गुरु-27
चलिए, एक बार फिर संक्षेप में दत्तात्रेयजी के इन गुरुओं और इनसे प्राप्त होने वाली शिक्षाओं को दोहरा लेते हैं।
1.पृथ्वी-धैर्य और क्षमा।
2.वायु-निर्लिप्तता।
3.आकाश-एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति।
4.जल-सहज, निर्मल और पवित्र स्वभाव।
5.अग्नि-दोष रहित होना।
6.चंद्रमा-प्रत्येक परिस्थिति में सम रहना।
7.सूर्य-इन्द्रिय भोग और त्याग, दोनों में सामंजस्य।
8.कबूतर-आसक्ति का त्याग।
9.अजगर-व्यर्थ की चेष्टा न करना।
10.समुद्र-धीर,गंभीर रहना।
11.पतंगा-दर्शनेन्द्रीय पर नियंत्रण।
12.भौंरा व मधुमक्खी-गंध के प्रति आसक्ति व संग्रह करना अनुचित है।
13.हाथी-स्पर्श सुख के प्रति आसक्ति से जीवन पर संकट।
14.मधु निकालने वाला- संग्रह किये गए धन और वस्तुओं को कोई अन्य ही भोगता है।
15.हरिन-श्रवण इन्द्रिय पर नियंत्रण।
16.मछली- जिव्हा रस के प्रति आसक्ति अनुचित ।
17.पिङ्गला वेश्या- ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी कोई आशा न रखना।
18.कुरर पक्षी- जीवन में संग्रह ही दुःख का सबसे बड़ा कारण।भोगों को त्यागने से ही सुख की प्राप्ति होती है।
19.बालक-मान-अपमान और व्यर्थ की चिंता से दूरी।चिंतारहित होना ही सबसे बड़ा सुख है।
20.कुंआरी कन्या-परमात्मा के भजन के लिए किसी के साथ की आवश्यकता नहीं।दूसरे का साथ ही भजन में बाधक।
21.बाण बनाने वाला-वैराग्य और अभ्यास से मन को एकाग्र कर लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास।
22.सर्प-एकांतिक जीवन।घर अथवा मठ आश्रम आदि का निर्माण नहीं करना।
23.मकड़ी-एक परमात्मा ही जगत के निर्माणकर्ता और संहारक।संकल्प विकल्प का त्याग हमें संसार जाल में नहीं उलझने देता।
24.भृङ्गी कीट- संसार का चिंतन करोगे तो सांसारिकता में ही जीवन भर उलझे रहोगे। अतः सदैव केवल परमात्मा का ही चिंतन करते रहें, उसी में मन को लगा दें। चाहे प्रेम, द्वेष अथवा भय के वशीभूत होकर ही क्यों न हो, फिर आप स्वयं ही परमात्मा स्वरूप हो सकते हो।
और अंत मे स्वयं के शरीर से लेने वाली शिक्षा- यह शरीर साधन मात्र है, चाहो तो इससे विषय भोग प्राप्त करो अथवा परमात्मा की ओर चलो। मनुष्य शरीर परमात्मा की ओर जाने के लिए मिला है न कि विषय रस लेने के लिए। आप शरीर नहीं हैं अतः शरीर से स्वयं को अलग मानते हुए, इसको साधन बनाकर साध्य तक पहुंचने का प्रयास करें।
सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस श्रृंखला से निकल कर आई है वह है कि कोई भी गुरु आपको तब तक ज्ञान नहीं करा सकता जब तक कि ज्ञान लेने के लिए आप बुद्धि का उपयोग करने को स्वयं तत्पर न हो।अतः आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक आदर्श गुरु मिलने के साथ साथ आपकी लगन और विवेक का सदुपयोग करना भी आवश्यक है।गुरु आपके विवेक को जाग्रत करता है, पतन्तु सदमार्ग पर आपको ही चलना पड़ता है।कहने का सार यह है कि अगर आप विवेकवान हैं तो फिर आप स्वयं ही अपने गुरु हो सकते हैं, आपको कहीं बाहर जाकर गुरु ढूंढने की आवश्यकता नहीं है।
कल-दात्तात्रेय जी का परिचय।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
