सुअवसर मिला।लगभग तीन सप्ताह उनके Hindu spirituality study group के सत्संग कार्यक्रमों में भाग लिया।इस अवधि में group में अद्वैत वेदांत पर विशेष रूप से चर्चा हुई। श्री जिम गिलमैन से ही अवधूत गीता, कठोपनिषद, विवेक चूड़ामणि और अष्टावक्र गीता पर गंभीर विचार विमर्श हुआ।समय मिलते ही आपसे पुनः ब्लॉग के माध्यम से भेंट होगी, तब तक आज्ञा चाहूंगा। आप सभी का साथ बने रहने के लिए आभार और प्रणाम।
।।हरि:शरणम्।।
 

Wednesday, August 14, 2019

अवधूत

अवधूत
अवधूत का अर्थ होता है, जीवनमुक्त ज्ञानी। अवधूत गीता में दत्तात्रेयजी ने "अवधूत-गीता"के अंतिम अध्याय में अवधूत शब्द की व्याख्या की है।वे कहते हैं कि अवधूत शब्द निम्न चार अक्षरों से मिलकर बना है:अ+व+धू+त।इनका विस्तृत अर्थ निम्न प्रकार है-
अवधूत में 'अ' का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
आशापाशविनिर्मुक्त आदिमध्यान्त निर्मलः।
आनन्दे वर्तते नित्यमकारं तस्य लक्षणम्।।8/6।।
अ--
  --जो व्यक्ति "आशा" पाश से मुक्त है।
   --जो व्यक्ति "आदि, मध्य और अंत" सब ओर से निर्मल हो।
   --जो नित्य ही "आनंद" में मग्न रहता हो।
अवधूत में 'व' का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
वासना वर्जित येन वक्तव्यं च निरामयम् ।
वर्तमानेषु वर्तेत वकारं तस्य लक्षणम् ।।8/7।।
व--
  --जिसने "वासना" का अंत कर दिया हो।
  --जिसका "वक्तव्य"राग-द्वेष से रहित हो।
  --जो सदैव "वर्तमान"में रहता हो।
अवधूत में 'धू' के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
धूलोधूसरगात्राणि धूतचित्तो निरामयः ।
धारणाध्याननिर्मुक्तो धूकार स्तस्य लक्षणम् ।।8/8।।
धू--
   --"धूलधूसर" ही जिसके अंग हो।
   --जिसका "धूतचित्त"हो।जिसका मन निर्मल हो चुका       हो।
   --जो "धारणा, ध्यान" आदि क्रियाओं से मुक्त हो गया हो।
तत्वचिंता धृतायेन चिंताचेष्टा विवर्जितः।
तमोsहंकार निर्मुक्तस्तकारस्तस्य लक्षणम्।।8/9।।
अवधूत में "त" के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
त--
   --जिसने "तत्व चिंतन"को ही धारण किया हो।
   --जिसने समस्त सांसारिक चिंता व चेष्टा का "त्याग" कर दिया हो।
   --जो "तम रूपी अहंकार" से रहित हो।
दत्तात्रेयजी का एक और कथन है: "अलख निरंजन"।
कल अलख निरंजन के बारे में-
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, August 13, 2019

भगवान दत्तात्रेय


भगवान दत्तात्रेय 
       हमने अभी तक श्री मद्भागवत महापुराण में वर्णित भगवान दत्तात्रेय के गुरुओं की चर्चा की है। आइए अब जानते हैं कि दत्तात्रेय कौन थे?  भागवत महापुराण के अनुसार मनु और शतरूपा के पांच संताने हुई, दो पुत्र और तीन पुत्रियां। प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम के दो पुत्र हुए तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन पुत्रियां हुई । उत्तानपाद के पुत्र श्रीहरि के महान भक्त ध्रुव से हम परिचित हैं ही। मनु शतरूपा की तीन पुत्रियों में से सबसे बड़ी आकूति का विवाह रूचि प्रजापति के साथ, मँझली पुत्री देवहूति का कर्दम ऋषि के साथ और सबसे छोटी पुत्री प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ।दक्ष प्रजापति और प्रसूति की पुत्री सती थी जिनका विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ।
      मनु और शतरूपा की मँझली पुत्री देवहूति और कर्दम ऋषि के एक पुत्र और नौ कन्याएं हुई। इनकी संतानों में सबसे छोटे उनके पुत्र कपिल के रूप में स्वयं विष्णु भगवान अवतरित हुए, जिन्होंने अपनी माता देवहूति को ज्ञान दिया।  कपिलजी के अतिरिक्त इनकी नौ कन्याओं थी जिनके नाम थे: कला,  अनुसुइया,  श्रद्धा,  हविर्भू,  गति,  क्रिया,  ख्याति,  अरुन्धती  और शान्ति । दूसरे क्रम की कन्या अनुसुइया का विवाह अत्रि ऋषि के साथ हुआ,जिनके पुत्र दत्तात्रेयजी हुए।
            अत्रि पत्नी अनुसुइया शास्त्रों में सती अनुसुइया के नाम से प्रसिद्ध हैं।उन्होंने साधुवेश में भिक्षा मांगने आये त्रिदेव को दूध पीते बच्चे बना दिये थे।  साधुओं का वेश बनाये ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अनुसूइया से निःवस्त्र होकर गोद में बिठाकर भोजन कराने का आग्रह किया। अनुसूइया ने अपने पतिव्रत धर्म के बल से उन तीनों को शिशु रूप में परिवर्तित कर दिया और फिर उन्हें निर्वस्त्र होकर गोद में लेकर दूध पिलाने लगी।जब ब्रह्माणी, लक्ष्मी और रुद्राणी के पतिदेव देर तक वापिस नहीं लौटे तो वे उनकी तलाश में अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंची । तब सती अनुसूइया को उन तीनों की वास्तविकता का पता चला।सती अनुसूइया ने उन शिशुओं को पुनः अपने  वास्तविक स्वरूप में परिवर्तित कर् दिया। अनुसूइया के पतिव्रत धर्म से प्रभावित होकर त्रिदेव ने वर मांगने को कहा। अनुसूइया ने त्रिदेव को ही पुत्र रूप में मांग लिया। उसी वर के अनुसार भगवान विष्णु उनके पुत्र दत्तात्रेय हुए।दत्तात्रेजी का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को हुआ था।भगवान ब्रह्मा का जन्म चंद्र के रूप में और भगवान शंकर का जन्म महर्षि दुर्वासा के रूप में हुआ। इस प्रकार त्रिदेव ने अनुसूइया के गर्भ से तीन शिशुओं के रूप में जन्म लिया।
       भगवान दत्तात्रेय के रायपुर (छ.ग.) और इंदौर (म. प्र.) में जगप्रसिद्ध मंदिर हैं।दत्तात्रेयजी अवधूत नाम से भी जाने जाते हैं।कहा जाता है कि अवधूत गीता उन्हीं के द्वारा कही गयी है। अवधूत गीता अद्वैत वाद का समर्थन करती है।इसी कारण से कई विद्वान इस ग्रंथ को लिपिबद्ध करना अद्वैतवादी आदिगुरु शंकराचार्य के काल के बाद, लगभग 11वीं शताब्दी में मानते हैं।अवधूत गीता भी अपने आप में एकअद्भुत ग्रन्थ है।
कल अवधूत शब्द पर चर्चा करेंगे।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, August 12, 2019

गुरु-27

गुरु-27
       चलिए, एक बार फिर संक्षेप में दत्तात्रेयजी के इन गुरुओं और इनसे प्राप्त होने वाली शिक्षाओं को दोहरा लेते हैं।
1.पृथ्वी-धैर्य और क्षमा।
2.वायु-निर्लिप्तता।
3.आकाश-एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति।
4.जल-सहज, निर्मल और पवित्र स्वभाव।
5.अग्नि-दोष रहित होना।
6.चंद्रमा-प्रत्येक परिस्थिति में सम रहना।
7.सूर्य-इन्द्रिय भोग और त्याग, दोनों में सामंजस्य।
8.कबूतर-आसक्ति का त्याग।
9.अजगर-व्यर्थ की चेष्टा न करना।
10.समुद्र-धीर,गंभीर रहना।
11.पतंगा-दर्शनेन्द्रीय पर नियंत्रण।
12.भौंरा व मधुमक्खी-गंध के प्रति आसक्ति व संग्रह करना अनुचित है।
13.हाथी-स्पर्श सुख के प्रति आसक्ति से जीवन पर संकट।
14.मधु निकालने वाला- संग्रह किये गए धन और वस्तुओं को कोई अन्य ही भोगता है।
15.हरिन-श्रवण इन्द्रिय पर नियंत्रण।
16.मछली-  जिव्हा रस के प्रति आसक्ति अनुचित ।
17.पिङ्गला वेश्या- ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी कोई आशा न रखना।
18.कुरर पक्षी- जीवन में संग्रह ही दुःख का सबसे बड़ा कारण।भोगों को त्यागने से ही सुख की प्राप्ति होती है।
19.बालक-मान-अपमान और व्यर्थ की चिंता से दूरी।चिंतारहित होना ही सबसे बड़ा सुख है।
20.कुंआरी कन्या-परमात्मा के भजन के लिए किसी के साथ की आवश्यकता नहीं।दूसरे का साथ ही भजन में बाधक।
21.बाण बनाने वाला-वैराग्य और अभ्यास से मन को एकाग्र कर लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास।
22.सर्प-एकांतिक जीवन।घर अथवा मठ आश्रम आदि का निर्माण नहीं करना।
23.मकड़ी-एक परमात्मा ही जगत के निर्माणकर्ता और संहारक।संकल्प विकल्प का त्याग हमें संसार जाल में नहीं उलझने देता।
24.भृङ्गी कीट- संसार का चिंतन करोगे तो सांसारिकता में ही जीवन भर उलझे रहोगे। अतः सदैव केवल परमात्मा का ही चिंतन करते रहें, उसी में मन को लगा दें। चाहे प्रेम, द्वेष अथवा भय के वशीभूत होकर ही क्यों न हो, फिर आप स्वयं ही परमात्मा स्वरूप हो सकते हो।
     और अंत मे स्वयं के शरीर से लेने वाली शिक्षा- यह शरीर साधन मात्र है, चाहो तो इससे विषय भोग प्राप्त करो अथवा परमात्मा की ओर चलो। मनुष्य शरीर परमात्मा की ओर जाने के लिए मिला है न कि विषय रस लेने के लिए। आप शरीर नहीं हैं अतः शरीर से स्वयं को अलग मानते हुए, इसको साधन बनाकर साध्य तक पहुंचने का प्रयास करें।
    सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस श्रृंखला से निकल कर आई है वह है कि कोई भी गुरु आपको तब तक ज्ञान नहीं करा सकता जब तक कि ज्ञान लेने के लिए आप बुद्धि का उपयोग करने को स्वयं तत्पर न हो।अतः आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक आदर्श गुरु मिलने के साथ साथ आपकी लगन और विवेक का सदुपयोग करना भी आवश्यक है।गुरु आपके विवेक को जाग्रत करता है, पतन्तु सदमार्ग पर आपको ही चलना पड़ता है।कहने का सार यह है कि अगर आप विवेकवान हैं तो फिर आप स्वयं ही अपने गुरु हो सकते हैं, आपको कहीं बाहर जाकर गुरु ढूंढने की आवश्यकता नहीं है।
कल-दात्तात्रेय जी का परिचय।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, August 11, 2019

गुरु-26

गुरु-26
      हम विषयासक्त क्यों हो जाते हैं?इसका एक ही कारण है, हम अपने आपको आत्मा न मानकर शरीर मानने लगते हैं। हमारी इंद्रियां ही इसके लिए उत्तरदायी हैं।जैसे बहुपत्नियाँ रखने वाले व्यक्ति को प्रत्येक पत्नी अपनी ओर खींचती है, वैसे ही भोगों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक इंद्रिय मनुष्य को अपनी ओर खिंचती है।यह तो व्यक्ति की बुद्धि और विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस ओर जाए अथवा सभी को नकार दे।
          इन्द्रीयजनित भोगों को नकारने की क्षमता केवल मनुष्य के पास है। परमात्मा ने मनुष्य से पहले भी अनेकों प्रजातियों के प्राणी बनाये हैं। वे केवल भोग ही भोगते रहते हैं, भोगों को नकारने की क्षमता उनके पास नहीं है।अंततः परमात्मा को बुद्धि देकर मनुष्य को बनाना पड़ा। अगर मनुष्य को नहीं बनाता तो वह अपने स्वरूप को देखने से भी वंचित हो जाता। केवल मनुष्य के पास ही इतनी बुद्धि है कि उससे ब्रह्म का साक्षात्कार तक कर सकता है। इस मनुष्य शरीर की रचना कर वे अत्यधिक आनंदित हुए।
      वैसे यह शरीर मरणधर्मा है,अनित्य है।मृत्यु इसका सदैव पीछा करती रहती है।फिर भी इससे परम पुरुषार्थ अर्थात मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।"बहुनाजन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते......।" बहुत से जन्मों के अंत में यह मनुष्य शरीर मिला है। इस अवसर को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए।बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मृत्यु आने से पहले ही वह मोक्ष को उपलब्ध होने के लिए प्रयत्न कर ले क्योंकि मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य है, विभिन्न शरीरों से मुक्त होकर परमात्मा तक पहुंचा जाए।विषय भोग तो हम पहले ही विभिन्न योनियों में भोगते भोगते आए हैं।
             दत्तात्रेय भगवान कहते हैं कि "राजन् ! ऐसा सोचकर मुझे भी वैराग्य हो गया। मेरे भीतर ज्ञान-विज्ञान की ज्योति सदैव जगमगाती रहती है।अब मुझमें न तो विषयों और शरीर के प्रति आसक्ति है और न ही अहंकार। इसीलिए मैं निर्भय होकर इस धरा पर स्वच्छन्द होकर विचरण कर रहा हूँ।"
        अकेले गुरु ही आपको ज्ञान नहीं दे सकते, इसके लिए आवश्यक है कि अपनी बुद्धि से भी हम कुछ सोचें समझें।इस प्रकार कह कर दत्तात्रेयजी ने शरीर और अपने 24 गुरुओं की गाथा राजा यदु को कह सुनाई।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, August 10, 2019

