गुरु-8
चंद्रमा अंतरिक्ष में भ्रमण करने वाला पृथ्वी का ही उपग्रह है। चंद्रमा की कलाएं काल के प्रभाव से सदैव घटती बढ़ती रहती है, परंतु उस पर इस बात को कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।वह सदैव ही ज्यों का त्यों बना रहता है।इसी प्रकार मनुष्य के शरीर की जन्म से लेकर मृत्यु तक, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि विभिन्न अवस्थाएं आती है,फिर भी आत्मा पर इन अवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।चंद्रमा से यह शिक्षा ग्रहण कर मनुष्य अपने आपको इन अवस्थाओं के प्रभाव से स्वयं को मुक्त बनाये रख सकता है।जिस दिन हम जीवन की इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेंगे तब इस शरीर को अपना मानना ही छोड़ देंगे।शरीर की अवस्थाओं के आधार पर हम कहते रहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं युवा हूँ अथवा मैं बूढ़ा हो गया हूँ परंतु बालक, युवा और बूढ़ा होना शरीर के साथ घटित हुआ है, "मैं" अर्थात आत्मा तो सदैव एक सा ही बना रहता है, शरीर की विभिन्न अवस्थाएं उसे छू तक नहीं सकती।
चन्द्रमा पर काल के प्रभाव से ग्रहण भी लगता रहता है परंतु क्या चंद्रमा इनसे कभी प्रभावित होता है?नहीं, बिल्कुल भी नहीं होता। उसी प्रकार मनुष्य को भी सम विषम परिस्थितियों से अप्रभावित बने रहना चाहिए।चंद्रमा हमें जीवन की इस वास्तविकता का ज्ञान कराता है जिसे आत्मसात करना हमारे लिए हितकर है।
सातवां गुरु है, सूर्य।सूर्य अपनी किरणों से जलाशयों से जल ग्रहण कर बादल का निर्माण करता है और फिर आवश्यकता वाले स्थान पर जल का त्याग कर बरसात करा देता है। मनुष्य को सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि वह भी इंद्रियों से जो भी विषय समय समय पर ग्रहण करता है, उनका भी समय आने पर त्याग और दान कर देना चाहिए, उन विषयों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। हम विषयों को ग्रहण तो करते हैं, परंतु उनमें आसक्त हो जाते हैं, जिसके कारण हमसे उन विषयों का त्याग करना असंभव हो जाता है।
सूर्य का प्रतिबिंब विभिन्न जल भरे पात्रों में अलग अलग दिखलाई पड़ता है परंतु वास्तव में सूर्य एक ही है, उसी प्रकार हमें भी यह समझना चाहिए कि विभिन्न प्राणियों में अलग अलग दृष्टिगत होने वाली आत्माएं भिन्न भिन्न न होकर सबमें एक ही आत्मा निवास करती है।सभी प्राणियों के शरीर भिन्न भिन्न हो सकते हैं परंतु सभी में वही एक आत्मा निवास करती है।
सीख लेने की मन में इच्छा हो तो छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी किसी भी बात से ग्रहण की जा सकती है। अब देखिए, कबूतर जैसा भोला भाला प्राणी भी दत्तात्रेयजी को सीख देकर उनका आठवां गुरु बन गया। कैसे? चलो देखते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
चंद्रमा अंतरिक्ष में भ्रमण करने वाला पृथ्वी का ही उपग्रह है। चंद्रमा की कलाएं काल के प्रभाव से सदैव घटती बढ़ती रहती है, परंतु उस पर इस बात को कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।वह सदैव ही ज्यों का त्यों बना रहता है।इसी प्रकार मनुष्य के शरीर की जन्म से लेकर मृत्यु तक, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि विभिन्न अवस्थाएं आती है,फिर भी आत्मा पर इन अवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।चंद्रमा से यह शिक्षा ग्रहण कर मनुष्य अपने आपको इन अवस्थाओं के प्रभाव से स्वयं को मुक्त बनाये रख सकता है।जिस दिन हम जीवन की इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेंगे तब इस शरीर को अपना मानना ही छोड़ देंगे।शरीर की अवस्थाओं के आधार पर हम कहते रहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं युवा हूँ अथवा मैं बूढ़ा हो गया हूँ परंतु बालक, युवा और बूढ़ा होना शरीर के साथ घटित हुआ है, "मैं" अर्थात आत्मा तो सदैव एक सा ही बना रहता है, शरीर की विभिन्न अवस्थाएं उसे छू तक नहीं सकती।
चन्द्रमा पर काल के प्रभाव से ग्रहण भी लगता रहता है परंतु क्या चंद्रमा इनसे कभी प्रभावित होता है?नहीं, बिल्कुल भी नहीं होता। उसी प्रकार मनुष्य को भी सम विषम परिस्थितियों से अप्रभावित बने रहना चाहिए।चंद्रमा हमें जीवन की इस वास्तविकता का ज्ञान कराता है जिसे आत्मसात करना हमारे लिए हितकर है।
सातवां गुरु है, सूर्य।सूर्य अपनी किरणों से जलाशयों से जल ग्रहण कर बादल का निर्माण करता है और फिर आवश्यकता वाले स्थान पर जल का त्याग कर बरसात करा देता है। मनुष्य को सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि वह भी इंद्रियों से जो भी विषय समय समय पर ग्रहण करता है, उनका भी समय आने पर त्याग और दान कर देना चाहिए, उन विषयों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। हम विषयों को ग्रहण तो करते हैं, परंतु उनमें आसक्त हो जाते हैं, जिसके कारण हमसे उन विषयों का त्याग करना असंभव हो जाता है।
सूर्य का प्रतिबिंब विभिन्न जल भरे पात्रों में अलग अलग दिखलाई पड़ता है परंतु वास्तव में सूर्य एक ही है, उसी प्रकार हमें भी यह समझना चाहिए कि विभिन्न प्राणियों में अलग अलग दृष्टिगत होने वाली आत्माएं भिन्न भिन्न न होकर सबमें एक ही आत्मा निवास करती है।सभी प्राणियों के शरीर भिन्न भिन्न हो सकते हैं परंतु सभी में वही एक आत्मा निवास करती है।
सीख लेने की मन में इच्छा हो तो छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी किसी भी बात से ग्रहण की जा सकती है। अब देखिए, कबूतर जैसा भोला भाला प्राणी भी दत्तात्रेयजी को सीख देकर उनका आठवां गुरु बन गया। कैसे? चलो देखते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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