चलिए, एक बार फिर संक्षेप में दत्तात्रेयजी के इन गुरुओं और इनसे प्राप्त होने वाली शिक्षाओं को दोहरा लेते हैं।
1.पृथ्वी-धैर्य और क्षमा।
2.वायु-निर्लिप्तता।
3.आकाश-एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति।
4.जल-सहज, निर्मल और पवित्र स्वभाव।
5.अग्नि-दोष रहित होना।
6.चंद्रमा-प्रत्येक परिस्थिति में सम रहना।
7.सूर्य-इन्द्रिय भोग और त्याग, दोनों में सामंजस्य।
8.कबूतर-आसक्ति का त्याग।
9.अजगर-व्यर्थ की चेष्टा न करना।
10.समुद्र-धीर,गंभीर रहना।
11.पतंगा-दर्शनेन्द्रीय पर नियंत्रण।
12.भौंरा व मधुमक्खी-गंध के प्रति आसक्ति व संग्रह करना अनुचित है।
13.हाथी-स्पर्श सुख के प्रति आसक्ति से जीवन पर संकट।
14.मधु निकालने वाला- संग्रह किये गए धन और वस्तुओं को कोई अन्य ही भोगता है।
15.हरिन-श्रवण इन्द्रिय पर नियंत्रण।
16.मछली- जिव्हा रस के प्रति आसक्ति अनुचित ।
17.पिङ्गला वेश्या- ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी कोई आशा न रखना।
18.कुरर पक्षी- जीवन में संग्रह ही दुःख का सबसे बड़ा कारण।भोगों को त्यागने से ही सुख की प्राप्ति होती है।
19.बालक-मान-अपमान और व्यर्थ की चिंता से दूरी।चिंतारहित होना ही सबसे बड़ा सुख है।
20.कुंआरी कन्या-परमात्मा के भजन के लिए किसी के साथ की आवश्यकता नहीं।दूसरे का साथ ही भजन में बाधक।
21.बाण बनाने वाला-वैराग्य और अभ्यास से मन को एकाग्र कर लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास।
22.सर्प-एकांतिक जीवन।घर अथवा मठ आश्रम आदि का निर्माण नहीं करना।
23.मकड़ी-एक परमात्मा ही जगत के निर्माणकर्ता और संहारक।संकल्प विकल्प का त्याग हमें संसार जाल में नहीं उलझने देता।
24.भृङ्गी कीट- संसार का चिंतन करोगे तो सांसारिकता में ही जीवन भर उलझे रहोगे। अतः सदैव केवल परमात्मा का ही चिंतन करते रहें, उसी में मन को लगा दें। चाहे प्रेम, द्वेष अथवा भय के वशीभूत होकर ही क्यों न हो, फिर आप स्वयं ही परमात्मा स्वरूप हो सकते हो।
और अंत मे स्वयं के शरीर से लेने वाली शिक्षा- यह शरीर साधन मात्र है, चाहो तो इससे विषय भोग प्राप्त करो अथवा परमात्मा की ओर चलो। मनुष्य शरीर परमात्मा की ओर जाने के लिए मिला है न कि विषय रस लेने के लिए। आप शरीर नहीं हैं अतः शरीर से स्वयं को अलग मानते हुए, इसको साधन बनाकर साध्य तक पहुंचने का प्रयास करें।
सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस श्रृंखला से निकल कर आई है वह है कि कोई भी गुरु आपको तब तक ज्ञान नहीं करा सकता जब तक कि ज्ञान लेने के लिए आप बुद्धि का उपयोग करने को स्वयं तत्पर न हो।अतः आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक आदर्श गुरु मिलने के साथ साथ आपकी लगन और विवेक का सदुपयोग करना भी आवश्यक है।गुरु आपके विवेक को जाग्रत करता है, पतन्तु सदमार्ग पर आपको ही चलना पड़ता है।कहने का सार यह है कि अगर आप विवेकवान हैं तो फिर आप स्वयं ही अपने गुरु हो सकते हैं, आपको कहीं बाहर जाकर गुरु ढूंढने की आवश्यकता नहीं है।
कल-दात्तात्रेय जी का परिचय।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
No comments:
Post a Comment