गुरु-11
कबूतर से अतिमहत्वपूर्ण सीख लेकर अब चलते हैं, अजगर की ओर, जिसे दत्तात्रेयजी ने अपना नवाँ गुरु माना है।अजगर के बारे में मलूकदास जी ने कहा है-
अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
अजगर के पास देह का बल भी होता है,फिर भी वह उदरपूर्ति के लिए कहीं भी बाहर नहीं जाता। प्रारब्धवश जो कोई भी उसकी पकड़ में आ जाता है, उसी को अपना निवाला बना लेता है। उसे देवयोग से जो कुछ भी मिल जाता है उसी में संतुष्ट रहता है।वह महीनों ही भूखा पड़ा रहा सकता है,फिर भी निश्चेष्ट होकर एक खोह में दुबका रहता है।सभी पूर्वजन्म के कर्मों का फल है। इसी प्रकार मनुष्य भी पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार वर्तमान जीवन में सुख दुःख को प्राप्त होता है।जो व्यक्ति सुख दुःख प्राप्त होने के रहस्य को जान जाता है, वह फिर इनको प्राप्त करने के लिए अपने स्तर पर कोई चेष्टा नहीं करता। कर्म-रहस्य को समझना ही शांति को प्राप्त करने का मूलमंत्र है।अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि बिना कुछ मांगे, बिना किसी कामना और व्यर्थ के प्रयास से जो कुछ भी प्राप्त हो जाये उसको पाकर संतुष्ट रहे। संतोष ही शांतिपूर्वक जीवन का आधार है।
मनुष्य के पास देहबल, मनोबल और इन्द्रीयबल, तीनों बल होते हैं, वह अपनी कामना को पूरा करने के लिए बहुत अधिक सीमा तक प्रयास भी कर सकता है। परंतु उसका यह प्रयास फिर से नए कर्मों के प्रारब्ध का निर्माण करेगा और फिर वह इस मानव जीवन को भी व्यर्थ ही गंवा देगा। इस प्रकार उसे कभी भी मुक्त होने का अवसर नहीं मिल पायेगा।
कर्म करेंगे तो फल भी मिलेगा और प्रारब्ध भी बनेगा। मनुष्य में सभी कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय रहती है फिर भी जीवन में सुख पाने की आशा करते हुए वह व्यर्थ की चेष्टाओं में रत हो जाता है। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि मैंने अजगर से यही सीख ली है कि व्यक्ति को प्रारब्धवश जो भी मिले उसमें संतुष्ट हो जाना चाहिए तथा और अधिक पाने की आशा में व्यर्थ के कर्म करने के प्रयास नहीं करने चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
कबूतर से अतिमहत्वपूर्ण सीख लेकर अब चलते हैं, अजगर की ओर, जिसे दत्तात्रेयजी ने अपना नवाँ गुरु माना है।अजगर के बारे में मलूकदास जी ने कहा है-
अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
अजगर के पास देह का बल भी होता है,फिर भी वह उदरपूर्ति के लिए कहीं भी बाहर नहीं जाता। प्रारब्धवश जो कोई भी उसकी पकड़ में आ जाता है, उसी को अपना निवाला बना लेता है। उसे देवयोग से जो कुछ भी मिल जाता है उसी में संतुष्ट रहता है।वह महीनों ही भूखा पड़ा रहा सकता है,फिर भी निश्चेष्ट होकर एक खोह में दुबका रहता है।सभी पूर्वजन्म के कर्मों का फल है। इसी प्रकार मनुष्य भी पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार वर्तमान जीवन में सुख दुःख को प्राप्त होता है।जो व्यक्ति सुख दुःख प्राप्त होने के रहस्य को जान जाता है, वह फिर इनको प्राप्त करने के लिए अपने स्तर पर कोई चेष्टा नहीं करता। कर्म-रहस्य को समझना ही शांति को प्राप्त करने का मूलमंत्र है।अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि बिना कुछ मांगे, बिना किसी कामना और व्यर्थ के प्रयास से जो कुछ भी प्राप्त हो जाये उसको पाकर संतुष्ट रहे। संतोष ही शांतिपूर्वक जीवन का आधार है।
मनुष्य के पास देहबल, मनोबल और इन्द्रीयबल, तीनों बल होते हैं, वह अपनी कामना को पूरा करने के लिए बहुत अधिक सीमा तक प्रयास भी कर सकता है। परंतु उसका यह प्रयास फिर से नए कर्मों के प्रारब्ध का निर्माण करेगा और फिर वह इस मानव जीवन को भी व्यर्थ ही गंवा देगा। इस प्रकार उसे कभी भी मुक्त होने का अवसर नहीं मिल पायेगा।
कर्म करेंगे तो फल भी मिलेगा और प्रारब्ध भी बनेगा। मनुष्य में सभी कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय रहती है फिर भी जीवन में सुख पाने की आशा करते हुए वह व्यर्थ की चेष्टाओं में रत हो जाता है। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि मैंने अजगर से यही सीख ली है कि व्यक्ति को प्रारब्धवश जो भी मिले उसमें संतुष्ट हो जाना चाहिए तथा और अधिक पाने की आशा में व्यर्थ के कर्म करने के प्रयास नहीं करने चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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