Monday, August 5, 2019

गुरु-20

गुरु-20
         दत्तात्रेय महाराज कहते हैं कि-
-मैं अपने आप में ही क्रीड़ा करता रहता हूँ।
-घर व परिवार वालों को जो चिंता होती है,वैसी मुझे कभी भी नहीं होती है।
-मैं अपनी आत्मा में ही रमन करता रहता हूँ।
-मुझे मान-अपमान का कोई ध्यान/बोध ही नहीं है।
      हे राजन्!यह शिक्षा मैंने एक बालक से ली है इसीलिए मैं सदैव मौज में रहता हूँ। इस संसार में इस निश्चिंत और परमानन्द अवस्था को केवल दो प्रकार के ही व्यक्ति प्राप्त होते हैं-एक तो भोला भाला निश्चेष्ट बालक और दूसरा गुणातीत पुरुष।
         बालक को तो सांसारिक क्रियाकलापों का ज्ञान नहीं होता लेकिन जीवन में सांसारिक अनुभव कर लेने वाले व्यक्ति के लिए पुनः बालक बनकर उस जैसा व्यवहार करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। कठिन इसलिए है क्योंकि वह सभी प्रकार के कर्म जो उसके द्वारा होते हैं वह उन कर्मों का होना न मानकर स्वयं के द्वारा किया जाना मानकर उनका कर्ता बन जाता है। वास्तव में देखा जाए तो कर्म किसी व्यक्ति द्वारा किये जाते नहीं हैं बल्कि प्रकृति के गुणों के कारण स्वयमेव ही होते हैं। जब हम कर्मों का गुणों के कारण होना समझ लेते हैं, उसी दिन से हमारा व्यवहार अपने आप ही एक बालक की तरह हो जाएगा।
         कर्मों का गुणों के द्वारा होना और अपने में गुणों का न होना, ये दोनों बात मान लेना ही गुणातीत हो जाना है। प्रकृति के तीन गुण, सत्व,रज और तम ही प्रत्येक कर्म सम्पन्न होने के कारण है। ऐसे कर्म क्रिया कहलाते हैं। गुणों के कारण होने वाली क्रियाओं को अपने द्वारा किया जाने वाला कर्म मान लेना ही मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है।जब हम इन गुणों से भिन्न होकर, इन गुणों से आगे बढ़कर सोचेंगे तो हमें अनुभव होगा कि इतने दिन हम ही भ्रम में थे कि सब कुछ जो क्रियाएं प्रकृति के गुणों के कारण हो रही थी, उन्हें हम अज्ञानवश अपने द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कर्म मान रहे थे। इस अवस्था को उपलब्ध हो जाने वाला पुरुष ही गुणातीत कहलाता है।गुणातीत पुरुष ही बालक का स्वभाव अपना सकता है। बालक और गुणातीत पुरुष में भी अंतर होता है हालांकि उनकी क्रियाओं में कोई अंतर नहीं होता। बालक को संसार का ज्ञान नहीं होता, उसको इस बात का बोध ही नहीं होता कि कोई उसका सम्मान कर रहा है अथवा अपमान।परंतु गुणातीत पुरुष को मान अपमान का ज्ञान अवश्य होता है परंतु उनका अनुभव उसे दोनों अवस्थाओं में एक समान होता है अर्थात वह मान अपमान पर ध्यान देने की स्थिति से बहुत ऊपर उठ चुका होता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

No comments:

Post a Comment