गुरु-15
शहद निकालने वाले एक साधारण से मनुष्य से भी दत्तात्रेयजी ने शिक्षा ग्रहण कर उसको अपना गुरु माना है। वे कहते हैं कि संसार में रहने वाला प्रत्येक मनुष्य न जाने क्या सोचकर धन संग्रह में लगा हुआ है। न तो वह उस धन का भोग करता है और न ही उसका दान। ऐसे में कोई अन्य व्यक्ति उसके धन को उसी प्रकार चुरा कर ले जाता है जैसे मधुमक्खी के द्वारा संग्रहित किये हुए मधु को शहद निकालने वाला व्यक्ति ले जाता है।इस संचित धन का सदुपयोग साधुओं और ब्रह्मचारियों को भोजन कराके भी किया जा सकता है। कहा भी गया है कि-
या धन की गति तीन है, दान भोग और नाश।
धन की केवल उपरोक्त तीन प्रकार की गतियाँ ही होती है। लक्ष्मी चंचला है, एक जगह टिक कर नहीं रह सकती, सदैव गतिमान बनी रहती है।अतः संचित धन का अपने सुख के लिए उपयोग कर लेना अच्छा है और सबसे अच्छा है, जरूरतमंद को दान कर देना,नहीं तो उसका नाश होना निश्चित है। शहद निकालने वाले से हमें यही ज्ञान मिलता है।
एक ऋषि हुए हैं, ऋष्यश्रृंग। कहा जाता है कि उनका जन्म एक हरिनी के गर्भ से हुआ था।वे ऋषि विभांडक के पुत्र और कश्यप ऋषि के पौत्र थे।एक बार ऋषि विभांडक ने घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से स्वर्ग के देवता बड़े चिंतित हुए।उनकी तपस्या को भंग करने के लिए स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को उनके पास भेजा गया। उर्वशी ने विभांडक को अपने रूप जाल में फंसा लिया। विभांडक के संसर्ग से उर्वशी गर्भवती हो गई। उसने अपने गर्भ को एक हरिनी के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया और स्वयं स्वर्ग को लौट गई।उस हरिनी के गर्भ से ऋष्यश्रृंग ने जन्म लिया। इस शिशु के सिर पर हरिन की तरह ही सींग था, इसी कारण से इनका नाम ऋष्यश्रृंग रखा गया। यही ऋष्यश्रृंग वही श्रृंगी ऋषि हैं जिनको दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए किए गए यज्ञ में मुनि वशिष्ठ के माध्यम से आमंत्रित किया था।गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्री रामचरित मानस में इस बात का वर्णन भी है।
विभांडक ने अपने साथ हुए छल के कारण, अपने पुत्र ऋष्यश्रृंग को बाल्यकाल से ही स्त्रियों से दूर रखा। उनकी स्त्री-पुरुष में कोई भेद दृष्टि थी ही नहीं। वे दोनों को एक समान ही समझते थे।ऋष्यश्रृंग ने बहुत घोर तपस्या की थी। उनका हरिनी के गर्भ से जन्म लेने के कारण उनका स्वभाव भी एक हरिन जैसा ही था।
हरिन जब व्याध द्वारा वंशी वादन किया जाता है, तो वह उसकी मधुर तान सुनकर उसमें आसक्त हो जाता है।हरिन वंशी की धुन को ठिठक कर खड़ा होकर सुनने लगता है। व्याध इसी अवसर की ताक में रहता है और उसका शिकार कर लेता है। एक दिन ऋष्यश्रृंग भी इसी प्रकार स्त्रियों के विषय संबंधी गीत-संगीत और नाच-गाने पर मोहित होकर अध्यात्म मार्ग से नीचे गिर कर पतन को प्राप्त हो गए थे। स्त्री संग उन्हें अध्यात्म पथ से भटका गया।वह बात अलग है कि समय रहते वे सचेत हो गए और पुनः अपनी साधना में लीन हो गए।
दत्तात्रेय हरिन को अपना गुरु मानते हुए कहते हैं कि वनवासी सन्यासी को कभी भी विषय संबंधी गीत नहीं सुनने चाहिए अन्यथा उसका ऋष्यश्रृंग की तरह पतन होना निश्चित है।एक सन्यासी को सदैव अपने आपको ऐसे किसी भी गीत-संगीत से दूरी बनाए रखनी चाहिए जिसमें विषय रस की गंध आने का आभास होता हो। हरिन केवल अपने उसी स्वभाव के कारण अपना जीवन खो बैठता है। श्रवण सुख को त्याग देना ही एक आध्यत्मिक पुरुष के लिए श्रेष्ठ है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