गुरु-25

गुरु-25
       मनुष्य का शरीर परमात्मा द्वारा बनाई गई सर्वोत्तम कृति है। हम इस शरीर को पाकर जीवनभर विषय भोगों से प्राप्त होने वाले कथित सुखों को प्राप्त करने की भाग दौड़ में लग जाते हैं। मैंने विषयों से प्राप्त होने वाले सुखों को कथित सुख कहा है क्योंकि उनको केवल सुख कहा ही जाता है वास्तविकता में वह सुख न होकर दुःख प्राप्त होने की प्रारंभिक अवस्था होती है। अनुभव किए जाने वाले सुख के पीछे दुःखों का आगमन छिपा होता है। इस बात को केवल वही व्यक्ति समझ सकता है, जिसने अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करना सीख लिया है। यह शरीर हमारा गुरु है और यह तभी गुरु बन सकता है, जब हम अपने मस्तिष्क के दरवाजे और खिड़कियां खुली रख विवेक का आदर करें।
      हाँ, यह शतप्रतिशत सत्य है कि मनुष्य का शरीर ही उसके लिये मुक्ति का द्वार खोल सकता है। इसी शरीर से हमें विवेक और वैराग्य उपलब्ध होता है।जीवन में जब विवेक और वैराग्य का पदार्पण हो जाता है, तब व्यक्ति की आसक्ति अपने शरीर के प्रति समाप्त हो जाती है। इसी अवस्था को उपलब्ध होने पर ही व्यक्ति को अनुभव होता है कि केवल विषय भोग में रत रहने से तो इस संसार में सदैव के लिए आना-जाना बना ही रहेगा। मुक्ति के लिए तो विषयासक्ति और शरीर के प्रति आसक्ति, दोनों का त्याग करना होगा और यह त्याग बिना विवेक और वैराग्य के होना असंभव है।
      इस संसार में शरीर का तो जीना मरना लगा ही रहता है। शरीर में आसक्त होकर उसे पकड़े रखने का केवल एक ही परिणाम होता है, जीवन मे दुःख पर दुःख भोगते जाओ।दूसरी ओर इसी शरीर से तत्व विचार कर सकते हैं।परंतु आत्म ज्ञान को प्रवृत्त मनुष्य को सदैव यह ध्यान में रखना होगा कि यह शरीर तो मरणधर्मा है। एक दिन इसका जाना निश्चित है।इसलिए शरीर से सदैव असंग होकर रहें और तत्व ज्ञान के लिए आतुर।हम इस शरीर को कथित सुख देने के लिए ही विभिन्न प्रकार की कामनाएं और कर्म करते हैं। जिसके लिए हम केवल भोग और संग्रह करने में ही लगे रहते हैं।परिणाम-हमारा धन, हमारा परिवार आदि बढ़ते जाते हैं और व्यक्ति जीवन भर उनके पालन-पोषण में ही लगा रहता है। देह की आयु पूरी होने पर शरीर तो चला जाता है और पीछे वृक्ष की तरह दूसरे शरीर के लिए बीज बोकर उसके लिए भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, August 9, 2019

गुरु-24

गुरु-24
       दत्तात्रेयजी ने भृङ्गी नामक कीट को अपना 24 वां गुरु बताया है। आइए!सबसे पहले जानते हैं कि भृङ्गी कीट कैसा होता है और क्या करता है? वैसे तो इस जगत में कीड़ों की अनेक प्रजातियां हैं।आपको जानकर आश्चर्य होगा कि संसार में प्राणियों में सर्वाधिक आबादी ही कीड़ों (arthropods)की है। उन्हीं कीड़ों की प्रजाति में भृङ्गी भी एक कीट है।भृंगी कीट एक पंखों वाले चींटे के समान जीव होता है । इसकी विशेषता ये है कि ये नर और मादा मिलकर जनन क्रिया द्वारा बच्चे उत्पन्न नहीं करता  क्योंकि भृंगी कीट में नर मादा जीव अलग अलग होते ही नहीं है । ये दीवाल आदि पर बने अपने तीन चार छिद्रों वाले मिट्टी के छोटे से गोल घर में किसी तिनके जैसे मामूली कीङे (जो कि उसके द्वारा दिये गए अंडे से निकला हुआ लार्वा ही होता है) को उठा लाता है और घर के अन्दर डालकर स्वयं बाहर से पंख फ़ङफ़ङाता हुआ तेज भूँ भूँ हूँ हूँ की ध्वनि करता है । इसके स्वर से छोटा कीङा भय से बेहोश हो जाता है और भय से ही उसकी आंतरिक तथा बाह्य संरचना परिवर्तित होकर भृंगी कीट जैसी ही हो जाती है ।वास्तव में उसका लार्वा ही बेहोश होकर प्यूपा बन जाता है ।उस अवधि में उसकी आंतरिक व बाह्य रचना परिवर्तित होकर भृङ्गी कीट का रूप ले लेती है।
      राजा यदु को दत्तात्रेयजी बता रहे हैं कि हे राजन्!मैंने इसी भृङ्गी कीट से यह शिक्षा ली है कि यदि व्यक्ति स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से तीनों में से किसी भी भाव से एकाग्र होकर मन को किसी मे भी लगा दे वह उसी के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।इस प्रकार से अगर मनुष्य परमात्मा में एकाग्रचित्त कर ले तो शीघ्र ही वह स्वयं ही परमात्मा के स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है।मीरां बाई ने स्नेह से अपने मन को श्री कृष्ण में लगाया और वे उन्हीं में समा गई। रावण सदैव द्वेष पूर्वक प्रभु श्री राम को याद करता रहा, इससे उसका मन सदैव राम में लगा रहा, परिणाम हमारे सामने है। मृत्यु के बाद उनको परमात्मा का धाम ही मिला। कहने का अर्थ है कि सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, एकाग्रचित्त होकर परमात्मा का स्मरण करना और सबसे अच्छा है, प्रेम पूर्वक परमात्मा का स्मरण।
       इस प्रकार दत्तात्रेय जी ने राजा यदु को पृथ्वी से लेकर भृङ्गी कीट तक के 24 गुरुओं से ली हुई शिक्षा से परिचित कराया। अंत में वे कहते हैं कि अपनी इस मनुष्य देह से भी महत्वपूर्ण ज्ञान लिया है।यह  ऐसा ज्ञान है जो कि जीवन की सत्यता से हमारा परिचय कराता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, August 8, 2019

गुरु-23

गुरु-23
      दत्तात्रेयजी के अगले गुरु है, सर्प।सांप में उन्होंने क्या विशेषता देखी, आइए!पहले उसकी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं।सांप सदैव अकेले ही विचरण करता है, सांप की केवल इसी एक विशेषता से उन्होंने बहुत बड़ी शिक्षा ग्रहण कर ली। वे कहते हैं कि साधु को भी सांप की तरह अकेले ही विचरण करना चाहिए।सन्यासी को मठ मंडली आदि नहीं बनानी चाहिए।प्रमाद न करे,एक स्थान पर स्थिर होकर रहे नहीं, घर बनाकर नहीं रहे क्योंकि घर ही दु:खों की जननी है।साधु को चाहिए कि किसी से कोई सहायता न ले तथा व्यर्थ की बातें न करे।
           सर्प के बाद दत्तात्रेयजी ने मकड़ी को अपना गुरु माना है। मकड़ी अपनी ही लार से जाले का निर्माण करती है, उसी में विहार करती है और फिर कार्य पूरा होने पर उसे खुद ही निगल लेती है।इसी प्रकार परमेश्वर भी अपने से ही संसार का निर्माण करते हैं, जीव रूप से जगत में विहार करते हैं और फिर उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं।
      सर्वशक्तिमान भगवान कल्प के आरंभ में बिना किसी की सहायता लिए अपनी ही माया से जगत का निर्माण करते हैं और कल्प के अंत प्रलयकाल में उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं।वे सबके आधार हैं, सबके आश्रय हैं परंतु स्वयं अपने ही आधार और आश्रय से रहते हैं, किसी दूसरे के आश्रय से नहीं।वे प्रकृति और पुरुष दोनों ही के नियामक हैं। सत्व,रज और तम गुण की शक्तियों को साम्यावस्था तक वे ही पहुंचाते हैं।वे अपनी शक्ति काल से त्रिगुणी माया रूपी प्रकृति को क्षुब्ध करते हैं और फिर सर्वप्रथम क्रियाशक्ति प्रधान सूत्र महतत्व की रचना करते हैं ।यह सूत्ररूप महतत्व ही त्रिगुण की पहली अभिव्यक्ति है और सृष्टि का मूल कारण भी।उसी में यह सारा विश्व सूत में ताने बाने की तरह ओत-प्रोत है।इसी के कारण जीव जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ा रहता है।
       मकड़ी के मुख से निकलने वाले सूत्र और उससे बनाये जाने वाले जाल, इसमें निर्बाध विचरण करती मकड़ी और फिर जाले को स्वयं के द्वारा निगल लिए जाने जैसी घटना को देखकर ही दत्तात्रेयजी को महत्वपूर्ण ज्ञान की उपलब्धि हुई । मकड़ी से लिये ज्ञान से इस जगत के निर्माण से लेकर प्रलय तक की प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है।अतः यह कहा जा सकता है कि बुद्धि का उपयोग कर छोटी से छोटी घटना, जो कि सदैव अपने आस पास घटित होती ही रहती है, उनसे अवश्य ही कुछ न कुछ तो सीखा ही जा सकता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, August 7, 2019

गुरु-22

गुरु-22
      दत्तात्रेयजी महाराज को गुरु मिलने का क्रम जारी है। उन्होंने अपना 21वां गुरु माना है,एक बाण बनाने वाले को। बाण बनाना कोई आसान कार्य नहीं है।बाण बनाने के लिए पूरी तन्मयता और एक ही स्थान पर टिक कर बैठने की आवश्यकता होती है।जब दत्तात्रेयजी ने देखा कि बाण बना रहे व्यक्ति के पास से ही राजा की सवारी भी निकल गयी और उस कारीगर को इस बात का तनिक से भी आभास नहीं हुआ, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। बुद्धि का उपयोग कर इस घटना का सार जब उनको मिला तो उस बाण बनाने वाले कारीगर को भी उन्होंने अपना गुरु मान लिया।
           दत्तात्रेयजी कहते हैं कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य तथा अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर उसे अपने लक्ष्य में लगा देना चाहिए। जैसे बाण बनाने वाला अपने अभ्यास और तन्मयता से उच्च कोटि के बाण का निर्माण कर लेता है।
         इस संसार में सारा खेल मन का ही है।"मनः एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो" अर्थात मनुष्य के बंधन का कारण उसका मन है और मन ही उसके लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है। मोक्ष का मार्ग खोलने के लिए मन का उपयोग कैसे किया जाता है, बाण बनाने वाले से सीखा जा सकता है।आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य धारण करें और अभ्यास करते हुए मन को वश में करें। फिर मन को जीवन के एक मात्र लक्ष्य, परमात्मा की ओर लगा दें।जब मन परमात्मा में स्थिर हो जाता है तो फिर कर्मवासना भी जाती रहती है।इस प्रकार जिस का चित्त अपनी आत्मा में स्थिर हो जाता है, उसे फिर बाहर भीतर किसी भी बात का ज्ञान नहीं रहता।
      बाण बनाने वाले का चित्त भी स्थिर था, तभी तो उसको पास से गुज़र गई राजा की सवारी का भान तक नहीं हुआ।एक ही स्थान पर शरीर को स्थिर रखते हुए, मन को केवल बाण बनाने के लक्ष्य पर स्थिर करते हुए ही उत्कृष्ट श्रेणी का बाण बनाया जा सकता था। एक निपुण कारीगर की यही पहचान होती है कि वह अपना कार्य कितनी तन्मयता और मन तथा शरीर को स्थिर रखकर करता है। यही आधार आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।दत्तात्रेयजी ने यह सीख बाण बनाने वाले कारीगर को बाण बनाते देखकर ही ली है, इसीलिए उन्होंने उसको अपना गुरु माना है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, August 6, 2019

गुरु-21

गुरु-21
          एक परिवार के सभी सदस्य केवल एक कुमारी कन्या  को घर की देखभाल के लिए छोड़कर किसी आवश्यक कार्य से बाहर गए हुए थे। कन्या विवाह योग्य थी और उसके माता पिता किसी योग्य वर की तलाश में थे। संयोग से उसी दिन उस कन्या को देखने के लिए कुछ लोग उनके घर पधारे। घर पर उस समय कुमारी के अतिरिक्त कोई अन्य के न होने के कारण उसी कन्या ने सबका आतिथ्य-सत्कार किया। अतिथियों को भोजन कराने की तैयारी करने के किये वह घर के अंदर जाकर धान कूटने लगी। उसने दोनों हाथों में चूड़ियाँ पहन रखी थी, जो धान कूटते समय तेज आवाज़ कर रही थी।उसे अनुभव हुआ कि तेज़ आवाज़ से अतिथियों को पता लग जायेगा कि वह भीतर धान कूट रही है। उस समय स्वयं के द्वारा धान कूटा जाना निर्धनता का प्रतीक माना जाता था। धान कूटने की आवाज़ कहीं अतिथियों तक नहीं पहुंच जाए इसलिए उसने प्रत्येक कलाई में दो दो चूड़ियां रखी और शेष सभी चूड़ियाँ एक एक कर तोड़ डाली और फिर से धान कूटने लगी। परंतु यह क्या ? चूड़ियां तो फिर भी बज रही थी। अंततः उसने दोनों कलाइयों से एक एक चूड़ी और तोड़ डाली और एक एक चूड़ी ही पहने रखी। अब धान कूटने पर कोई आवाज़ नहीं हो रही थी।
         दत्तात्रेयजी कहते हैं कि राजा यदु! मैं भी उस समय घूमता घामता लोगों का व्यवहार देखने उधर ही चला आया था। जब मैंने उस कुमारी कन्या का इस प्रकार चूड़ियों को तोड़ डालने का यह कृत्य देखा तो मुझे ज्ञान हुआ कि जब बहुत सारे लोग एक साथ रहते हैं तब आपस में बहुत कलह होती है।दो लोग भी साथ रहते हैं तो भी कुछ न कुछ बातचीत तो चलती ही रहती है। अतः परमात्मा के ध्यान के लिए सबसे अच्छा है कि उस कुमारी कन्या के हाथ में एक एक रह गई चूड़ियों की तरह अकेले ही रहा जाए।
      राजस्थान में इससे मिलती जुलती एक बात कही जाती है -
एक का भजन, दो की पढ़ाई।
तीन की गप्प, चार की लड़ाई।।
        कहने का अर्थ है कि अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को किसी के साथ की इच्छा नहीं रखनी चाहिये। किसी अन्य का साथ होना इस मार्ग की प्रगति में बाधक है। परमात्मा की ओर जाने वाले व्यक्ति को अकेले ही चलना पड़ता है। फिर अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। फिर परमात्मा के अतिरिक्त कोई शेष नहीं रहता, "मैं" भी नहीं।एक से अधिक का साथ रहने पर ऐसा हो पाना सदैव के लिए असंभव ही बना रहेगा।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, August 5, 2019

