गुरु-21
एक परिवार के सभी सदस्य केवल एक कुमारी कन्या को घर की देखभाल के लिए छोड़कर किसी आवश्यक कार्य से बाहर गए हुए थे। कन्या विवाह योग्य थी और उसके माता पिता किसी योग्य वर की तलाश में थे। संयोग से उसी दिन उस कन्या को देखने के लिए कुछ लोग उनके घर पधारे। घर पर उस समय कुमारी के अतिरिक्त कोई अन्य के न होने के कारण उसी कन्या ने सबका आतिथ्य-सत्कार किया। अतिथियों को भोजन कराने की तैयारी करने के किये वह घर के अंदर जाकर धान कूटने लगी। उसने दोनों हाथों में चूड़ियाँ पहन रखी थी, जो धान कूटते समय तेज आवाज़ कर रही थी।उसे अनुभव हुआ कि तेज़ आवाज़ से अतिथियों को पता लग जायेगा कि वह भीतर धान कूट रही है। उस समय स्वयं के द्वारा धान कूटा जाना निर्धनता का प्रतीक माना जाता था। धान कूटने की आवाज़ कहीं अतिथियों तक नहीं पहुंच जाए इसलिए उसने प्रत्येक कलाई में दो दो चूड़ियां रखी और शेष सभी चूड़ियाँ एक एक कर तोड़ डाली और फिर से धान कूटने लगी। परंतु यह क्या ? चूड़ियां तो फिर भी बज रही थी। अंततः उसने दोनों कलाइयों से एक एक चूड़ी और तोड़ डाली और एक एक चूड़ी ही पहने रखी। अब धान कूटने पर कोई आवाज़ नहीं हो रही थी।
दत्तात्रेयजी कहते हैं कि राजा यदु! मैं भी उस समय घूमता घामता लोगों का व्यवहार देखने उधर ही चला आया था। जब मैंने उस कुमारी कन्या का इस प्रकार चूड़ियों को तोड़ डालने का यह कृत्य देखा तो मुझे ज्ञान हुआ कि जब बहुत सारे लोग एक साथ रहते हैं तब आपस में बहुत कलह होती है।दो लोग भी साथ रहते हैं तो भी कुछ न कुछ बातचीत तो चलती ही रहती है। अतः परमात्मा के ध्यान के लिए सबसे अच्छा है कि उस कुमारी कन्या के हाथ में एक एक रह गई चूड़ियों की तरह अकेले ही रहा जाए।
राजस्थान में इससे मिलती जुलती एक बात कही जाती है -
एक का भजन, दो की पढ़ाई।
तीन की गप्प, चार की लड़ाई।।
कहने का अर्थ है कि अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को किसी के साथ की इच्छा नहीं रखनी चाहिये। किसी अन्य का साथ होना इस मार्ग की प्रगति में बाधक है। परमात्मा की ओर जाने वाले व्यक्ति को अकेले ही चलना पड़ता है। फिर अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। फिर परमात्मा के अतिरिक्त कोई शेष नहीं रहता, "मैं" भी नहीं।एक से अधिक का साथ रहने पर ऐसा हो पाना सदैव के लिए असंभव ही बना रहेगा।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
एक परिवार के सभी सदस्य केवल एक कुमारी कन्या को घर की देखभाल के लिए छोड़कर किसी आवश्यक कार्य से बाहर गए हुए थे। कन्या विवाह योग्य थी और उसके माता पिता किसी योग्य वर की तलाश में थे। संयोग से उसी दिन उस कन्या को देखने के लिए कुछ लोग उनके घर पधारे। घर पर उस समय कुमारी के अतिरिक्त कोई अन्य के न होने के कारण उसी कन्या ने सबका आतिथ्य-सत्कार किया। अतिथियों को भोजन कराने की तैयारी करने के किये वह घर के अंदर जाकर धान कूटने लगी। उसने दोनों हाथों में चूड़ियाँ पहन रखी थी, जो धान कूटते समय तेज आवाज़ कर रही थी।उसे अनुभव हुआ कि तेज़ आवाज़ से अतिथियों को पता लग जायेगा कि वह भीतर धान कूट रही है। उस समय स्वयं के द्वारा धान कूटा जाना निर्धनता का प्रतीक माना जाता था। धान कूटने की आवाज़ कहीं अतिथियों तक नहीं पहुंच जाए इसलिए उसने प्रत्येक कलाई में दो दो चूड़ियां रखी और शेष सभी चूड़ियाँ एक एक कर तोड़ डाली और फिर से धान कूटने लगी। परंतु यह क्या ? चूड़ियां तो फिर भी बज रही थी। अंततः उसने दोनों कलाइयों से एक एक चूड़ी और तोड़ डाली और एक एक चूड़ी ही पहने रखी। अब धान कूटने पर कोई आवाज़ नहीं हो रही थी।
दत्तात्रेयजी कहते हैं कि राजा यदु! मैं भी उस समय घूमता घामता लोगों का व्यवहार देखने उधर ही चला आया था। जब मैंने उस कुमारी कन्या का इस प्रकार चूड़ियों को तोड़ डालने का यह कृत्य देखा तो मुझे ज्ञान हुआ कि जब बहुत सारे लोग एक साथ रहते हैं तब आपस में बहुत कलह होती है।दो लोग भी साथ रहते हैं तो भी कुछ न कुछ बातचीत तो चलती ही रहती है। अतः परमात्मा के ध्यान के लिए सबसे अच्छा है कि उस कुमारी कन्या के हाथ में एक एक रह गई चूड़ियों की तरह अकेले ही रहा जाए।
राजस्थान में इससे मिलती जुलती एक बात कही जाती है -
एक का भजन, दो की पढ़ाई।
तीन की गप्प, चार की लड़ाई।।
कहने का अर्थ है कि अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को किसी के साथ की इच्छा नहीं रखनी चाहिये। किसी अन्य का साथ होना इस मार्ग की प्रगति में बाधक है। परमात्मा की ओर जाने वाले व्यक्ति को अकेले ही चलना पड़ता है। फिर अकेलेपन को एकांत में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। फिर परमात्मा के अतिरिक्त कोई शेष नहीं रहता, "मैं" भी नहीं।एक से अधिक का साथ रहने पर ऐसा हो पाना सदैव के लिए असंभव ही बना रहेगा।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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