गुरु-1
गुरुपूर्णिमा के अवसर पर जब गुरु की बात चल ही पड़ी है तो इसी बात को आगे लिए चलते हैं।श्री मद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध में राजा यदु और दत्तात्रेय का संवाद है।जिसमें राजा यदु दत्तात्रेय से पूछते हैं -
त्वं हि न: पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम्।
व्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवालात्मन:।।11/7/30।।
हे ब्रह्मन्! आप पुत्र,स्त्री,धन आदि संसार के स्पर्श से रहित हैं।आप सदा-सर्वदा अपने स्वरूप में ही स्थित रहते हैं।हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिवर्चनीय आनंद का अनुभव कैसे होता है?आप कृपा करके अवश्य बतलाइये।
इस श्लोक में राजा यदु का प्रश्न आत्मा में अनुभव किये जाने वाले आनंद के संबंध में है। व्यक्ति जब स्वयं अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है, तभी उसे जीवन के सच्चे आनंद का अनुभव हो पाता है। व्यक्ति, साधन, प्राणी अथवा कोई भी स्रोत जो हमारी संसार की ओर लगी रहने वाली दृष्टि को हमारे भीतर की तरफ मोड़कर हमें अपनी आत्मा का ज्ञान करा दे, तो हमारे जीवन में ऐसे साधन की महत्ता सर्वाधिक होगी। आत्म-ज्ञान करा देने वाले साधन को ही गुरु कहा जाता है, चाहे वह साधन कोई व्यक्ति हो अथवा अन्य।
राजा यदु के प्रश्न के उत्तर में दत्तात्रेय जी कहते हैं कि-
सन्ति मे गुरवो राजन् बहवो बुद्ध्युपाश्रिताः।
यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोsटामीह ताञ्छृणु।।11/7/32।।
राजन्! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके ही मैं इस जगत में स्वच्छंद विचरण करता हूँ।तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो।
अपनी बुद्धि को विवेक में परिवर्तित कर किसी भी साधन से सीख ले लेने वाला व्यक्ति ही सही मायने में शिष्य कहलाने का अधिकारी होता है।हम अपने जीवन में बार-बार गुरु बदलते रहते हैं परंतु अपने भीतर झांक कर कभी भी देखने का प्रयास तक नहीं करते हैं कि ज्ञान प्राप्त न होने में कहीं स्वयं में तो कमी नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करना आवश्यक होता है अन्यथा पहुंचा हुआ गुरु भी हमें थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं करा सकता। अतः गुरु के साथ साथ स्वयं को भी सक्रिय रहना होगा अन्यथा ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग में जरा सी भी प्रगति होना दूर की कौड़ी होगी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
गुरुपूर्णिमा के अवसर पर जब गुरु की बात चल ही पड़ी है तो इसी बात को आगे लिए चलते हैं।श्री मद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध में राजा यदु और दत्तात्रेय का संवाद है।जिसमें राजा यदु दत्तात्रेय से पूछते हैं -
त्वं हि न: पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम्।
व्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवालात्मन:।।11/7/30।।
हे ब्रह्मन्! आप पुत्र,स्त्री,धन आदि संसार के स्पर्श से रहित हैं।आप सदा-सर्वदा अपने स्वरूप में ही स्थित रहते हैं।हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिवर्चनीय आनंद का अनुभव कैसे होता है?आप कृपा करके अवश्य बतलाइये।
इस श्लोक में राजा यदु का प्रश्न आत्मा में अनुभव किये जाने वाले आनंद के संबंध में है। व्यक्ति जब स्वयं अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है, तभी उसे जीवन के सच्चे आनंद का अनुभव हो पाता है। व्यक्ति, साधन, प्राणी अथवा कोई भी स्रोत जो हमारी संसार की ओर लगी रहने वाली दृष्टि को हमारे भीतर की तरफ मोड़कर हमें अपनी आत्मा का ज्ञान करा दे, तो हमारे जीवन में ऐसे साधन की महत्ता सर्वाधिक होगी। आत्म-ज्ञान करा देने वाले साधन को ही गुरु कहा जाता है, चाहे वह साधन कोई व्यक्ति हो अथवा अन्य।
राजा यदु के प्रश्न के उत्तर में दत्तात्रेय जी कहते हैं कि-
सन्ति मे गुरवो राजन् बहवो बुद्ध्युपाश्रिताः।
यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोsटामीह ताञ्छृणु।।11/7/32।।
राजन्! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके ही मैं इस जगत में स्वच्छंद विचरण करता हूँ।तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो।
अपनी बुद्धि को विवेक में परिवर्तित कर किसी भी साधन से सीख ले लेने वाला व्यक्ति ही सही मायने में शिष्य कहलाने का अधिकारी होता है।हम अपने जीवन में बार-बार गुरु बदलते रहते हैं परंतु अपने भीतर झांक कर कभी भी देखने का प्रयास तक नहीं करते हैं कि ज्ञान प्राप्त न होने में कहीं स्वयं में तो कमी नहीं है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करना आवश्यक होता है अन्यथा पहुंचा हुआ गुरु भी हमें थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं करा सकता। अतः गुरु के साथ साथ स्वयं को भी सक्रिय रहना होगा अन्यथा ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग में जरा सी भी प्रगति होना दूर की कौड़ी होगी।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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