गुरु-20

गुरु-20
         दत्तात्रेय महाराज कहते हैं कि-
-मैं अपने आप में ही क्रीड़ा करता रहता हूँ।
-घर व परिवार वालों को जो चिंता होती है,वैसी मुझे कभी भी नहीं होती है।
-मैं अपनी आत्मा में ही रमन करता रहता हूँ।
-मुझे मान-अपमान का कोई ध्यान/बोध ही नहीं है।
      हे राजन्!यह शिक्षा मैंने एक बालक से ली है इसीलिए मैं सदैव मौज में रहता हूँ। इस संसार में इस निश्चिंत और परमानन्द अवस्था को केवल दो प्रकार के ही व्यक्ति प्राप्त होते हैं-एक तो भोला भाला निश्चेष्ट बालक और दूसरा गुणातीत पुरुष।
         बालक को तो सांसारिक क्रियाकलापों का ज्ञान नहीं होता लेकिन जीवन में सांसारिक अनुभव कर लेने वाले व्यक्ति के लिए पुनः बालक बनकर उस जैसा व्यवहार करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। कठिन इसलिए है क्योंकि वह सभी प्रकार के कर्म जो उसके द्वारा होते हैं वह उन कर्मों का होना न मानकर स्वयं के द्वारा किया जाना मानकर उनका कर्ता बन जाता है। वास्तव में देखा जाए तो कर्म किसी व्यक्ति द्वारा किये जाते नहीं हैं बल्कि प्रकृति के गुणों के कारण स्वयमेव ही होते हैं। जब हम कर्मों का गुणों के कारण होना समझ लेते हैं, उसी दिन से हमारा व्यवहार अपने आप ही एक बालक की तरह हो जाएगा।
         कर्मों का गुणों के द्वारा होना और अपने में गुणों का न होना, ये दोनों बात मान लेना ही गुणातीत हो जाना है। प्रकृति के तीन गुण, सत्व,रज और तम ही प्रत्येक कर्म सम्पन्न होने के कारण है। ऐसे कर्म क्रिया कहलाते हैं। गुणों के कारण होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा किया जाने वाला कर्म मान लेना ही मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है।जब हम इन गुणों से भिन्न होकर, इन गुणों से आगे बढ़कर सोचेंगे तो हमें अनुभव होगा कि इतने दिन हम ही भ्रम में थे कि सब कुछ जो क्रियाएं प्रकृति के गुणों के कारण हो रही थी, उन्हें हम अज्ञानवश अपने द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कर्म मान रहे थे। इस अवस्था को उपलब्ध हो जाने वाला पुरुष ही गुणातीत कहलाता है।गुणातीत पुरुष ही बालक का स्वभाव अपना सकता है। बालक और गुणातीत पुरुष में भी अंतर होता है हालांकि उनकी क्रियाओं में कोई अंतर नहीं होता। बालक को संसार का ज्ञान नहीं होता, उसको इस बात का बोध ही नहीं होता कि कोई उसका सम्मान कर रहा है अथवा अपमान।परंतु गुणातीत पुरुष को मान अपमान का ज्ञान अवश्य होता है परंतु उनका अनुभव उसे दोनों अवस्थाओं में एक समान होता है अर्थात वह मान अपमान पर ध्यान देने की स्थिति से बहुत ऊपर उठ चुका होता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, August 4, 2019

गुरु-19

गुरु-19
         मनुष्य के साथ सबसे बड़ी विडंबना है कि वह अपनी पसंद की वस्तुओं को इक्कट्ठा करता है। एक दिन यही वस्तु संग्रह उसके दु:ख का बहुत बड़ा कारण बनता है। हमारी सुख की चाहना ही हमें संग्रह करने को बाध्य करती है परंतु हम यह भूल जाते हैं कि संग्रह  ही दुःख का जनक है। संग्रह के कारण उस संग्रहित वस्तुओं पर सदैव ही दूसरों की नज़र बनी रहती है और अवसर पाकर वह उनको अपने अधिकार में करना चाहता है। अगर वह उन्हें किसी भी प्रकार अधिकृत कर भी लेता है, तो फिर उसके लिए भी एक दिन वह संग्रह दुःख का कारण बन जाता है। अकिंचन मनुष्य, जिसकी कोई चाहना ही नहीं है, वह संग्रह में विश्वास ही नहीं करता।यहां तक कि वह किसी भी बात का मानसिक संग्रह तक भी नहीं करता। यही कारण है कि चाहना रहित पुरुष सदैव सुखी रहता है। अतः अकिंचन भाव युक्त पुरुष ही परमात्मा को पाने का अधिकारी होता है।
           यह ज्ञान दत्तात्रेयजी ने अपने 18वें गुरु कुरर पक्षी से लिया। कैसे लिया? इसके पीछे भी एक वृतांत है। एक कुरर पक्षी का पेट भर हुआ था फिर भी ताज़ा मांस के एक टुकड़े को पड़े देखकर मन ललचा गया। बाद में खा लेने की सोचकर उसने वह टुकड़ा अपनी चोंच में उठा लिया। वह उसको छुपाने के लिए कोई सुरक्षित स्थान की तलाश कर रहा था।बस, इतना ही पर्याप्त था, उसके जीवन में दुःख को प्रारम्भ करने के लिए। दूसरे पक्षियों ने जब उसकी चोंच में वह मांस का टुकड़ा देखा, तो सभी छीनने के लिए उसके पीछे पड़ गए। अब वह आगे आगे, शेष सभी उसके पीछे पीछे। चोंच मारकर सब उसे घायल कर रहे थे। वह पीड़ा से व्याकुल था। आखिर उसकी चोंच से वह मांस का टुकड़ा नीचे गिर गया। मांस के उस टूकड़े के छूटते ही सभी अन्य पक्षियों ने उसको पीड़ा देना भी छोड़ दिया और उस मांस के टुकड़े को लेने उस ओर चले गए। तब उस कुरर पक्षी को यह अनुभव हुआ कि झगड़ा व्यक्तिगत न होकर अधिग्रहित किये गए मांस के उस छोटे से टुकड़े के लिए था, जिसे उसने भविष्य में खाने के लिए संग्रहित करने का प्रयास किया था।उसकी समझ में आ गया था कि संग्रह ही दुःख का कारण है।
         दत्तात्रेयजी ने उस दिन कुरर पक्षी से सीख ली कि मनुष्य को कभी भी संग्रह नहीं करना चाहिए अन्यथा उसके जीवन से दुःखों का निवारण कभी भी नहीं हो पायेगा।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, August 3, 2019

गुरु-18

गुरु-18
    वैराग्य के पैदा होते ही पिङ्गला ने वहीं ड्योढ़ी पर खड़े खड़े एक गीत गाया।परमात्मा को समर्पित वह गीत बड़ा ही अनुपम था।पिङ्गला जो गीत गा रही थी उसका सार है कि "हाय हाय, मैं भी इंद्रियों के वश में हो गई।मेरे मोह की असीमता को तो देखो, जो उन दुष्ट पुरुषों से विषय सुख पाने की कामना जीवन भर करती रही, जिनका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं था।मेरे स्वयं के भीतर परमात्मा निवास करते हैं, जो परम सुख और परम धन को देने वाले हैं। मैं उनको भी भुला बैठी।भला, मेरे जितना भी कोई मूर्ख होगा।जगत के पुरुष तो अनित्य हैं जबकि परम पुरुष नित्य हैं। जगत के पुरुष तो प्रेम देने का नाटक भर करते हैं जबकि वास्तविक प्रेम करने योग्य तो परमात्मा ही हैं।हाय हाय!मैंने जीवन भर क्या किया?उन पुरुषों के पीछे पड़ी रही, जो केवल भय, दुःख, आधि-व्याधि,शोक और मोह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकते थे। मैंने व्यर्थ ही वेश्या वृति के माध्यम से ऐसे पुरुषों का सेवन किया।मैंने व्यर्थ ही अपने शरीर और मन को क्लेश दिया। मेरा यह हाड़ मांस से बना शरीर बिक गया, केवल कुछ धन के लिए। धन से मैं संसार के सुख चाहती रही।कैसा दुर्भाग्य है मेरा।"
          पिङ्गला आगे कहती है-"वैसे तो यह मिथिला विदेहों की नगरी है, जीवन-मुक्त पुरुषों की नगरी है, केवल एक मूर्ख मैं ही हूँ जो यहां निवास करती हूँ।केवल मैं ही एक ऐसी स्त्री हूँ जो परमात्मा को छोड़कर अन्य पुरुषों की अभिलाषा करती हूँ। अब मैं भी अपने आपको देकर उस परमपिता प्रभु को खरीद लूंगी, उनसे लक्ष्मी की तरह व्यवहार रखूंगी और प्रेम करूंगी।
       आज परमात्मा मेरे पर प्रसन्न हुए हैं, जो मेरे में वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ है।अवश्य ही मेरे द्वारा पूर्व में किये गए किसी शुभ कर्म से विष्णु भगवान मुझ पर प्रसन्न हुए हैं।अब मैं प्रारब्ध स्वरूप जो मुझे मिल जाएगा, उसी में संतुष्ट रहूंगी।आज से मैं किसी अन्य पुरुष की ओर न ताककर केवल अपने प्रभु के साथ ही विहार करूंगी।" सत्य है, जिस समय मनुष्य विषयों से स्वयं को मुक्त कर लेता है, उसी समय से वह अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है।
        इस प्रकार पिङ्गला वेश्या ने ऐसा निश्चय कर धनी पुरुषों से मिलने वाले विषय सुख और धन मिलने की आशा का परित्याग कर दिया और शांत भाव से जाकर अपनी सेज पर सो गई। आशा ही सबसे बड़ा दुःख है और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है।जब पिङ्गला वेश्या ने पुरुष की आशा त्याग दी तभी वह सुख से सो सकी।दत्तात्रेय भगवान कह रहे हैं कि इसी प्रकार हमें भी संसार के किसी भी प्राणी से कोई आशा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि आशा ही सभी प्रकार के दुःखों की जननी है। पिङ्गला वेश्या के वृतांत से हमें यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, August 2, 2019

गुरु-17

गुरु-17
        बहुत प्राचीन समय की बात है।मिथिला नगर में एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिङ्गला। उसका प्रतिदिन एक ही कार्य था। शाम होते ही सज धज कर अपने निवास की ड्योढ़ी पर आकर खड़ी हो जाती और अपनी अदाओं से रास्ते से गुजरने वाले पुरुषों को आकर्षित करती। उन्हें पैसे के बदले शारीरिक सुख लेने के लिए आमंत्रित करती। वास्तव में उसे शारीरिक सुख प्राप्त करने की कोई कामना नहीं थी बल्कि उसके मन में पुरुषों को शारीरिक सुख देने के बदले उनसे मिलने वाले धन की कामना रहती थी । इस प्रकार विदेह नगरी में रहते हुए उसे कई वर्ष बीत गए। उसने अपने शरीर का उपयोग कर बहुत सारा धन इक्कट्ठा कर लिया था।
          एक दिन इसी प्रकार सज धज कर वह अपने घर की ड्योढ़ी पर खड़ी होकर किसी पुरुष का इंतज़ार कर रही थी। लोग बाग आ जा रहे थे। सभी उस पर एक उड़ती हुई दृष्टि डालते और आगे बढ़ जाते।उसे पुरुष की कामना नहीं थी बल्कि उससे मिलने वाले धन की आशा थी। उसके मन मे धन की कामना इतनी अधिक दृढ़ हो गई थी कि आने जाने वाले पुरुष को देखकर वह यही सोचती कि वह कोई बहुत धनी व्यक्ति है। वह आधी रात तक घर के भीतर बाहर इसी आशा से जाती आती रही कि कभी न कभी कोई अधिक धनी व्यक्ति तो उसकी ओर आकर्षित होगा ही परंतु उस दिन कोई उसकी ओर आकर्षित नहीं हुआ।स्त्री के शरीर की भी एक क्षमता होती है, उसके शरीर के आकर्षण को भी एक न एक दिन ढलना होता है। इसी अवस्था को प्राप्त होने जा रहे पिङ्गला के शरीर को आज कोई ग्राहक नहीं मिला।पिङ्गला को तो शारीरिक सुख नहीं बल्कि धन पाने की अभिलाषा रहती थी परंतु आज....आज ही क्या, अब आगे भी इस शरीर के बदले किसी भी प्रकार के धन प्राप्त होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। पिङ्गला वेश्या व्यथित हो गई। उसको इतने वर्षों तक अपने किये हुए कर्मों पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। वैसे तो आशा रखना ही अनुचित है और फिर धन की आशा रखना तो बहुत ही अनुचित बात है।किसी धनी से धन पाने की आशा में इंतज़ार करते करते उसका मुख सुख गया।अब उसे अपनी वृति के प्रति ग्लानि हो रही थी। ग्लानि के कारण उस वेश्या पिङ्गला को वैराग्य उत्पन्न हो गया।
क्रमश:
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, August 1, 2019

