गुरु-5
इस प्रकार भीतर की वायु से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हम विषयों की ओर आवश्यकता से अधिक आसक्त न हो।जीवन में हमें उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिए जिससे हमारे प्राण संचालित रहे तथा हमारी बुद्धि विकृत न हो, मन भी चंचल न हो और वाणी से हम व्यर्थ की बातों में भी न लगें।
दूसरी प्रकार की वायु है, हमारे शरीर के बाहर की वायु, जो हमारे आसपास के वातावरण का ही एक भाग है। इस वायु को सदैव चारों ओर विचरण करना होता है, वह एक स्थान से दूसरे स्थान को आती जाती रहती है फिर भी वह किसी भी स्थान के गुण-दोष को आत्मसात नहीं करती, उन्हें अपनाती नहीं है और न ही उनमें आसक्त होती है।इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने वातावरण से प्रभावित नहीं होना चाहिए।मनुष्य वायु की तरह कहीं पर भी जाय परंतु वहां के गुण दोष न अपनाए बल्कि अपनी दृष्टि केवल अपने लक्ष्य पर रखे।वायु गंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है फिर भी वह इस गुण को आत्मसात नहीं करती। गंध पृथ्वी का गुण है,वायु को तो गंध को वहन करना पड़ता है । वहन करने के बाद भी उसका गंध से नाममात्र का भी संपर्क नहीं होता है। वायु सदैव शुद्ध की शुद्ध ही बनी रहती है। ऐसा ही मनुष्य के साथ भी होना चाहिए। मनुष्य को शरीर की आवश्यकता होती है, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होने के लिए। शरीर है तो उसे आधि-व्याधि आदि का सामना भी करना पड़ेगा, उसे शारीरिक बीमारियों को वायु की तरह गंध को भी वहन करना होगा। ऐसे में सदैव एक ही बात बुद्धि में रहनी चाहिए कि यह सब शरीर के गुण-दोष हैं, आत्मा के नहीं। मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ।अतः यह सब आधि-व्याधि आदि शरीर को तो प्रभावित कर सकती है, परंतु मुझ आत्मा को नहीं। कहने का अर्थ है कि शरीर संसार का ही एक भाग है और हमें इस संसार में रहते हुए इसके गुण-दोष नहीं अपनाने है, संसार में आसक्त नहीं होना है।स्वयं को शरीर न मानकर आत्मा मानते हुए शारीरिक गुण-दोष को आने जाने वाले मानकर विचलित नहीं होना है।इस कारण से ही दत्तात्रेयजी ने वायु से शिक्षा ग्रहण कर उसे अपना गुरु माना है।
दत्तात्रेयजी का तीसरा गुरु है, आकाश। आकाश कहाँ नहीं है? आकाश सर्वत्र व्याप्त है।हम किसी भी वस्तुविहीन बर्तन को देखकर कह देते हैं कि वह रीता है परंतु क्या उसको रिक्त कहना उपयुक्त है?नहीं, वह बर्तन रीता है ही नहीं। वास्तव में हमारी दृष्टि उस बर्तन में वस्तु की उपस्थिति देखने की आदी हो गई है। उस रिक्त से दिखने वाले बर्तन में वस्तुविहीन होने के बाद में भी आकाश भरा पड़ा है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि आकाश सर्वत्र उपस्थित है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
इस प्रकार भीतर की वायु से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हम विषयों की ओर आवश्यकता से अधिक आसक्त न हो।जीवन में हमें उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिए जिससे हमारे प्राण संचालित रहे तथा हमारी बुद्धि विकृत न हो, मन भी चंचल न हो और वाणी से हम व्यर्थ की बातों में भी न लगें।
दूसरी प्रकार की वायु है, हमारे शरीर के बाहर की वायु, जो हमारे आसपास के वातावरण का ही एक भाग है। इस वायु को सदैव चारों ओर विचरण करना होता है, वह एक स्थान से दूसरे स्थान को आती जाती रहती है फिर भी वह किसी भी स्थान के गुण-दोष को आत्मसात नहीं करती, उन्हें अपनाती नहीं है और न ही उनमें आसक्त होती है।इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने वातावरण से प्रभावित नहीं होना चाहिए।मनुष्य वायु की तरह कहीं पर भी जाय परंतु वहां के गुण दोष न अपनाए बल्कि अपनी दृष्टि केवल अपने लक्ष्य पर रखे।वायु गंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है फिर भी वह इस गुण को आत्मसात नहीं करती। गंध पृथ्वी का गुण है,वायु को तो गंध को वहन करना पड़ता है । वहन करने के बाद भी उसका गंध से नाममात्र का भी संपर्क नहीं होता है। वायु सदैव शुद्ध की शुद्ध ही बनी रहती है। ऐसा ही मनुष्य के साथ भी होना चाहिए। मनुष्य को शरीर की आवश्यकता होती है, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होने के लिए। शरीर है तो उसे आधि-व्याधि आदि का सामना भी करना पड़ेगा, उसे शारीरिक बीमारियों को वायु की तरह गंध को भी वहन करना होगा। ऐसे में सदैव एक ही बात बुद्धि में रहनी चाहिए कि यह सब शरीर के गुण-दोष हैं, आत्मा के नहीं। मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ।अतः यह सब आधि-व्याधि आदि शरीर को तो प्रभावित कर सकती है, परंतु मुझ आत्मा को नहीं। कहने का अर्थ है कि शरीर संसार का ही एक भाग है और हमें इस संसार में रहते हुए इसके गुण-दोष नहीं अपनाने है, संसार में आसक्त नहीं होना है।स्वयं को शरीर न मानकर आत्मा मानते हुए शारीरिक गुण-दोष को आने जाने वाले मानकर विचलित नहीं होना है।इस कारण से ही दत्तात्रेयजी ने वायु से शिक्षा ग्रहण कर उसे अपना गुरु माना है।
दत्तात्रेयजी का तीसरा गुरु है, आकाश। आकाश कहाँ नहीं है? आकाश सर्वत्र व्याप्त है।हम किसी भी वस्तुविहीन बर्तन को देखकर कह देते हैं कि वह रीता है परंतु क्या उसको रिक्त कहना उपयुक्त है?नहीं, वह बर्तन रीता है ही नहीं। वास्तव में हमारी दृष्टि उस बर्तन में वस्तु की उपस्थिति देखने की आदी हो गई है। उस रिक्त से दिखने वाले बर्तन में वस्तुविहीन होने के बाद में भी आकाश भरा पड़ा है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि आकाश सर्वत्र उपस्थित है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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