गुरु-26
हम विषयासक्त क्यों हो जाते हैं?इसका एक ही कारण है, हम अपने आपको आत्मा न मानकर शरीर मानने लगते हैं। हमारी इंद्रियां ही इसके लिए उत्तरदायी हैं।जैसे बहुपत्नियाँ रखने वाले व्यक्ति को प्रत्येक पत्नी अपनी ओर खींचती है, वैसे ही भोगों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक इंद्रिय मनुष्य को अपनी ओर खिंचती है।यह तो व्यक्ति की बुद्धि और विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस ओर जाए अथवा सभी को नकार दे।
इन्द्रीयजनित भोगों को नकारने की क्षमता केवल मनुष्य के पास है। परमात्मा ने मनुष्य से पहले भी अनेकों प्रजातियों के प्राणी बनाये हैं। वे केवल भोग ही भोगते रहते हैं, भोगों को नकारने की क्षमता उनके पास नहीं है।अंततः परमात्मा को बुद्धि देकर मनुष्य को बनाना पड़ा। अगर मनुष्य को नहीं बनाता तो वह अपने स्वरूप को देखने से भी वंचित हो जाता। केवल मनुष्य के पास ही इतनी बुद्धि है कि उससे ब्रह्म का साक्षात्कार तक कर सकता है। इस मनुष्य शरीर की रचना कर वे अत्यधिक आनंदित हुए।
वैसे यह शरीर मरणधर्मा है,अनित्य है।मृत्यु इसका सदैव पीछा करती रहती है।फिर भी इससे परम पुरुषार्थ अर्थात मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।"बहुनाजन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते......।" बहुत से जन्मों के अंत में यह मनुष्य शरीर मिला है। इस अवसर को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए।बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मृत्यु आने से पहले ही वह मोक्ष को उपलब्ध होने के लिए प्रयत्न कर ले क्योंकि मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य है, विभिन्न शरीरों से मुक्त होकर परमात्मा तक पहुंचा जाए।विषय भोग तो हम पहले ही विभिन्न योनियों में भोगते भोगते आए हैं।
दत्तात्रेय भगवान कहते हैं कि "राजन् ! ऐसा सोचकर मुझे भी वैराग्य हो गया। मेरे भीतर ज्ञान-विज्ञान की ज्योति सदैव जगमगाती रहती है।अब मुझमें न तो विषयों और शरीर के प्रति आसक्ति है और न ही अहंकार। इसीलिए मैं निर्भय होकर इस धरा पर स्वच्छन्द होकर विचरण कर रहा हूँ।"
अकेले गुरु ही आपको ज्ञान नहीं दे सकते, इसके लिए आवश्यक है कि अपनी बुद्धि से भी हम कुछ सोचें समझें।इस प्रकार कह कर दत्तात्रेयजी ने शरीर और अपने 24 गुरुओं की गाथा राजा यदु को कह सुनाई।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
हम विषयासक्त क्यों हो जाते हैं?इसका एक ही कारण है, हम अपने आपको आत्मा न मानकर शरीर मानने लगते हैं। हमारी इंद्रियां ही इसके लिए उत्तरदायी हैं।जैसे बहुपत्नियाँ रखने वाले व्यक्ति को प्रत्येक पत्नी अपनी ओर खींचती है, वैसे ही भोगों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक इंद्रिय मनुष्य को अपनी ओर खिंचती है।यह तो व्यक्ति की बुद्धि और विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस ओर जाए अथवा सभी को नकार दे।
इन्द्रीयजनित भोगों को नकारने की क्षमता केवल मनुष्य के पास है। परमात्मा ने मनुष्य से पहले भी अनेकों प्रजातियों के प्राणी बनाये हैं। वे केवल भोग ही भोगते रहते हैं, भोगों को नकारने की क्षमता उनके पास नहीं है।अंततः परमात्मा को बुद्धि देकर मनुष्य को बनाना पड़ा। अगर मनुष्य को नहीं बनाता तो वह अपने स्वरूप को देखने से भी वंचित हो जाता। केवल मनुष्य के पास ही इतनी बुद्धि है कि उससे ब्रह्म का साक्षात्कार तक कर सकता है। इस मनुष्य शरीर की रचना कर वे अत्यधिक आनंदित हुए।
वैसे यह शरीर मरणधर्मा है,अनित्य है।मृत्यु इसका सदैव पीछा करती रहती है।फिर भी इससे परम पुरुषार्थ अर्थात मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।"बहुनाजन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते......।" बहुत से जन्मों के अंत में यह मनुष्य शरीर मिला है। इस अवसर को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए।बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मृत्यु आने से पहले ही वह मोक्ष को उपलब्ध होने के लिए प्रयत्न कर ले क्योंकि मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य है, विभिन्न शरीरों से मुक्त होकर परमात्मा तक पहुंचा जाए।विषय भोग तो हम पहले ही विभिन्न योनियों में भोगते भोगते आए हैं।
दत्तात्रेय भगवान कहते हैं कि "राजन् ! ऐसा सोचकर मुझे भी वैराग्य हो गया। मेरे भीतर ज्ञान-विज्ञान की ज्योति सदैव जगमगाती रहती है।अब मुझमें न तो विषयों और शरीर के प्रति आसक्ति है और न ही अहंकार। इसीलिए मैं निर्भय होकर इस धरा पर स्वच्छन्द होकर विचरण कर रहा हूँ।"
अकेले गुरु ही आपको ज्ञान नहीं दे सकते, इसके लिए आवश्यक है कि अपनी बुद्धि से भी हम कुछ सोचें समझें।इस प्रकार कह कर दत्तात्रेयजी ने शरीर और अपने 24 गुरुओं की गाथा राजा यदु को कह सुनाई।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
ReplyDeleteजय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।
सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
ReplyDeleteजय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।