गुरु-16

गुरु-16
           दत्तात्रेयजी के सोलहवें नंबर की गुरु है, मछली।नदी और अन्य जल स्रोत में मछली स्वतंत्र रूप से तैरती रहती है।प्रायः हम देखते हैं कि जब लोग नाव से यात्रा करते हैं तब उनमें से कुछेक लोग नदी में आटे से बनी छोटी छोटी गोलियां डालते रहते हैं। उन गोलियों को खाने के लिए मछलियां नाव के पास आ जाती है। मछली पकड़ने का शौक रखने वाले भी ऐसा ही करते हैं। वे आटे से बनी गोली अथवा अन्य कोई  भोजन कांटे में लगाकर उस कांटे को नदी में डाल देते हैं।कांटे के एक छोर से एक डोरी बंधी होती है और दूसरे छोर पर वह  डोरी एक लकड़ी से बंधी होती है, जिसे मछली पकड़ने वाला अपने हाथ में पकड़े रहता है। इस उपकरण को वंशी कहा जाता है। मछली को अपना भोजन नज़र आते ही वह उसे खाने को आती है और भोजन को मुंह में लेते ही कांटा उसके भीतर चुभ जाता है।कांटे में फंसते ही मछली उससे मुक्त होने के लिए छटपटाती है,परंतु मुक्त नहीं हो पाती।मछली की छटपटाहट से वंशी हिलने लगती है, जिससे मछलीमार समझ जाता है कि कांटे में मछली फंस गई है। वह वंशी को तत्काल ही जल से बाहर खींच लेता है। जल से बाहर आते ही मछली मर जाती है।इस प्रकार भोजन के स्वाद के चक्कर में मछली अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है।
        दत्तात्रेय कहते हैं कि इसी प्रकार मनुष्य को भी मछली की तरह अपनी रस-इन्द्रीयका गुलाम नहीं होना चाहिए। मनुष्य भोजन लेना बंद कर शेष इंद्रियों पर तो सुगमता से नियंत्रण स्थापित कर लेता है परंतु इससे रसनेन्द्रिय का नियंत्रित होना नहीं कहा जा सकता।रसनेन्द्रिय तो भोजन बन्द कर देने से और अधिक प्रबल हो उठती है।मन मे बार बार स्वादिष्ट भजन से रस प्राप्त करने की कामना जाग्रत होती रहती है।इसका अर्थ हुआ कि रसनेन्द्रिय को भोजन बन्द कर दबाया गया है, उसे वश में नहीं किया गया है। मनुष्य तब तक जितेंद्रिय नहीं हो सकता, जब तक वह रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता।जब वह रसनेन्द्रिय को वश में कर लेता है तब सभी इंद्रियों को वश में करना संभव हो जाता है।
           इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य को सबसे पहले अपनी जिव्हा को वश में करना चाहिए। जिव्हा ही एक मात्र इन्द्रिय है जो बहुत प्रयास करने के बाद भी नियंत्रित नहीं हो पाती। मछली के साथ होने वाली कांटे में फंसने वाली घटना से यह सीखा जा सकता है कि रसनेन्द्रिय को वश में रखना क्यों आवश्यक है?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, July 31, 2019

गुरु-15

गुरु-15
       शहद निकालने वाले एक साधारण से मनुष्य से भी दत्तात्रेयजी ने शिक्षा ग्रहण कर उसको अपना गुरु माना है। वे कहते हैं कि संसार में रहने वाला प्रत्येक मनुष्य न जाने क्या सोचकर धन संग्रह में लगा हुआ है। न तो वह उस धन का भोग करता है और न ही उसका दान। ऐसे में कोई अन्य व्यक्ति उसके धन को उसी प्रकार चुरा कर ले जाता है जैसे मधुमक्खी के द्वारा संग्रहित किये हुए मधु को शहद निकालने वाला व्यक्ति ले जाता है।इस संचित धन का सदुपयोग साधुओं और ब्रह्मचारियों को भोजन कराके भी किया जा सकता है। कहा भी गया है कि-
या धन की गति तीन है, दान भोग और नाश।
     धन की केवल उपरोक्त तीन प्रकार की गतियाँ ही होती है। लक्ष्मी चंचला है, एक जगह टिक कर नहीं रह सकती, सदैव गतिमान बनी रहती है।अतः संचित धन का अपने सुख के लिए उपयोग कर लेना अच्छा है और सबसे अच्छा है, जरूरतमंद को दान कर देना,नहीं तो उसका नाश होना निश्चित है। शहद निकालने वाले से हमें यही ज्ञान मिलता है।
          एक ऋषि हुए हैं, ऋष्यश्रृंग। कहा जाता है कि उनका जन्म एक हरिनी के गर्भ से हुआ था।वे ऋषि विभांडक के पुत्र और कश्यप ऋषि के पौत्र थे।एक बार ऋषि विभांडक ने घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से स्वर्ग के देवता बड़े चिंतित हुए।उनकी तपस्या को भंग करने के लिए स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को उनके पास भेजा गया। उर्वशी ने विभांडक को अपने रूप जाल में फंसा लिया। विभांडक के संसर्ग से  उर्वशी गर्भवती हो गई। उसने अपने गर्भ को एक हरिनी के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया और स्वयं स्वर्ग को लौट गई।उस हरिनी के गर्भ से ऋष्यश्रृंग ने जन्म लिया। इस शिशु के सिर पर हरिन की तरह ही सींग था, इसी कारण से इनका नाम ऋष्यश्रृंग रखा गया। यही ऋष्यश्रृंग वही श्रृंगी ऋषि हैं जिनको दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए किए गए यज्ञ में मुनि वशिष्ठ के माध्यम से आमंत्रित किया था।गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्री रामचरित मानस में इस बात का वर्णन भी है।
           विभांडक ने अपने साथ हुए छल के कारण, अपने पुत्र ऋष्यश्रृंग को बाल्यकाल से ही स्त्रियों से दूर रखा। उनकी स्त्री-पुरुष में कोई भेद दृष्टि थी ही नहीं। वे दोनों को एक समान ही समझते थे।ऋष्यश्रृंग ने बहुत घोर तपस्या की थी। उनका हरिनी के गर्भ से जन्म लेने के कारण उनका स्वभाव भी एक हरिन जैसा ही था।
            हरिन जब व्याध द्वारा वंशी वादन किया जाता है, तो वह उसकी मधुर तान सुनकर उसमें आसक्त हो जाता है।हरिन वंशी की धुन को ठिठक कर खड़ा होकर सुनने लगता है। व्याध इसी अवसर की ताक में रहता है और उसका शिकार कर लेता है। एक दिन ऋष्यश्रृंग भी इसी प्रकार स्त्रियों के विषय संबंधी गीत-संगीत और नाच-गाने पर मोहित होकर अध्यात्म मार्ग से नीचे गिर कर पतन को प्राप्त हो गए थे। स्त्री संग उन्हें अध्यात्म पथ से भटका गया।वह बात अलग है कि समय रहते वे सचेत हो गए और पुनः अपनी साधना में लीन हो गए।
      दत्तात्रेय हरिन को अपना गुरु मानते हुए कहते हैं कि वनवासी सन्यासी को कभी भी विषय संबंधी गीत नहीं सुनने चाहिए अन्यथा उसका ऋष्यश्रृंग की तरह पतन होना निश्चित है।एक सन्यासी को सदैव अपने आपको ऐसे किसी भी गीत-संगीत से दूरी बनाए रखनी चाहिए जिसमें विषय रस की गंध आने का आभास होता हो। हरिन केवल अपने उसी स्वभाव के कारण अपना जीवन खो बैठता है। श्रवण सुख को त्याग देना ही एक आध्यत्मिक पुरुष के लिए श्रेष्ठ है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, July 30, 2019

गुरु-14

गुरु-14
           दत्तात्रेयजी ने साथ ही साथ भौंरे की  ही एक अन्य प्रजाति मधुमक्खी के बारे में कहते हैं कि उससे हमें यह सीख मिलती है कि कभी भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करना चाहिए। मधुमक्खी रात दिन मेहनत कर शहद का संग्रह करती है,परन्तु उसका किया हुआ यह मधु-संग्रह कोई अन्य जीव ही चुरा ले जाता है।इस प्रकार मधुमक्खी का केवल संग्रहित शहद ही उसके हाथ से नहीं निकलता बल्कि कई बार उसका जीवन भी दांव पर लग जाता है।अतः मधुमक्खी से सीख लेते हुए साधु को भी संग्रह करने की भावना से सदैव दूर रहना चाहिये।
     दत्तात्रेय के अगले गुरु है, हाथी। हाथी, पृथ्वी पर रहने वाला विशालतम प्राणी, जिसकी देह के बल की तुलना किसी अन्य प्राणी से नहीं कि जा सकती। इतना बलवान जीव भी अपनी आसक्ति के कारण शिकारियों के जाल में फंस जाता है।शिकारी को जब किसी हाथी को पकड़ना होता है, तो वे एक विशाल और गहरा गड्ढा खोदते हैं। उस गड्ढे को विभिन्न प्रकार के वृक्षों की टहनियों से ढक दिया जाता है। उस पर कागज़ की बनी एक हथिनी को खड़ा कर दिया जाता है। बलवान हाथी स्पर्श सुख प्राप्त करने के लिए उस कागज़ की हथिनी को वास्तविक हथिनी समझकर उस गड्ढे की तरफ खींचा चला आता है। टहनियां उस हाथी का वजन सहन नहीं कर पाती है, वे टूट जाती है और बलवान हाथी उस गहरे गड्ढे में गिर जाता है। बहुत प्रयास करने के बाद भी वह उससे बाहर नहीं निकल पाता। कई दिन की भूख-प्यास से बलवान हाथी भी निर्बल हो जाता है और शिकारी उसको पकड़ कर फिर उसका यथोचित उपयोग करते हैं।
       ठीक इस हाथी की तरह ही मनुष्य भी स्त्री का स्पर्श सुख पाने को सदैव आतुर रहता है। हाथी से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि स्वप्न में भी कभी काठ की स्त्री का भी स्पर्श नहीं करना चाहिए अन्यथा उसका पतन होना निश्चित है। अतः विवेकवान पुरुष को एक स्त्री को कभी भी भोग्या रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए, नहीं तो वह या तो उस स्त्री के जाल में फंस कर अधोगति को प्राप्त होगा, नहीं फिर किसी अन्य मनुष्य के हाथों प्रतिस्पर्धी के रूप में जीवन खो बैठेगा। हथिनी से स्पर्श सुख का अधिकार प्राप्त करने के लिए हाथियों में  प्रतिस्पर्धा होती है जिसमें एक हाथी ही विजयी हो पाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, July 29, 2019

गुरु-13

गुरु-13
           कामिनी का प्रभाव इतना तेज होता है कि बड़े से बड़े संत भी इनसे मुक्त हो चुके हों, कहा नहीं जा सकता। इसीलिए संतों ने सदैव कामिनी से सतर्क रहने को कहा है। स्त्री के हाव भाव से आकर्षित हो व्यक्ति कभी भी अपना संयम खो सकता है।पतंगे से हमें यही शिक्षा मिलती है कि हम उसकी तरह रूप के आकर्षण में अपना पतन न कर बैठें।अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए स्त्री को केवल भोग्या ही न समझें।जब हम स्त्री को केवल भोग्या ही समझ बैठते हैं, समस्या तभी पैदा होती है। प्रत्येक स्त्री को देवी और मातृ स्वरूप समझें।सबसे उचित तो यही है कि कामिनी के संपर्क में आने से सदैव बच कर रहा जाए।
        स्वामी विवेकानंद जब शिकागो(सं.रा. अमेरिका) की यात्रा पर थे तब उन्होंने वहां पर विश्व धर्म सम्मेलन में शानदार और प्रभावी भाषण दिया था। उनके विचार व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता देखकर एक अति सुंदर स्थानीय महिला उनपर मोहित हो गई थी। वह स्त्री उनके पास पहुंची और उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। स्वामीजी ने विवाह करने के पीछे उसकी मंशा पूछी तो उस महिला ने कहा कि मैं आपके जैसा ही एक पुत्र चाहती हूँ। स्वामी विवेकानन्द ने कहा-"माते, आप मेरे जैसा ही पुत्र चाहती हैं न, तो फिर विवाह करनेका झंझट ही क्यों करती हैं?आज से आप मेरी माँ हुई और मैं आपका पुत्र।"
           हाँ, स्वामी विवेकानन्द जी की दृष्टि में जो स्थान एक स्त्री का था, वैसा स्थान प्रत्येक मनुष्य के भीतर स्त्री का होना चाहिए, तभी पतन से बचा जा सकता है। आइए!आगे चलते हैं, गुरु भंवरे के पास।
       भौंरा जिस प्रकार विभिन्न फूलों से रस ग्रहण कर अपना पेट भरता है, उसी प्रकार एक साधु को चाहिए कि वह किसी एक व्यक्ति अथवा परिवार पर आश्रित नहीं रहे बल्कि कई परिवारों से जो भी मिले, खाकर अपना पेट भर ले।साथ ही यह भी ध्यान रखे कि भंवरे की तरह एक ही फूल पर आसक्त न हो। जैसे भंवरा एक फूल के रस में आसक्त हो जाता है तब उसे यह ध्यान ही नहीं रहता कि सूर्यास्त होने वाला है। सूर्यास्त होते ही फूल की पंखुड़ियां बन्द हो जाती है और भौंरा उसमें कैद होकर अपना जीवन गंवा बैठता है।
        जिस प्रकार भौंरा विभिन्न फूलों से रस ग्रहण करता है वैसे ही हमें विभिन्न शास्त्रों से शिक्षा का सार ग्रहण करनी चाहिए।हमें शास्त्रों का मंथन करते हुए मक्खन से मतलब रखना चाहिए, केवल छाछ पा लेने का क्या लाभ?संत कबीर ने सत्य ही कहा है-
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, July 28, 2019

