गुरु-22
दत्तात्रेयजी महाराज को गुरु मिलने का क्रम जारी है। उन्होंने अपना 21वां गुरु माना है,एक बाण बनाने वाले को। बाण बनाना कोई आसान कार्य नहीं है।बाण बनाने के लिए पूरी तन्मयता और एक ही स्थान पर टिक कर बैठने की आवश्यकता होती है।जब दत्तात्रेयजी ने देखा कि बाण बना रहे व्यक्ति के पास से ही राजा की सवारी भी निकल गयी और उस कारीगर को इस बात का तनिक से भी आभास नहीं हुआ, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। बुद्धि का उपयोग कर इस घटना का सार जब उनको मिला तो उस बाण बनाने वाले कारीगर को भी उन्होंने अपना गुरु मान लिया।
दत्तात्रेयजी कहते हैं कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य तथा अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर उसे अपने लक्ष्य में लगा देना चाहिए। जैसे बाण बनाने वाला अपने अभ्यास और तन्मयता से उच्च कोटि के बाण का निर्माण कर लेता है।
इस संसार में सारा खेल मन का ही है।"मनः एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो" अर्थात मनुष्य के बंधन का कारण उसका मन है और मन ही उसके लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है। मोक्ष का मार्ग खोलने के लिए मन का उपयोग कैसे किया जाता है, बाण बनाने वाले से सीखा जा सकता है।आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य धारण करें और अभ्यास करते हुए मन को वश में करें। फिर मन को जीवन के एक मात्र लक्ष्य, परमात्मा की ओर लगा दें।जब मन परमात्मा में स्थिर हो जाता है तो फिर कर्मवासना भी जाती रहती है।इस प्रकार जिस का चित्त अपनी आत्मा में स्थिर हो जाता है, उसे फिर बाहर भीतर किसी भी बात का ज्ञान नहीं रहता।
बाण बनाने वाले का चित्त भी स्थिर था, तभी तो उसको पास से गुज़र गई राजा की सवारी का भान तक नहीं हुआ।एक ही स्थान पर शरीर को स्थिर रखते हुए, मन को केवल बाण बनाने के लक्ष्य पर स्थिर करते हुए ही उत्कृष्ट श्रेणी का बाण बनाया जा सकता था। एक निपुण कारीगर की यही पहचान होती है कि वह अपना कार्य कितनी तन्मयता और मन तथा शरीर को स्थिर रखकर करता है। यही आधार आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।दत्तात्रेयजी ने यह सीख बाण बनाने वाले कारीगर को बाण बनाते देखकर ही ली है, इसीलिए उन्होंने उसको अपना गुरु माना है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
दत्तात्रेयजी महाराज को गुरु मिलने का क्रम जारी है। उन्होंने अपना 21वां गुरु माना है,एक बाण बनाने वाले को। बाण बनाना कोई आसान कार्य नहीं है।बाण बनाने के लिए पूरी तन्मयता और एक ही स्थान पर टिक कर बैठने की आवश्यकता होती है।जब दत्तात्रेयजी ने देखा कि बाण बना रहे व्यक्ति के पास से ही राजा की सवारी भी निकल गयी और उस कारीगर को इस बात का तनिक से भी आभास नहीं हुआ, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। बुद्धि का उपयोग कर इस घटना का सार जब उनको मिला तो उस बाण बनाने वाले कारीगर को भी उन्होंने अपना गुरु मान लिया।
दत्तात्रेयजी कहते हैं कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य तथा अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर उसे अपने लक्ष्य में लगा देना चाहिए। जैसे बाण बनाने वाला अपने अभ्यास और तन्मयता से उच्च कोटि के बाण का निर्माण कर लेता है।
इस संसार में सारा खेल मन का ही है।"मनः एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो" अर्थात मनुष्य के बंधन का कारण उसका मन है और मन ही उसके लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है। मोक्ष का मार्ग खोलने के लिए मन का उपयोग कैसे किया जाता है, बाण बनाने वाले से सीखा जा सकता है।आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य धारण करें और अभ्यास करते हुए मन को वश में करें। फिर मन को जीवन के एक मात्र लक्ष्य, परमात्मा की ओर लगा दें।जब मन परमात्मा में स्थिर हो जाता है तो फिर कर्मवासना भी जाती रहती है।इस प्रकार जिस का चित्त अपनी आत्मा में स्थिर हो जाता है, उसे फिर बाहर भीतर किसी भी बात का ज्ञान नहीं रहता।
बाण बनाने वाले का चित्त भी स्थिर था, तभी तो उसको पास से गुज़र गई राजा की सवारी का भान तक नहीं हुआ।एक ही स्थान पर शरीर को स्थिर रखते हुए, मन को केवल बाण बनाने के लक्ष्य पर स्थिर करते हुए ही उत्कृष्ट श्रेणी का बाण बनाया जा सकता था। एक निपुण कारीगर की यही पहचान होती है कि वह अपना कार्य कितनी तन्मयता और मन तथा शरीर को स्थिर रखकर करता है। यही आधार आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।दत्तात्रेयजी ने यह सीख बाण बनाने वाले कारीगर को बाण बनाते देखकर ही ली है, इसीलिए उन्होंने उसको अपना गुरु माना है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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