गुरु-12
अजगर से शिक्षा लेकर दत्तात्रेयजी समुद्र को अपना दसवां गुरु बताते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को समुद्र की तरह धीर,गंभीर और मर्यादा का पालन करने वाला होना चाहिए। समुद्र में अथाह जलराशि होती है, विभिन्न प्रकार की लहरें उसमें उठती, ऊंचाइयों को छूती और फिर गिरती रहती है परंतु समुद्र पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समुद्र में संसार की समस्त नदियों का जल आकर गिरता रहता है, गर्मी में उसका पानी वाष्प बनकर उड़ता रहता है और बादल बन दूरस्थ स्थानों पर जाकर बरस जाता है, फिर भी उसके जल के स्तर में कोई बढ़त घटत नहीं होती। वह कभी भी अपनी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता।इसी प्रकार मनुष्य को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में न तो अधिक उत्साहित होना चाहिए और न ही उनके वापिस खो जाने पर क्षोभ ही होना चाहिए।
साथ ही समुद्र से हमें यह शिक्षा भी ग्रहण करनी चाहिए कि हमारे हृदय के भाव उसकी जल राशि की तरह गंभीर,अथाह,अपार और असीम होने चाहिए।प्रत्येक अवस्था में क्षोभ रहित रहकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए।समुद्र में डाली हुई प्रत्येक वस्तु को समुद्र अपने किनारे पर लौटा देता है, उसी प्रकार जितना भी हमने संसार से प्राप्त किया है, वापिस संसार को लौटा देना चाहिए।
दत्तात्रेयजी के अगले गुरु हैं, पतंगा। पतंगा वह प्राणी है, जो जलते दीपक की लौ पर मोहित होकर उसमें आ गिरता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। दीपक की लौ का रूप उसे कोसों दूर से आकर्षित करता है। उस आकर्षण के प्रभाव से वह अपनी सुध बुध खो बैठता है और अपनी आसन्न मृत्यु की कल्पना भी नहीं करता है।इसी प्रकार इंद्रियों को वश में न रख पाने वाला व्यक्ति स्त्री के रूप पर मोहित होकर अपनी सुध बुध खोकर लट्टू हो जाता है और पतंगे की तरह अपना पतन कर बैठता है।वास्तव में स्त्री परमात्मा की वह माया है जिसके जाल में मनुष्य सरलता से फंस जाता है।सत्य है कि जो मनुष्य कंचन और कामिनी के मोह से बाहर नहीं निकल सकता वह कभी भी संसार के आवागमन से मुक्त भी नहीं हो सकता।कंचन और कामिनी दोनों की एक विशेषता है कि मनुष्य उनको भोगने के लिए लालायित रहता है । इस भोग के प्रति आसक्त होकर वह उस पतंगे की तरह अपना जीवन नष्ट कर बैठता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
अजगर से शिक्षा लेकर दत्तात्रेयजी समुद्र को अपना दसवां गुरु बताते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को समुद्र की तरह धीर,गंभीर और मर्यादा का पालन करने वाला होना चाहिए। समुद्र में अथाह जलराशि होती है, विभिन्न प्रकार की लहरें उसमें उठती, ऊंचाइयों को छूती और फिर गिरती रहती है परंतु समुद्र पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समुद्र में संसार की समस्त नदियों का जल आकर गिरता रहता है, गर्मी में उसका पानी वाष्प बनकर उड़ता रहता है और बादल बन दूरस्थ स्थानों पर जाकर बरस जाता है, फिर भी उसके जल के स्तर में कोई बढ़त घटत नहीं होती। वह कभी भी अपनी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता।इसी प्रकार मनुष्य को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में न तो अधिक उत्साहित होना चाहिए और न ही उनके वापिस खो जाने पर क्षोभ ही होना चाहिए।
साथ ही समुद्र से हमें यह शिक्षा भी ग्रहण करनी चाहिए कि हमारे हृदय के भाव उसकी जल राशि की तरह गंभीर,अथाह,अपार और असीम होने चाहिए।प्रत्येक अवस्था में क्षोभ रहित रहकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए।समुद्र में डाली हुई प्रत्येक वस्तु को समुद्र अपने किनारे पर लौटा देता है, उसी प्रकार जितना भी हमने संसार से प्राप्त किया है, वापिस संसार को लौटा देना चाहिए।
दत्तात्रेयजी के अगले गुरु हैं, पतंगा। पतंगा वह प्राणी है, जो जलते दीपक की लौ पर मोहित होकर उसमें आ गिरता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। दीपक की लौ का रूप उसे कोसों दूर से आकर्षित करता है। उस आकर्षण के प्रभाव से वह अपनी सुध बुध खो बैठता है और अपनी आसन्न मृत्यु की कल्पना भी नहीं करता है।इसी प्रकार इंद्रियों को वश में न रख पाने वाला व्यक्ति स्त्री के रूप पर मोहित होकर अपनी सुध बुध खोकर लट्टू हो जाता है और पतंगे की तरह अपना पतन कर बैठता है।वास्तव में स्त्री परमात्मा की वह माया है जिसके जाल में मनुष्य सरलता से फंस जाता है।सत्य है कि जो मनुष्य कंचन और कामिनी के मोह से बाहर नहीं निकल सकता वह कभी भी संसार के आवागमन से मुक्त भी नहीं हो सकता।कंचन और कामिनी दोनों की एक विशेषता है कि मनुष्य उनको भोगने के लिए लालायित रहता है । इस भोग के प्रति आसक्त होकर वह उस पतंगे की तरह अपना जीवन नष्ट कर बैठता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
No comments:
Post a Comment