गुरु-12

गुरु-12
       अजगर से शिक्षा लेकर दत्तात्रेयजी समुद्र को अपना दसवां गुरु बताते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को समुद्र की तरह धीर,गंभीर और मर्यादा का पालन करने वाला होना चाहिए। समुद्र में अथाह जलराशि होती है, विभिन्न प्रकार की लहरें उसमें उठती, ऊंचाइयों को छूती और फिर गिरती रहती है परंतु समुद्र पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समुद्र में संसार की समस्त नदियों का जल आकर गिरता रहता है, गर्मी में उसका पानी वाष्प बनकर उड़ता रहता है और बादल बन दूरस्थ स्थानों पर जाकर बरस जाता है, फिर भी उसके जल के स्तर में कोई बढ़त घटत नहीं होती। वह कभी भी अपनी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता।इसी प्रकार मनुष्य को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में न तो अधिक उत्साहित होना चाहिए और न ही उनके वापिस खो जाने पर क्षोभ ही होना चाहिए।
         साथ ही समुद्र से हमें यह शिक्षा भी ग्रहण करनी चाहिए कि हमारे हृदय के भाव उसकी जल राशि की तरह गंभीर,अथाह,अपार और असीम होने चाहिए।प्रत्येक अवस्था में क्षोभ रहित रहकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए।समुद्र में डाली हुई प्रत्येक वस्तु को समुद्र अपने किनारे पर लौटा देता है, उसी प्रकार जितना भी हमने संसार से प्राप्त किया है, वापिस संसार को लौटा देना चाहिए।
        दत्तात्रेयजी के अगले गुरु हैं, पतंगा। पतंगा वह प्राणी है, जो जलते दीपक की लौ पर मोहित होकर उसमें आ गिरता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। दीपक की लौ का रूप उसे कोसों दूर से आकर्षित करता है। उस आकर्षण के प्रभाव से वह अपनी सुध बुध खो बैठता है और अपनी आसन्न मृत्यु की कल्पना भी नहीं करता है।इसी प्रकार इंद्रियों को वश में न रख पाने वाला व्यक्ति स्त्री के रूप पर मोहित होकर अपनी सुध बुध खोकर लट्टू हो जाता है और पतंगे की तरह अपना पतन कर बैठता है।वास्तव में स्त्री परमात्मा की वह माया है जिसके जाल में मनुष्य सरलता से फंस जाता है।सत्य है कि जो मनुष्य कंचन और कामिनी के मोह से बाहर नहीं निकल सकता वह कभी भी संसार के आवागमन से मुक्त भी नहीं हो सकता।कंचन और कामिनी दोनों की एक विशेषता है कि मनुष्य उनको भोगने के लिए लालायित रहता है । इस भोग के प्रति आसक्त होकर वह उस पतंगे की तरह अपना जीवन नष्ट कर बैठता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, July 27, 2019

गुरु-11

गुरु-11
       कबूतर से अतिमहत्वपूर्ण सीख लेकर अब चलते हैं, अजगर की ओर, जिसे दत्तात्रेयजी ने अपना नवाँ गुरु माना है।अजगर के बारे में मलूकदास जी ने कहा है-
अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
      अजगर के पास देह का बल भी होता है,फिर भी वह उदरपूर्ति के लिए कहीं भी बाहर नहीं जाता। प्रारब्धवश जो कोई भी उसकी पकड़ में आ जाता है, उसी को अपना निवाला बना लेता है। उसे देवयोग से जो कुछ भी मिल जाता है उसी में संतुष्ट रहता है।वह महीनों ही भूखा पड़ा रहा सकता है,फिर भी निश्चेष्ट होकर एक खोह में दुबका रहता है।सभी पूर्वजन्म के कर्मों का फल है। इसी प्रकार मनुष्य भी पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार वर्तमान जीवन में सुख दुःख को प्राप्त होता है।जो व्यक्ति सुख दुःख प्राप्त होने के रहस्य को जान जाता है, वह फिर इनको प्राप्त करने के लिए अपने स्तर पर कोई चेष्टा नहीं करता। कर्म-रहस्य को समझना ही शांति को प्राप्त करने का मूलमंत्र है।अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि बिना कुछ मांगे, बिना किसी कामना और व्यर्थ के प्रयास से जो कुछ भी प्राप्त हो जाये उसको पाकर संतुष्ट रहे। संतोष ही शांतिपूर्वक जीवन का आधार है।
       मनुष्य के पास देहबल, मनोबल और इन्द्रीयबल, तीनों बल होते हैं, वह अपनी कामना को पूरा करने के लिए बहुत अधिक सीमा तक प्रयास भी कर सकता है। परंतु उसका यह प्रयास फिर से नए कर्मों के प्रारब्ध का निर्माण करेगा और फिर वह इस मानव जीवन को भी व्यर्थ ही गंवा देगा। इस प्रकार उसे कभी भी मुक्त होने का अवसर नहीं मिल पायेगा।
       कर्म करेंगे तो फल भी मिलेगा और प्रारब्ध भी बनेगा। मनुष्य में सभी कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय रहती है फिर भी जीवन में सुख पाने की आशा करते हुए वह व्यर्थ की चेष्टाओं में रत हो जाता है। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि मैंने अजगर से यही सीख ली है कि व्यक्ति को प्रारब्धवश जो भी मिले उसमें संतुष्ट हो जाना चाहिए तथा और अधिक पाने की आशा में व्यर्थ के कर्म करने के प्रयास नहीं करने चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, July 26, 2019

गुरु-10

गुरु-10
       कबूतर परमात्मा की मायाशक्ति से सम्पूर्ण रूप से बंध चुका था।दिन-रात केवल अपनी पत्नी और बच्चों का ही चिंतन।परंतु विधि का विधान देखिए, सब जीव उसी के तो वश में है। एक दिन कबूतर युगल अपने बच्चों के लिए दाना पानी लाने गए हुए थे और पीछे से उस पेड़ के नीचे आकर एक बहेलिए ने अपना जाल फैला दिया, जिस पेड़ पर उस कबूतर का घौंसला था। कबूतर के बच्चे तो आखिर बच्चे ही थे। उन्होंने कभी बहेलिए और उसके जाल को देखा तक नहीं था। प्रतिदिन की तरह उस दिन भी घौंसले से बाहर निकले और नीचे आकर फुदकने लगे। फुदकते फुदकते आखिर बहेलिए के जाल में आकर फंस ही गए। जाल में फंसकर बच्चे उससे बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगे और अपनी चोंच को खोलकर सहायता के लिए जोर जोर से चीं चीं करते हुए अपनी मां को पुकारने लगे।कबूतरी कुछ ही दूरी पर थी, पुकार सुनकर बच्चों के पास तुरंत ही उड़ आई। उसने अपने बच्चों को बहेलिए के जाल में फंसा देखा और ममता के मोह में अपना विवेक खो बैठी। उनको जाल के बंधन से मुक्त कराने के प्रयास में वह खुद ही जाल में उलझ गई।
       थोड़ी ही देर बाद कबूतर भी मुँह में दाना दबाए अपने घर लौटा। उसने देखा कि उसकी पत्नी और बच्चे बहेलिए के जाल में जकड़े जा चुके हैं। वह व्याकुल होकर विलाप करने लगा। "हाय!अब उसका क्या होगा?अपनी प्रिया और बच्चों के बिना मेरा शेष जीवन कैसे बीतेगा? अभी तक तो मेरी जीवन की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई, मेरा गृहस्थ जीवन बसने से पहले ही उजड़ गया। बिना पत्नी के विधुर का जीवन भी क्या कोई जीवन होता है? ऐसे विधुर के जीवन में जलन और व्यथा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।" इस प्रकार विलाप करता हुआ यह जानते हुए भी कि उसकी पत्नी और बच्चे मृत्यु के मुख में है, वह मूर्ख कबूतर भी बहेलिए के जाल में कूद पड़ा और फंस गया। कबूतर के पूरे परिवार को जाल में फंसा देखकर बहेलिया बड़ा प्रसन्न हुआ और सबको ले चलता बना।
       दत्तात्रेयजी राजा यदु को कह रहे हैं कि राजन्! इस कबूतर से मैंने यह शिक्षा ली है कि किसी के साथ भी अत्यधिक स्नेह और आसक्ति नहीं करनी चाहिए अन्यथा उसकी बुद्धि स्वतंत्रता खोकर दीन हो जाएगी जिससे उसको एक दिन कबूतर की तरह अपना जीवन तक खोना पड़ जायेगा।जो व्यक्ति अपने कुटुम्बियों, विषयों आदि के सुख में ही आसक्त रहता है, वह एक दिन सुध बुध खोकर अपने जीवन में शांति तक को खो बैठता है।यह मनुष्य जीवन मुक्ति का द्वार है परंतु व्यक्ति गृहस्थाश्रम के सुख में खोकर अपना लक्ष्य भूल जाता है और पतन को प्राप्त होता है।इसलिए वीतरागी पुरुष को स्नेह का त्याग करना चाहिए, यही मोक्ष का साधन है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, July 25, 2019

गुरु-9

गुरु-9
         एक विशाल घना जंगल था।इस जंगल में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी निवास करते थे।इस जंगल में कई शिकारी शिकार करने के लिए भी चले आया करते थे। उसी जंगल में एक कबूतर भी रहा करता था। वह जीवनसाथी की तलाश में इधर उधर भटक रहा था। अन्ततः उसकी तलाश पूरी हुई और उसे अपने योग्य एक कबूतरी मिल ही गयी। अब वे दोनों, कबूतर और कबूतरी उसी जंगल में प्रेमपूर्वक रहने लगे। कबूतर का प्रेम कबूतरी के प्रति दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। वह उसका पूरा ध्यान रखता था और उसकी प्रत्येक इच्छा पूरी करता था। कहने का अर्थ है कि वह कबूतरी के प्रति पूर्ण रूप से आसक्त हो गया था।समय पाकर कबूतरी ने गर्भधारण किया। कबूतर युगल ने अपना घौंसला बनाया। गर्भकाल पूरा होने के बाद कबूतरी ने घौंसले में अंडे दिए। अंडे देने के बाद कबूतरी उन अंडों को परिपक्व करने के लिए उन पर बैठी रहती। वह अपने घौंसले से बाहर कहीं आ जा नहीं सकती थी, यहां तक कि चुग्गा पानी के लिए भी नहीं। उसके चुग्गे पानी की व्यवस्था भी कबूतर को करनी पड़ती थी।
             कुछ समय उपरांत अंडों से प्यारे प्यारे बच्चे निकल आये।कबूतर युगल अपने बच्चों से बहुत प्यार करते थे। वे दोनों अपने बच्चों के पास बैठकर उनका स्पर्श पाकर बड़े खुश होते थे। अपने बच्चों के कोमल पंख और उनका फुदकना देखकर वे अपनी सुध बुध तक खो बैठते थे।दोनों अपने बच्चों के लिए दिन भर चुग्गा पानी की व्यवस्था करते और उनको खिला पिलाकर बड़े प्रसन्न होते। रात को दोनों अपने बच्चों को अपने सीने से लगाकर विश्राम करते। इस प्रकार धीरे धीरे दोनों का अपने बच्चों के प्रति मोह बढ़ता जा रहा था। दोनों ही उनके साथ मोह के बंधन में बंध गए थे।अब एक क्षण के लिए भी कबूतर का अपनी पत्नी कबूतरी व बच्चों से वियोग सहन नहीं होता था।वास्तव में देखा जाए तो कबूतर कबूतरी भगवान की माया से मोहित हो रहे थे, भगवान की माया है ही बांधने वाली।अगर यह माया न हो तो संसार-चक्र चल ही नहीं सकता। माया के बंधन में बंधा जीव अपने शरीर के रहते मुक्त हो ही नहीं सकता और अनंतकाल तक संसार के आवागमन चक्र में भटकता रहता है। इसीलिए कबीर ने माया को महाठगिनी कहा है। माया के जाल में उलझने से कोई विरला ही बच सकता है, भला कबूतर जैसे भोले भाले प्राणी के उलझने से बचने के बारे में सोचा भी कैसे जा सकता है?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, July 24, 2019