शहद निकालने वाले एक साधारण से मनुष्य से भी दत्तात्रेयजी ने शिक्षा ग्रहण कर उसको अपना गुरु माना है। वे कहते हैं कि संसार में रहने वाला प्रत्येक मनुष्य न जाने क्या सोचकर धन संग्रह में लगा हुआ है। न तो वह उस धन का भोग करता है और न ही उसका दान। ऐसे में कोई अन्य व्यक्ति उसके धन को उसी प्रकार चुरा कर ले जाता है जैसे मधुमक्खी के द्वारा संग्रहित किये हुए मधु को शहद निकालने वाला व्यक्ति ले जाता है।इस संचित धन का सदुपयोग साधुओं और ब्रह्मचारियों को भोजन कराके भी किया जा सकता है। कहा भी गया है कि-
या धन की गति तीन है, दान भोग और नाश।
धन की केवल उपरोक्त तीन प्रकार की गतियाँ ही होती है। लक्ष्मी चंचला है, एक जगह टिक कर नहीं रह सकती, सदैव गतिमान बनी रहती है।अतः संचित धन का अपने सुख के लिए उपयोग कर लेना अच्छा है और सबसे अच्छा है, जरूरतमंद को दान कर देना,नहीं तो उसका नाश होना निश्चित है। शहद निकालने वाले से हमें यही ज्ञान मिलता है।
एक ऋषि हुए हैं, ऋष्यश्रृंग। कहा जाता है कि उनका जन्म एक हरिनी के गर्भ से हुआ था।वे ऋषि विभांडक के पुत्र और कश्यप ऋषि के पौत्र थे।एक बार ऋषि विभांडक ने घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से स्वर्ग के देवता बड़े चिंतित हुए।उनकी तपस्या को भंग करने के लिए स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को उनके पास भेजा गया। उर्वशी ने विभांडक को अपने रूप जाल में फंसा लिया। विभांडक के संसर्ग से उर्वशी गर्भवती हो गई। उसने अपने गर्भ को एक हरिनी के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया और स्वयं स्वर्ग को लौट गई।उस हरिनी के गर्भ से ऋष्यश्रृंग ने जन्म लिया। इस शिशु के सिर पर हरिन की तरह ही सींग था, इसी कारण से इनका नाम ऋष्यश्रृंग रखा गया। यही ऋष्यश्रृंग वही श्रृंगी ऋषि हैं जिनको दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए किए गए यज्ञ में मुनि वशिष्ठ के माध्यम से आमंत्रित किया था।गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्री रामचरित मानस में इस बात का वर्णन भी है।
विभांडक ने अपने साथ हुए छल के कारण, अपने पुत्र ऋष्यश्रृंग को बाल्यकाल से ही स्त्रियों से दूर रखा। उनकी स्त्री-पुरुष में कोई भेद दृष्टि थी ही नहीं। वे दोनों को एक समान ही समझते थे।ऋष्यश्रृंग ने बहुत घोर तपस्या की थी। उनका हरिनी के गर्भ से जन्म लेने के कारण उनका स्वभाव भी एक हरिन जैसा ही था।
हरिन जब व्याध द्वारा वंशी वादन किया जाता है, तो वह उसकी मधुर तान सुनकर उसमें आसक्त हो जाता है।हरिन वंशी की धुन को ठिठक कर खड़ा होकर सुनने लगता है। व्याध इसी अवसर की ताक में रहता है और उसका शिकार कर लेता है। एक दिन ऋष्यश्रृंग भी इसी प्रकार स्त्रियों के विषय संबंधी गीत-संगीत और नाच-गाने पर मोहित होकर अध्यात्म मार्ग से नीचे गिर कर पतन को प्राप्त हो गए थे। स्त्री संग उन्हें अध्यात्म पथ से भटका गया।वह बात अलग है कि समय रहते वे सचेत हो गए और पुनः अपनी साधना में लीन हो गए।
दत्तात्रेय हरिन को अपना गुरु मानते हुए कहते हैं कि वनवासी सन्यासी को कभी भी विषय संबंधी गीत नहीं सुनने चाहिए अन्यथा उसका ऋष्यश्रृंग की तरह पतन होना निश्चित है।एक सन्यासी को सदैव अपने आपको ऐसे किसी भी गीत-संगीत से दूरी बनाए रखनी चाहिए जिसमें विषय रस की गंध आने का आभास होता हो। हरिन केवल अपने उसी स्वभाव के कारण अपना जीवन खो बैठता है। श्रवण सुख को त्याग देना ही एक आध्यत्मिक पुरुष के लिए श्रेष्ठ है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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