गुरु-16
दत्तात्रेयजी के सोलहवें नंबर की गुरु है, मछली।नदी और अन्य जल स्रोत में मछली स्वतंत्र रूप से तैरती रहती है।प्रायः हम देखते हैं कि जब लोग नाव से यात्रा करते हैं तब उनमें से कुछेक लोग नदी में आटे से बनी छोटी छोटी गोलियां डालते रहते हैं। उन गोलियों को खाने के लिए मछलियां नाव के पास आ जाती है। मछली पकड़ने का शौक रखने वाले भी ऐसा ही करते हैं। वे आटे से बनी गोली अथवा अन्य कोई भोजन कांटे में लगाकर उस कांटे को नदी में डाल देते हैं।कांटे के एक छोर से एक डोरी बंधी होती है और दूसरे छोर पर वह डोरी एक लकड़ी से बंधी होती है, जिसे मछली पकड़ने वाला अपने हाथ में पकड़े रहता है। इस उपकरण को वंशी कहा जाता है। मछली को अपना भोजन नज़र आते ही वह उसे खाने को आती है और भोजन को मुंह में लेते ही कांटा उसके भीतर चुभ जाता है।कांटे में फंसते ही मछली उससे मुक्त होने के लिए छटपटाती है,परंतु मुक्त नहीं हो पाती।मछली की छटपटाहट से वंशी हिलने लगती है, जिससे मछलीमार समझ जाता है कि कांटे में मछली फंस गई है। वह वंशी को तत्काल ही जल से बाहर खींच लेता है। जल से बाहर आते ही मछली मर जाती है।इस प्रकार भोजन के स्वाद के चक्कर में मछली अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है।
दत्तात्रेय कहते हैं कि इसी प्रकार मनुष्य को भी मछली की तरह अपनी रस-इन्द्रीयका गुलाम नहीं होना चाहिए। मनुष्य भोजन लेना बंद कर शेष इंद्रियों पर तो सुगमता से नियंत्रण स्थापित कर लेता है परंतु इससे रसनेन्द्रिय का नियंत्रित होना नहीं कहा जा सकता।रसनेन्द्रिय तो भोजन बन्द कर देने से और अधिक प्रबल हो उठती है।मन मे बार बार स्वादिष्ट भजन से रस प्राप्त करने की कामना जाग्रत होती रहती है।इसका अर्थ हुआ कि रसनेन्द्रिय को भोजन बन्द कर दबाया गया है, उसे वश में नहीं किया गया है। मनुष्य तब तक जितेंद्रिय नहीं हो सकता, जब तक वह रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता।जब वह रसनेन्द्रिय को वश में कर लेता है तब सभी इंद्रियों को वश में करना संभव हो जाता है।
इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य को सबसे पहले अपनी जिव्हा को वश में करना चाहिए। जिव्हा ही एक मात्र इन्द्रिय है जो बहुत प्रयास करने के बाद भी नियंत्रित नहीं हो पाती। मछली के साथ होने वाली कांटे में फंसने वाली घटना से यह सीखा जा सकता है कि रसनेन्द्रिय को वश में रखना क्यों आवश्यक है?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
दत्तात्रेयजी के सोलहवें नंबर की गुरु है, मछली।नदी और अन्य जल स्रोत में मछली स्वतंत्र रूप से तैरती रहती है।प्रायः हम देखते हैं कि जब लोग नाव से यात्रा करते हैं तब उनमें से कुछेक लोग नदी में आटे से बनी छोटी छोटी गोलियां डालते रहते हैं। उन गोलियों को खाने के लिए मछलियां नाव के पास आ जाती है। मछली पकड़ने का शौक रखने वाले भी ऐसा ही करते हैं। वे आटे से बनी गोली अथवा अन्य कोई भोजन कांटे में लगाकर उस कांटे को नदी में डाल देते हैं।कांटे के एक छोर से एक डोरी बंधी होती है और दूसरे छोर पर वह डोरी एक लकड़ी से बंधी होती है, जिसे मछली पकड़ने वाला अपने हाथ में पकड़े रहता है। इस उपकरण को वंशी कहा जाता है। मछली को अपना भोजन नज़र आते ही वह उसे खाने को आती है और भोजन को मुंह में लेते ही कांटा उसके भीतर चुभ जाता है।कांटे में फंसते ही मछली उससे मुक्त होने के लिए छटपटाती है,परंतु मुक्त नहीं हो पाती।मछली की छटपटाहट से वंशी हिलने लगती है, जिससे मछलीमार समझ जाता है कि कांटे में मछली फंस गई है। वह वंशी को तत्काल ही जल से बाहर खींच लेता है। जल से बाहर आते ही मछली मर जाती है।इस प्रकार भोजन के स्वाद के चक्कर में मछली अपने प्राणों से हाथ धो बैठती है।
दत्तात्रेय कहते हैं कि इसी प्रकार मनुष्य को भी मछली की तरह अपनी रस-इन्द्रीयका गुलाम नहीं होना चाहिए। मनुष्य भोजन लेना बंद कर शेष इंद्रियों पर तो सुगमता से नियंत्रण स्थापित कर लेता है परंतु इससे रसनेन्द्रिय का नियंत्रित होना नहीं कहा जा सकता।रसनेन्द्रिय तो भोजन बन्द कर देने से और अधिक प्रबल हो उठती है।मन मे बार बार स्वादिष्ट भजन से रस प्राप्त करने की कामना जाग्रत होती रहती है।इसका अर्थ हुआ कि रसनेन्द्रिय को भोजन बन्द कर दबाया गया है, उसे वश में नहीं किया गया है। मनुष्य तब तक जितेंद्रिय नहीं हो सकता, जब तक वह रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता।जब वह रसनेन्द्रिय को वश में कर लेता है तब सभी इंद्रियों को वश में करना संभव हो जाता है।
इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य को सबसे पहले अपनी जिव्हा को वश में करना चाहिए। जिव्हा ही एक मात्र इन्द्रिय है जो बहुत प्रयास करने के बाद भी नियंत्रित नहीं हो पाती। मछली के साथ होने वाली कांटे में फंसने वाली घटना से यह सीखा जा सकता है कि रसनेन्द्रिय को वश में रखना क्यों आवश्यक है?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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