गुरु-8

गुरु-8
      चंद्रमा अंतरिक्ष में भ्रमण करने वाला पृथ्वी का ही उपग्रह है। चंद्रमा की कलाएं काल के प्रभाव से सदैव घटती बढ़ती रहती है, परंतु उस पर इस बात को कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।वह सदैव ही ज्यों का त्यों बना रहता है।इसी प्रकार मनुष्य के शरीर की जन्म से लेकर मृत्यु तक, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि विभिन्न अवस्थाएं आती है,फिर भी आत्मा पर इन अवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।चंद्रमा से यह शिक्षा ग्रहण कर मनुष्य अपने आपको इन अवस्थाओं के प्रभाव से स्वयं को मुक्त बनाये रख सकता है।जिस दिन हम जीवन की इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेंगे तब इस शरीर को अपना मानना ही छोड़ देंगे।शरीर की अवस्थाओं के आधार पर हम कहते रहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं युवा हूँ अथवा मैं बूढ़ा हो गया हूँ परंतु बालक, युवा और बूढ़ा होना शरीर के साथ घटित हुआ है, "मैं" अर्थात आत्मा तो सदैव एक सा ही बना रहता है, शरीर की विभिन्न अवस्थाएं उसे छू तक नहीं सकती।
        चन्द्रमा पर काल के प्रभाव से ग्रहण भी लगता रहता है परंतु क्या चंद्रमा इनसे कभी प्रभावित होता है?नहीं, बिल्कुल भी नहीं होता। उसी प्रकार मनुष्य को भी सम विषम परिस्थितियों से अप्रभावित बने रहना चाहिए।चंद्रमा हमें जीवन की इस वास्तविकता का ज्ञान कराता है जिसे आत्मसात करना हमारे लिए हितकर है।
              सातवां गुरु है, सूर्य।सूर्य अपनी किरणों से जलाशयों से जल ग्रहण कर बादल का निर्माण करता है और फिर आवश्यकता वाले स्थान पर जल का त्याग कर बरसात करा देता है। मनुष्य को सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि वह भी इंद्रियों से जो भी विषय समय समय पर ग्रहण करता है, उनका भी समय आने पर त्याग और दान कर देना चाहिए, उन विषयों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। हम विषयों को ग्रहण तो करते हैं, परंतु उनमें आसक्त हो जाते हैं, जिसके कारण हमसे उन विषयों का त्याग करना असंभव हो जाता है।
         सूर्य का प्रतिबिंब विभिन्न जल भरे पात्रों में अलग अलग दिखलाई पड़ता है परंतु वास्तव में  सूर्य एक ही है, उसी प्रकार हमें भी यह समझना चाहिए कि विभिन्न प्राणियों में अलग अलग दृष्टिगत होने वाली आत्माएं भिन्न भिन्न न होकर सबमें एक ही आत्मा निवास करती है।सभी प्राणियों के शरीर भिन्न भिन्न हो सकते हैं परंतु सभी में वही एक आत्मा निवास करती है।
        सीख लेने की मन में इच्छा हो तो छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी किसी भी बात से ग्रहण की जा सकती है। अब देखिए, कबूतर जैसा भोला भाला प्राणी भी दत्तात्रेयजी को सीख देकर उनका आठवां गुरु बन गया।  कैसे? चलो देखते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, July 23, 2019

गुरु-7

गुरु-7
     दत्तात्रेयजी का चौथा गुरु है, जल।जल का शरीर निर्माण में काम आने वाले पांच तत्वों में महत्वपूर्ण स्थान है।जल स्वभाव से ही शुद्ध,चिकना,मधुर और पवित्रता प्रदान करने वाला है।जल के स्वभाव की तरह ही मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए।मनुष्य का हृदय शुद्ध हो, वाणी में स्पष्टता और मधुरता हो तथा अंतर्मन पवित्र हो, तभी वह संसार में सबका प्रिय होगा।जल सभी को पवित्र करने वाला होता है तभी गंगा सहित सभी नदियों में लोग स्वयं को पवित्र करने के लिए डुबकी लगाने को आतुर रहते हैं।इसी प्रकार जल से शिक्षा ग्रहण करने वाला भी स्वयं के दर्शन,स्पर्श और नाम के उच्चारण से सबको पवित्र करने वाला होता है।
           दत्तात्रेयजी का पांचवा गुरु है, अग्नि।अग्नि तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है। अग्नि को कोई भी अपने तेज से किसी भी प्रकार दबा नहीं सकता। अग्नि के पास संग्रह-परिग्रह के लिए कुछ भी नहीं होता, सब कुछ अपने पेट में  ही समाहित कर लेती है फिर भी उस वस्तु के दोष-गुण ग्रहण नहीं करती उसी प्रकार साधक को भी चाहिए कि वह भी तेजस्वी, साधना करता हुआ देदीप्यमान बने।वह केवल भोजन मात्र का ही संग्रही हो, किसी के भी दोष-गुण से प्रभावित न हो और सभी इंद्रियों का समुचित उपयोग करते हुए विषयों से निर्लिप्त रहे।
           अग्नि का एक और गुण है कि वह प्रकट भी होती है और अप्रकट भी रहती है। इससे हमें यह सीख लेनी चाहिए कि साधक आवश्यकता हो तब प्रकट हो जाए अन्यथा सबके मध्य रहते हुए भी गुप्त रूप से रहे। उसका प्रकट होना तभी लाभदायक है, जब कल्याण की भावना रखने वाले व्यक्ति उससे मार्गदर्शन लेना चाहते हों अन्यथा उसे सदैव अपने आपको अप्रकट ही रखना चाहिए।
       अग्नि विभिन्न स्रोतों में उसी के आकार में आड़ी, टेढ़ी, चौड़ी और सपाट रूप से प्रकट होती है,लेकिन वास्तव में वह वैसी होती नहीं है।इसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि संसार में जिनके मध्य वह निवास करता है, उन्हीं के अनुरूप दिखलाई पड़े परंतु भीतर से वह अपना आध्यत्मिक स्वभाव बनाये रखे।जिस प्रकार अग्नि यज्ञ में आहुति लेकर सब कुछ अशुभ को भस्म कर देती है उसी प्रकार साधक को भी कल्याण की इच्छा रखने वाले के सभी अशुभ को समाप्त कर देने का प्रयास करना चाहिए।
      इस प्रकार दत्तात्रेयजी महाराज ने एक एक कर पांचों भौतिक तत्वों से शिक्षा प्राप्त कर अपना गुरु माना है।अब हम स्थूल शरीर के तत्वों से बाहर निकलकर चलते हैं, अंतरिक्ष में स्थित चंद्रमा की ओर, जो कि उनका छठा गुरु है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, July 22, 2019

गुरु-6

गुरु-6
       "आकाश सर्वत्र उपस्थित है", भला इसमें सीखने की क्या बात हुई? हाँ इस से भी सीखा जा सकता है, बस आवश्यकता है, बुध्दि के उपयोग में लेने की। हम सब जानते हैं कि आकाश सर्वत्र उपस्थित है परंतु इस बात से भी एक महत्वपूर्ण सीख मिलती है। घड़े में स्थित आकाश घटाकाश कहलाता है,किसी मठ में स्थित आकाश मठाकाश कहलाता है परंतु वास्तव में आकाश एक ही है, वह अपरिच्छिन्न यानि अखण्ड है। इसी प्रकार चर-अचर प्राणियों के विभिन्न रूप होते हुए भी सब में एक समान ही ब्रह्म उपस्थित है, सबमें वही एक परमात्मा निवास करते हैं।आकाश से हमें यह ज्ञान मिलता है।
        इतने विवेचन के बाद घड़े और मठ में जो आकाश दिखलाई देने लगा है, उसका कारण घड़े और मठ की मिट्टी से बनी दीवारें है, जो इनमें और शेष बाहर के आकाश में भेद करती दिखलाई देती है। वास्तव में देखा जाए तो बाहर और भीतर के आकाश में किसी प्रकार का कोई विभाजन है ही नहीं और न ही कभी किया जा सकता है। इसी प्रकार ब्रह्म भी अखण्ड है केवल पांच तत्वों से बने शरीर के कारण भिन्न भिन्न प्रतीत हो रहा है। ये स्थूल शरीर ही निराकार ब्रह्म को साकार रूप से प्रकट करते हैं। शरीर मिलते ही यही ब्रह्म केवल राम, कृष्ण, बुद्ध आदि में ही नहीं बल्कि विभिन्न रूपों में प्राणियों व प्रत्येक वस्तु और स्थान में दिखलाई पड़ने लगते हैं । वास्तव में ब्रह्म सर्वत्र है तथा असीम और अखंड है।
       कहीं पर आग लगती है तो वह आकाश में  दिखलाई पड़ती है, आंधी तूफान, बरसात आती है, बादल उमड़ते घुमड़ते हैं,इतना सब कुछ होने पर आकाश इन सबसे अछूता रहता है, मानो कुछ हुआ ही न हो।इसी प्रकार भूतकाल में चाहे कुछ हुआ हो, वर्तमान में चाहे जो कुछ हो रहा हो अथवा भविष्य में  कुछ भी होनेवाला हो, आत्मा सदैव उससे अछूता ही रहेगा।आत्मा के साथ इन सब बातों का स्पर्श तक नहीं होता है। यह सीख हमें आकाश से ही मिलती है।
       परंतु हम अपने जीवन को ठीक इसके विपरीत होकर जीते हैं। संसार में होने वाली प्रत्येक घटना हमें प्रभावित करती है। हम या तो भूतकाल में विचरण करते रहते हैं या भविष्य की कल्पना में खोए रहते हैं।वर्तमान में कभी जीते ही नहीं है।हम न तो भूतकाल में घटित किसी घटना को परिवर्तित कर सकते हैं और न ही भविष्य में घटित होने को अपने अनुसार घटित करा सकते हैं तो फिर वर्तमान को क्यों व्यर्थ के चिंतन से नष्ट करें?हमें आकाश से यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि भूत भविष्य से हम विचलित न होकर सदैव आत्मा की शुद्धता को बनाये रखें,आत्मा कभी इनसे प्रभावित हो ही नहीं सकती। हम शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव को आत्मा पर होने वाला प्रभाव मान लेते है, यही गलती कर बैठते हैं और जीवन के आनंद से बहुत दूर चले जाते हैं।
       आकाश जिस प्रकार अखंड है उसी प्रकार ब्रह्म भी अखण्ड है और सभी प्राणियों में समान रूप से उपस्थित है। जिस प्रकार बादल,अग्नि,धूल इत्यादि आकाश को प्रभावित नहीं करते उसी प्रकार भूत,वर्तमान और भविष्य हमें अर्थात आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकते। ये दो महत्वपूर्ण शिक्षाएं हमें आकाश तत्व से ग्रहण करनी चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, July 21, 2019

गुरु-5

गुरु-5
       इस प्रकार भीतर की वायु से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हम विषयों की ओर आवश्यकता से अधिक आसक्त न हो।जीवन में हमें उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिए जिससे हमारे प्राण संचालित रहे तथा हमारी बुद्धि विकृत न हो, मन भी चंचल न हो और वाणी से हम व्यर्थ की बातों में भी न लगें।
    दूसरी प्रकार की वायु है, हमारे शरीर के बाहर की वायु, जो हमारे आसपास के वातावरण का ही एक भाग है। इस वायु को सदैव चारों ओर विचरण करना होता है, वह एक स्थान से दूसरे स्थान को आती जाती रहती है फिर भी वह किसी भी स्थान के गुण-दोष को आत्मसात नहीं करती, उन्हें अपनाती नहीं है और न ही उनमें आसक्त होती है।इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने वातावरण से प्रभावित नहीं होना चाहिए।मनुष्य वायु की तरह कहीं पर भी जाय परंतु वहां के गुण दोष न अपनाए बल्कि अपनी दृष्टि केवल अपने लक्ष्य पर रखे।वायु गंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है फिर भी वह इस गुण को आत्मसात नहीं करती। गंध पृथ्वी का गुण है,वायु को तो गंध को वहन करना पड़ता है । वहन करने के बाद भी उसका गंध से नाममात्र का भी संपर्क नहीं होता है। वायु सदैव शुद्ध की शुद्ध ही बनी रहती है। ऐसा ही मनुष्य के साथ भी होना चाहिए। मनुष्य को शरीर की आवश्यकता होती है, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होने के लिए। शरीर है तो उसे आधि-व्याधि आदि का सामना भी करना पड़ेगा, उसे शारीरिक बीमारियों को वायु की तरह गंध को भी वहन  करना होगा। ऐसे में सदैव एक ही बात बुद्धि में रहनी चाहिए कि यह सब शरीर के गुण-दोष हैं, आत्मा के नहीं। मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ।अतः यह सब आधि-व्याधि आदि शरीर को तो प्रभावित कर सकती है, परंतु मुझ आत्मा को नहीं। कहने का अर्थ है कि शरीर संसार का ही एक भाग है और हमें इस संसार में रहते हुए इसके गुण-दोष नहीं अपनाने है, संसार में आसक्त नहीं होना है।स्वयं को शरीर न मानकर आत्मा मानते हुए शारीरिक गुण-दोष को आने जाने वाले मानकर विचलित नहीं होना है।इस कारण से ही दत्तात्रेयजी ने वायु से शिक्षा ग्रहण कर उसे अपना गुरु माना है।
       दत्तात्रेयजी का तीसरा गुरु है, आकाश। आकाश कहाँ नहीं है? आकाश सर्वत्र व्याप्त है।हम किसी भी वस्तुविहीन बर्तन को देखकर कह देते हैं कि वह रीता है परंतु क्या उसको रिक्त कहना उपयुक्त है?नहीं, वह बर्तन रीता है ही नहीं। वास्तव में हमारी दृष्टि उस बर्तन में वस्तु की उपस्थिति देखने की आदी हो गई है। उस रिक्त से दिखने वाले बर्तन में वस्तुविहीन होने के बाद में भी आकाश भरा पड़ा है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि आकाश सर्वत्र उपस्थित है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

