Thursday, August 8, 2019

गुरु-23

गुरु-23
      दत्तात्रेयजी के अगले गुरु है, सर्प।सांप में उन्होंने क्या विशेषता देखी, आइए!पहले उसकी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं।सांप सदैव अकेले ही विचरण करता है, सांप की केवल इसी एक विशेषता से उन्होंने बहुत बड़ी शिक्षा ग्रहण कर ली। वे कहते हैं कि साधु को भी सांप की तरह अकेले ही विचरण करना चाहिए।सन्यासी को मठ मंडली आदि नहीं बनानी चाहिए।प्रमाद न करे,एक स्थान पर स्थिर होकर रहे नहीं, घर बनाकर नहीं रहे क्योंकि घर ही दु:खों की जननी है।साधु को चाहिए कि किसी से कोई सहायता न ले तथा व्यर्थ की बातें न करे।
           सर्प के बाद दत्तात्रेयजी ने मकड़ी को अपना गुरु माना है। मकड़ी अपनी ही लार से जाले का निर्माण करती है, उसी में विहार करती है और फिर कार्य पूरा होने पर उसे खुद ही निगल लेती है।इसी प्रकार परमेश्वर भी अपने से ही संसार का निर्माण करते हैं, जीव रूप से जगत में विहार करते हैं और फिर उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं।
      सर्वशक्तिमान भगवान कल्प के आरंभ में बिना किसी की सहायता लिए अपनी ही माया से जगत का निर्माण करते हैं और कल्प के अंत प्रलयकाल में उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं।वे सबके आधार हैं, सबके आश्रय हैं परंतु स्वयं अपने ही आधार और आश्रय से रहते हैं, किसी दूसरे के आश्रय से नहीं।वे प्रकृति और पुरुष दोनों ही के नियामक हैं। सत्व,रज और तम गुण की शक्तियों को साम्यावस्था तक वे ही पहुंचाते हैं।वे अपनी शक्ति काल से त्रिगुणी माया रूपी प्रकृति को क्षुब्ध करते हैं और फिर सर्वप्रथम क्रियाशक्ति प्रधान सूत्र महतत्व की रचना करते हैं ।यह सूत्ररूप महतत्व ही त्रिगुण की पहली अभिव्यक्ति है और सृष्टि का मूल कारण भी।उसी में यह सारा विश्व सूत में ताने बाने की तरह ओत-प्रोत है।इसी के कारण जीव जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ा रहता है।
       मकड़ी के मुख से निकलने वाले सूत्र और उससे बनाये जाने वाले जाल, इसमें निर्बाध विचरण करती मकड़ी और फिर जाले को स्वयं के द्वारा निगल लिए जाने जैसी घटना को देखकर ही दत्तात्रेयजी को महत्वपूर्ण ज्ञान की उपलब्धि हुई । मकड़ी से लिये ज्ञान से इस जगत के निर्माण से लेकर प्रलय तक की प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है।अतः यह कहा जा सकता है कि बुद्धि का उपयोग कर छोटी से छोटी घटना, जो कि सदैव अपने आस पास घटित होती ही रहती है, उनसे अवश्य ही कुछ न कुछ तो सीखा ही जा सकता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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