गुरु-4

गुरु-4
      दत्तात्रेयजी ने कह तो दिया कि मैंने पृथ्वी से धैर्य रखने और क्षमा करने की शिक्षा प्राप्त की है परंतु धैर्य और क्षमा को जीवन में किस प्रकार उतारा जा सकता है,यह नहीं बतलाया । हमारा कोई भी व्यक्ति कुछ भी उपयोग करते हुए हमारे साथ उचित अनुचित व्यवहार करता है, तो हमें अपने विवेक का उपयोग करते हुए उसकी विवशता को समझना होगा।कोई भी व्यक्ति किसी के साथ तब तक अनुचित व्यवहार नहीं कर सकता जब तक कि उससे उसका कोई न कोई हित  सधता हो। स्वयं के हित के लिए ही वह आपका उपयोग करता है।ऐसे में हमारे में धैर्य की क्षमता तभी आ सकती है, जब हम सामने वाले की विवशता को समझे और साथ ही साथ इस बात को भी समझे कि यह शरीर हमें परहित के लिए ही मिला है,इससे जिसको भी कोई लाभ मिले उसके लिए इसका उपयोग हो जाना ही सबसे अच्छा है। सामने वाले की विवशता और हमारे शरीर का परहित के लिए होना, इन दो बातों को हम अपने विवेक से भली भांति समझ लें तो फिर धैर्य और क्षमा हमारे भीतर स्वतः ही पैदा हो जाएंगे।धैर्य रखने और क्षमा करने की क्षमता हमारी ही बुद्धि के अधीन है और हम उसका उपयोग करके ही इन दोनों क्षमताओं को स्वयं में विकसित कर सकते हैं।इस प्रकार दत्तात्रेयजी द्वारा पृथ्वी को अपना प्रथम गुरु मान लेना उचित है।
         अब चलते हैं, दत्तात्रेयजी के दूसरे गुरु की ओर। उनका दूसरा गुरु है, वायु। शरीर निर्माण और उसके संचालन में काम आने वाले पांच तत्वों में से एक तत्व है, वायु।वायु दो प्रकार की होती है, एक शरीर के भीतर की वायु, जिस पर हमारे प्राण टिके हुए हैं और दूसरी शरीर के बाहर की वायु।शरीर के अंदर की वायु मुख्यतः प्राण कहलाती है, जिसके शरीर में आवागमन करते रहने से शरीर सक्रिय बना रहता है अन्यथा उसके रूक जाने से शरीर भी निष्क्रिय होकर अर्थहीन हो जाता है।  वैसे भीतर की वायु पांच प्रकार की होती है-प्राण,अपान,समान,उदान और व्यान। पांचों वायु अर्थात प्राण शरीर के विभिन्न अंगों को सुचारू रूप से संचालित करते हैं।भीतर की वायु के संचरण होते रहने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है और यह ऊर्जा मिलती है, भोजन से। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि भीतर की वायु से मैंने यह सीखा है कि जितने आहार से हमारे प्राण भली भांति संचरित होते रहें, हमें उतनी ही मात्रा में भोजन ग्रहण करना चाहिए।प्रायः हम अपनी स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने के लिए आहार ग्रहण करने की सीमा का भी अतिक्रमण कर जाते हैं जिससे इंद्रियों की विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है, उनको प्राप्त करने के लिए मन चंचल हो उठता है और अंततः विफल रहने पर हम अपनी वाणी पर भी नियंत्रण तक खो बैठते हैं।इस प्रकार हमारी बुद्धि  विकृत हो जाती है और हम पतन के मार्ग की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, July 19, 2019

गुरु-3

गुरु-3   
    हमारा यह स्थूल शरीर पांच भौतिक तत्वों से बना है, पृथ्वी,जल, वायु,अग्नि और आकाश।एक भी तत्व की कमी अथवा अनुपस्थिति स्थूल शरीर को सदैव के लिए अनुपयोगी बना देती है।इन पांच तत्वों से भी दत्तात्रेयजी ने शिक्षा प्राप्त की है। इसी आधार पर दतात्रेय महाराज कहते हैं कि मेरी प्रथम गुरु है, पृथ्वी। पढ़ने और सुनने में यह एक साधारण सी बात प्रतीत होती है और आश्चर्य भी होता है कि क्या पृथ्वी से भी कुछ सीखने को मिल सकता है? हाँ, पृथ्वी भी हमें कुछ न कुछ सिखाती ही है,बस हमें हमारी बुद्धि और दृष्टि का उपयोग दत्तात्रेय की तरह करना होगा।
      पृथ्वी से शिक्षा मिलती है, धैर्य रखने और क्षमा करने की। संसार के अरबों खरबों प्राणी इस धरा पर निवास करते हैं। सभी अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रयास करते हैं।यह प्रयास होता है, इसी पृथ्वी पर।भोजन के लिए धरती से अनाज प्राप्त करने के लिए इसकी सतह को चीरते हुए हल चलाकर बीज बोए जाते हैं। जल प्राप्त करने के लिए इसके सीने में छेद किये जाते हैं। घर बनाने के लिए पृथ्वी पर उगे जंगल को काटकर लकड़ी प्राप्त की जाती है, पहाड़ों को तोड़कर पत्थर लिए जाते हैं। क्या पृथ्वी कभी इस बात की शिकायत करती है, क्या कभी उसको चीरे जाने पर वह रोती, चिल्लाती है ? नहीं रोती चिल्लाती, कोई शिकायत नहीं करती, क्यों? क्योंकि उसके पास इन सबको सहन करने की क्षमता है।यही उसका धैर्य है।क्या पृथ्वी कभी मनुष्य द्वारा इस प्रकार व्यवहार किये जाने पर हमसे कोई प्रतिशोध लेती है? नहीं लेती न । जब इस संसार में छोटी छोटी बातों पर प्राणी एक दूसरे से बदला लेने को आतुर रहते हैं फिर भी  क्यों प्रतिशोध नहीं लेती यह पृथ्वी ? क्योंकि पृथ्वी अपने प्रति किये जाने वाले सभी प्रकार के अपराधों को क्षमा करना जानती है। कबीर ने भी कहा है-
खोद खाद धरती सहे,काट कूट वनराय।
कुटिल वचन साधु सहे, और से सहे न जाय ।।
     इन्हीं दो क्षमताओं, धैर्य और क्षमा के कारण दत्तात्रेयजी ने पृथ्वी को अपना प्रथम गुरु माना है। मनुष्य को अगर सहजावस्था को उपलब्ध होना है तो उसमें इन दो क्षमताओं अर्थात धैर्य और क्षमा का होना आवश्यक है। अगर हमें साधारण मनुष्य से ऊपर उठकर साधुत्व को उपलब्ध होना है, तो हमारे में धैर्य रखने और क्षमा करने के दोनों गुण होना आवश्यक है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, July 18, 2019

गुरु-2

गुरु-2
       दत्तात्रेय भगवान आगे उन सभी साधनों का एक एक कर के वर्णन करते हैं, जिनसे उन्होंने अपने जीवन में कोई न कोई शिक्षा ली है।इस प्रकार उन्होंने राजा यदु को अपने 24 गुरु बतलाए हैं, जो निम्न प्रकार से हैं- पृथ्वी,जल,आकाश,वायु,अग्नि,चंद्रमा,सूर्य,कबूतर, अजगर,समुद्र,पतंग, भौंरा या मधुमख्खी, हाथी, शहद निकालने वाले,हरिन, मछली,पिङ्गला वेश्या,कुरर पक्षी, बालक,कुआंरी कन्या,बाण बनाने वाला,सर्प, मकड़ी और भृङ्गी कीट।
         दत्तात्रेय जी ने तो राजा यदु से हुए इस संवाद में अपने केवल 24 गुरुओं की चर्चा की है। 24 ही क्यों, गुरु इससे अधिक की संख्या में भी हो सकते हैं क्योंकि इस संसार में प्रत्येक वस्तु,व्यक्ति, परिस्थिति आदि से भी हमें कोई न कोई सीख मिलती रहती है और यह सीख हमें हर बार एक नया गुरु प्रदान कर देती है। हाँ, यह बात अलग है कि आधुनिक युग में हम सीख मिल सकने वाले ऐसे प्रत्येक साधन की उपेक्षा करते रहते हैं।जिसकी हम उपेक्षा करते हैं,फिर भला वह हमारा गुरु कैसे हो सकता है?गुरु की कभी उपेक्षा नहीं की जाती अन्यथा हमें ज्ञान कैसे उपलब्ध होगा?
             राह चलते हुए लगी ठोकर से गिर जाना भी हमें सीख देता है कि रास्ते चलते हुए भली भांति देखते हुए संभलकर चलना चाहिए। अगर हम ठोकर लगने के बाद दुबारा ठोकर खा कर गिर जाते हैं तो इसका कारण है कि हमने पहली ठोकर  खाकर भी अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं किया, अगर किया हुआ होता तो यही एक ठोकर हमारा गुरु बनकर हमें एक सीख दी जाती।कहने का अर्थ है कि हमें इस संसार में कदम कदम पर ज्ञान मिलने के अवसर है, बस आवश्यकता है अपने विवेक का उयोग करने की, फिर संसार के प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
         महाभारतकाल का ही एक उदाहरण है, जब एकलव्य को धनर्विद्या सीखाने से गुरु द्रोणाचार्य ने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया था। एकलव्य ने सोच लिया था कि धनर्विद्या सीखूंगा तो केवल आचार्य द्रोण से ही। द्रोण के इनकार से भी उसकी सीखने की ललक कम नहीं हुई, बना ली आचार्य द्रोण की मिट्टी की मूर्ति और करने लगा उसको ही गुरु मानकर धनर्विद्या का अभ्यास।परिणाम हमारे सामने है।अर्जुन से भी बड़ा धनुर्धर हुआ है,एकलव्य।परंतु माने हुए गुरु की उपेक्षा नहीं की फिर भी उसने। आचार्य द्रोण ने गुरुदक्षिणा में उससे दांये हाथ का अंगूठा मांगा और तत्काल दे दिया एकलव्य ने, बिना किसी हिचक के।भले ही एकलव्य ने अर्जुन की तरह धनर्विद्या के बल पर द्रोपदी को न जीता हो, कोई युद्ध नहीं किया हो, इससे वह अर्जुन से कम धनुर्धर सिद्ध नहीं होता। अंगूठा देकर भी वह तर्जनी और मध्यमा अंगुली का उपयोग कर धनुष चला लेता था और अर्जुन से अच्छा धनुर्धर सिद्ध हुआ। आज अर्जुन के समक्ष एकलव्य को अधिक आदर के साथ याद किया जाता है।
कल से दत्तात्रेयजी के एक एक गुरु पर चर्चा प्रारम्भ करेंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, July 17, 2019

गुरु-1

गुरु-1
गुरुपूर्णिमा के अवसर पर जब गुरु की बात चल ही पड़ी है तो इसी बात को आगे लिए चलते हैं।श्री मद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध में राजा यदु और दत्तात्रेय का संवाद है।जिसमें राजा यदु दत्तात्रेय से पूछते हैं  -
त्वं हि न: पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम्।
व्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवालात्मन:।।11/7/30।।
हे ब्रह्मन्! आप पुत्र,स्त्री,धन आदि संसार के स्पर्श से रहित हैं।आप सदा-सर्वदा अपने स्वरूप में ही स्थित रहते हैं।हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिवर्चनीय आनंद का अनुभव कैसे होता है?आप कृपा करके अवश्य बतलाइये।
      इस श्लोक में राजा यदु का प्रश्न आत्मा में अनुभव किये जाने वाले आनंद के संबंध में है। व्यक्ति जब स्वयं अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है, तभी उसे जीवन के सच्चे आनंद का अनुभव हो पाता है। व्यक्ति, साधन, प्राणी अथवा कोई भी स्रोत जो हमारी संसार की ओर लगी रहने वाली दृष्टि को हमारे भीतर की तरफ मोड़कर हमें अपनी आत्मा का ज्ञान करा दे, तो हमारे जीवन में ऐसे साधन की महत्ता सर्वाधिक होगी। आत्म-ज्ञान करा देने वाले साधन को ही गुरु कहा जाता है, चाहे वह साधन कोई व्यक्ति हो अथवा अन्य।
राजा यदु के प्रश्न के उत्तर में दत्तात्रेय जी कहते हैं कि-
सन्ति मे गुरवो राजन् बहवो बुद्ध्युपाश्रिताः।
यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोsटामीह ताञ्छृणु।।11/7/32।।
राजन्! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके ही मैं इस जगत में स्वच्छंद विचरण करता हूँ।तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो।
    अपनी बुद्धि को विवेक में परिवर्तित कर किसी भी साधन से सीख ले लेने वाला व्यक्ति ही सही मायने में शिष्य कहलाने का अधिकारी होता है।हम अपने जीवन में बार-बार गुरु बदलते रहते हैं परंतु अपने भीतर झांक कर कभी भी देखने का प्रयास तक नहीं करते हैं कि ज्ञान प्राप्त न होने में कहीं स्वयं में तो कमी नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करना आवश्यक होता है अन्यथा पहुंचा हुआ गुरु भी हमें थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं करा सकता। अतः गुरु के साथ साथ स्वयं को भी सक्रिय रहना होगा अन्यथा ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग में जरा सी भी प्रगति होना दूर की कौड़ी होगी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, July 16, 2019

गुरु वंदना

जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि कई प्रकार के उतार चढ़ाव आते जाते रहते हैं | जो व्यक्ति सभी सम-विषम परिस्थितियों से परे रहता है, प्रभावित नहीं होता, वही सही मायने में जीवन में सहज अवस्था में रह सकता है | ऐसा होना तभी संभव हो सकता है जब व्यक्ति को उचित और सही मार्गदर्शन मिले | सहजता का मार्ग दिखलाने वाले को ही गुरु कहा जाता है | जब हम अपनी बुद्धि से सीखने में विफल हो जाते हैं तब हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती है | इससे विपरीत जो व्यक्ति जीवन में प्रत्येक घटना, प्रत्येक प्राणी अपनी बुद्धि के माध्यम से कुछ न कुछ सीख ग्रहण कर लेता है, वही उसका गुरु हो जाता है | कहने का अर्थ है कि माध्यम चाहे जो भी हो उनसे हम कुछ न कुछ सीख ग्रहण कर सकते हैं और वे सभी हमारे गुरु हो जाते हैं | गुरु चाहे एक हो अथवा अनेक, सभी आदरणीय, प्रातः स्मरणीय और सम्माननीय होते हैं | वे केवल एक दिन के लिए वन्दनीय नहीं होते बल्कि हमारे लिए प्रत्येक दिन उनका स्मरण करना आवश्यक है | फिर भी आज गुरु पूर्णिमा के दिन उनको विशेष रूप से स्मरण करने का अवसर मिला है | इस अवसर पर मैं अपने उन समस्त गुरुओं का ह्रदय से आभार प्रकट करते हुए उनको दंडवत प्रणाम करता हूँ |
          श्री कृष्णं वन्दे जगद्गुरु |
|| हरिः शरणम् ||
-डॉ.प्रकाश काछवाल

Tuesday, April 16, 2019

रामकथा51-समापन कड़ी-

रामकथा-51-
       गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने श्री रामचरित मानस में भगवान श्रीराम की लीला का अनुरक्ति पूर्ण वर्णन किया है। उनके इस ग्रंथ को पढ़ने और मनन करने से अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है। यह ग्रंथ उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ का अध्ययन करने का अवसर हम सब को प्रायः मिलता ही रहता है। इसका विवेचन चाहे जितना करें, किया जा सकता है। जिस दृष्टि से गोस्वामीजी ने अपने आराध्य प्रभु को देखा है वह दृष्टि हम सबको मिले, तभी इस ग्रंथ के पाठ करने की सार्थकता है।आप सभी इस ग्रंथ को पढ़ते ही रहते हैं इसलिए मैं रामकथा को और अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहूंगा।अतः इस श्रृंखला को यहीं विराम देना चाहूंगा।
        भगवान श्रीराम त्रेता में हुए और श्रीकृष्ण द्वापर में।हमें श्रीकृष्ण अपने अधिक निकट प्रतीत होते हैं क्योंकि उन्होंने जो लीला की वह आज के मनुष्य जीवन के अनुरूप ही की है। भगवान श्रीराम की लीला मनुष्य के जीवन से कुछ भिन्न प्रतीत होती है इसका कारण है, भगवान राम का मर्यादित जीवन। भगवान श्रीराम ने अपने जीवन में मर्यादा का कभी उल्लंघन नही किया इसीलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण का काल हमारे अतिनिकट है, उनके और हमारे मध्य मात्र 5000 वर्ष के लगभग का समयांतर है।इसलिए उनकी लीला को देखने से हमें वह अधिक उचित जान पड़ती है। मर्यादा सीखनी हो तो श्रीराम से सीखें और निर्णय लेने की क्षमता, सत्य-असत्य में अंतर तथा कर्तव्य कर्म, कर्म से पलायन न करना, विषाद से निकलने की राह दिखाना और आनंद को उपलब्ध होना हो तो श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया ज्ञान आत्मसात करना होगा। इसलिए श्री हरि के इन दोनों ही अवतारों के जीवन की  शिक्षा हमारे अवसाद रहित और मर्यादित जीवन के लिए उपयोगी हैं।
आप सभी का साथ बने रहने के लिए आभार।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, April 15, 2019

रामकथा-50

रामकथा-50
विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु  माया गुन गो पार।।1/192।।
        कौशल्या के श्रीहरि राम रूप में आये हैं। भरत श्रीहरि के शंख, लखन शेषनाग और रिपुदमन श्रीहरि के पद्म रूप हैं।इस प्रकार श्रीहरि ने त्रेता में अपने भक्तों को अभय करने के लिए और जय विजय जो कि रावण और कुम्भकरण के रूप में असुर हैं, उनको असुर शरीर से दूसरी बार मुक्त करने के लिए अवतार लिया है। चाहे श्रीहरि सभी शक्तियों से युक्त होते हों, उन्हें अपनी शक्ति का उपयोग करने के लिए मनुष्य रूप में ही अवतरित होना पड़ता है। परमपिता सभी प्रकार की शक्तियों के स्रोत होने के उपरांत भी "न करोति न लिप्यते" हैं और इस बात का पूर्ण रूप से पालन भी करते हैं। इसीलिए उनको इस पृथ्वी पर भक्तों को भयमुक्त करने के लिए अवतार लेना पड़ता है।
         श्री हरि के अवतार रूप भगवान श्री राम ने भी मानवोचित व्यवहार करते हुए लीला की है। इस लीला को करने की पृष्ठभूमि अवतरित होने से पहले ही तैयार कर ली गई थी।नारद ने ही उनके त्रेता के अवतरित जीवन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी हालांकि इसको तैयार करने के पीछे श्रीहरि की ही इच्छा थी। वे अपने भक्तों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं साथ ही वे भक्तों के पतन को भी रोकते हैं। श्रीराम के मनुष्य जीवन की लीला अब सनकादिक ऋषियों के द्वारा जय विजय को दिए गए श्राप और परम भक्त नारद द्वारा स्वयं को मिले श्राप के अनुसार चलेगी क्योंकि भक्तों के कथन को भगवान सदैव सत्य ही सिद्ध करते हैं।
       भगवान अपनी लीला बाल्य काल से प्रारम्भ करते हैं और ऋषि मुनियों को राक्षसों के भय से मुक्त करते हुए असुरों तक पहुंचकर अपने जय विजय पार्षदों को दूसरी असुर योनि से मुक्त कर अपनी लीला का संवरण करते हैं।
कल समापन कड़ी-
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, April 14, 2019

रामकथा-49-

रामकथा-49
यह चरित जे गावहिं हरि पद पावहिं
                 ते न परहिं भव कूपा।।
       राम जन्म का चरित्र जो कोई भी मनुष्य गाता है, वह उस परम पद को प्राप्त कर लेता है, जिसको प्राप्त कर लेना ही इस जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। परम पद पाने का अर्थ है, जीवन मुक्त हो जाना।यहां आकर एक प्रश्न खड़ा होता है कि क्या केवल प्रभु के चरित्र का गान ही मुक्ति के लिए पर्याप्त है? नहीं, हम सब गान का अर्थ मुंह से उच्चारित शब्दों से ले रहे हैं। मुंह से उच्चारित शब्द अगर मुक्त कर सकते तो संसार के सभी पिंजरे में बंद तोते कभी के मुक्त हो गए होते। वे भी तो पिंजरे के बंधन में जीते हुए  राम राम बोलते रहते हैं। राम का चरित्र गाने का अर्थ केवल बोलने की क्रिया से ही न लें, वह क्रिया तो एक आडंबर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।जब राम का चरित्र आप अपने जीवन में उतार लेते हैं,तब आपके भीतर से जो स्वर फूटते हैं, वास्तव में वही उन प्रभु के चरित्र का गान है। इस गान में आपकी जिव्हा साथ दे अथवा नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। केवल भीतर से उठने वाला स्वर ही आपको आनंदित कर सकता है अन्यथा एक तोते और आपमें कोई अंतर नहीं है। 
        राम के चरित्र को अपनाने का अर्थ है स्वयं के जीवन को राम के जीवन जैसा बना लेना है।राम साक्षात श्रीहरि हैं जो कि वैकुंठ के वासी है। वैकुंठ इस ब्रह्मांड से अन्यत्र कोई स्थान नहीं है। हम हाथ उठाकर ऊपर की ओर संकेत अवश्य करते हुए कह देते हैं कि वो ऊपर बैठा सब कुछ  देख रहा है। कोई नहीं है वैकुंठ यहां से ऊपर।वैकुंठ का अर्थ है, बिना कुंठा (frustration) का जीवन। कुंठा पैदा होती है मन चाहा न होने के कारण अर्थात कामनाएं ही कुंठाओं की जननी है। वैकुंठ अर्थात जिसके भीतर कोई कामना नहीं है।अतः जिसके जीवन में कुंठा नहीं है, उसके लिए यहीं इस संसार में ही वैकुंठ है। इसी को हरि पद पाना कहते हैं। जिसके जीवन में कुंठाएं भरी पड़ी है, उसके लिए यह संसार ही एक कुआं है अर्थात भवकूप। कुआं भी इतना गहरा की मेंढक की तरह छलांग पर छलांग लगाते रहो, बाहर निकल नहीं पाओगे, इस जन्म में ही क्या अनंत जन्मों में भी नहीं।आप भगवान राम के जीवन को देख लीजिए, न कोई कामना न कोई कुंठा। उनके जैसा जीवन जो मनुष्य जीने लग जाता है वही हरि पद का अधिकारी हो सकता है।जिसके मन में कोई कामना नहीं है, उसका मन ही वैकुंठ है और वहीं परमात्मा भी निवास करते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, April 13, 2019

रामकथा-48

रामकथा-48-रामजन्म-
नौमी तिथि मधुमास पुनीता।
शुक्ल पच्छ अभिजीत हरि प्रीता।।
मध्य दिवस अति सीत न घामा।
प्रगटे अखिल लोक बिश्रामा।।
      चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि, दोपहर का समय, न अधिक शीत और न ही अधिक गर्मी, सुहावनी ऋतु, बयार मंद मंद गति से बह रही है, कौशल्या प्रसव पीड़ा में है और श्रीहरि संसार को भयमुक्त करने हेतु प्रकट हो रहे हैं।
"भये प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी..."
        अचानक  कौशल्या का कक्ष प्रकाश से भर जाता है।कौशल्या की आंखे चौंधिया जाती है।कौशल्या धीरे धीरे अपने नयन पट खोलती है। सामने चतुर्भुज रूप में साक्षात श्रीहरि दिखलाई पड़ते हैं।चतुर्भुज स्वरूप श्रीहरि का सौम्य रूप है।
"माते, अपने नयन खोलिये, मैं आ गया हूँ आपका पुत्र बनने के लिए। आपने कहा था न कि पुत्र रूप में आने से पहले मैं आपको चतुर्भुज रूप में दर्शन दूँ। आपको स्मरण नहीं है परंतु मैंने अपने कथन को विस्मृत नही होने दिया है।"श्री हरि बोले।
      इतना सुनते ही मानो कौशल्या के भीतर पूर्वजन्म की शतरूपा जीवित हो उठी हो। उनकी स्मृति में अपने तपस्या काल की एक एक बात सक्रिय हो उठी। "हाँ, वरदान में आप जैसा ही पुत्र मांगा था मैंने। आपने ही तो कहा था, मेरे जैसा पुत्र आपके लिए कहाँ से लाऊं, मुझे स्वयं को ही आपका पुत्र बनने के लिए आना होगा।मेरी तपस्या सफल हो गई। मैं कृतार्थ हो गई।परंतु यह क्या, मैंने जी भर कर आपके चतुर्भुज रूप के दर्शन कर लिए हैं। अब शीघ्र ही अपनी शिशु लीला प्रारम्भ कीजिये प्रभु।
"सुनी बचन सुजाना रोदन ठाना होई बालक सुरभूपा।"
       इस प्रकार कौशल्या के वचन सुनकर श्रीहरि गर्भ में प्रवेश कर गए और उनके गर्भ से पुत्ररूप में जन्म ले लिया। कौशल्या के साथ ही साथ कैकयी ने भी एक पुत्र को जन्म दिया और सुमित्रा भी उसी समय दो पुत्रों की मां बनी। राजा दशरथ की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा । वे अपने मुख से कह तो रहे हैं कि मेरे घर साक्षात प्रभु आये हैं परंतु उन्हें अपने पूर्व जन्म की स्मृति अभी तक नहीं है कि वास्तव में साक्षात परमात्मा ही उनके घर पुत्र रूप में अवतरित हुए हैं।
         संसार में जब भी कोई शिशु जन्म लेता है निश्चित मानिए, प्रत्येक बार परमात्मा ही अवतरित होते हैं। प्रत्येक जननी कौशल्या ही है, प्रसवपीड़ा में केवल और केवल श्रीहरि का स्मरण ही करे तो भला परमात्मा अवतरित क्यों नहीं होंगे? संसार में जन्म लेकर ही परमात्मा अपने अलग अलग स्वरूप में प्रत्येक शिशु में प्रकट होते हैं।हमारी भेद दृष्टि ही उनको कुछ का कुछ देखने लगती है, परमात्मा तो सबमें समान रूप से विराजमान हैं।
   आप सभी को रामजन्म की बधाई और रामनवमी के पुनीत अवसर पर शुभकामनाएं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, April 12, 2019

रामकथा-47-

रामकथा-47-अयोध्या की ओर-
       अयोध्या में सूर्यवंश का शासन है। रघुवंश की चौथी पीढ़ी के राजा दशरथ अभी सत्तासीन हैं। उनके तीन महारानियाँ हैं-कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा। राजा दशरथ पूर्वजन्म में वही मनु और शतरूपा थे, जिन्होने श्रीहरि जैसा पुत्र तपस्या के फल स्वरूप मील वरदान में मांगा था। श्रीहरि अपने जैसा पुत्र कहाँ से लाते? हम अपने जीवन में इतनी अधिक आसक्तियों, अधूरी कामनाओं और कर्मों से भरे होते हैं कि श्रीहरि के समकक्ष तो क्या, दूर दूर तक इनके आसपास तक पहुँचने की संभावना तक नहीं होती।ऐसे में भला श्रीहरि वर में अपने जैसा पुत्र देने का आश्वासन दे भी कैसे सकते थे?इसीलिए परमात्मा ने तुरंत ही कह दिया कि मेरे जैसा पुत्र कहाँ से लाऊं, मुझे ही आपका पुत्र बनकर आना होगा।
     तीन तीन महारानियाँ होते हुए भी राजा दशरथ संतान सुख से अभी तक वंचित हैं। आखिर अपनी व्यथा एक दिन मुनि वसिष्ठ के समक्ष व्यक्त कर दी। पुत्र प्राप्ति की कामना पूर्ण करने के लिए यज्ञ और अनुष्ठान संपन्न किया गया। यज्ञ में रखे पात्र के जल को महारानियों को पीने के लिए दिया गया।तीनों रानियों ने प्रसन्नतापूर्वक जल ग्रहण किया। समय पाकर तीनों रानियां गर्भवती हुई। समय अपनी गति से दौड़ा चला जा रहा था।सभी रघुवंश के उत्तराधिकारी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। दशरथ कौशल्या को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं है कि स्वयं श्रीहरि उनके घर पुत्र बनकर अवतरित होने वाले हैं।उनको तो केवल अपने वंश के नए उत्तराधिकारी के आने का इंतज़ार है जबकि देवतागण, धरा,ब्रह्माजी, ऋषि मुनि सभी आतुरता से अयोध्या की ओर देख रहे हैं। देखे भी क्यों नहीं, आखिर उनके रक्षक, जगत के पालनहार अवतार जो लेने वाले हैं।
        महारानियों के गर्भकाल की अवधि पूर्ण होने की ओर अग्रसर है। अंततः वह समय भी आ ही गया। प्रसव पीड़ा प्रारम्भ हुई, किसी भी समय राजा दशरथ को शुभ समाचार मिल सकता है। अवध को यह अवधि बड़ी धीमी गति से चलती नज़र आ रही है।सत्य है, प्रतीक्षा में समय की गति मंद हुई प्रतीत होती ही है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।