गुरु-4
दत्तात्रेयजी ने कह तो दिया कि मैंने पृथ्वी से धैर्य रखने और क्षमा करने की शिक्षा प्राप्त की है परंतु धैर्य और क्षमा को जीवन में किस प्रकार उतारा जा सकता है,यह नहीं बतलाया । हमारा कोई भी व्यक्ति कुछ भी उपयोग करते हुए हमारे साथ उचित अनुचित व्यवहार करता है, तो हमें अपने विवेक का उपयोग करते हुए उसकी विवशता को समझना होगा।कोई भी व्यक्ति किसी के साथ तब तक अनुचित व्यवहार नहीं कर सकता जब तक कि उससे उसका कोई न कोई हित सधता हो। स्वयं के हित के लिए ही वह आपका उपयोग करता है।ऐसे में हमारे में धैर्य की क्षमता तभी आ सकती है, जब हम सामने वाले की विवशता को समझे और साथ ही साथ इस बात को भी समझे कि यह शरीर हमें परहित के लिए ही मिला है,इससे जिसको भी कोई लाभ मिले उसके लिए इसका उपयोग हो जाना ही सबसे अच्छा है। सामने वाले की विवशता और हमारे शरीर का परहित के लिए होना, इन दो बातों को हम अपने विवेक से भली भांति समझ लें तो फिर धैर्य और क्षमा हमारे भीतर स्वतः ही पैदा हो जाएंगे।धैर्य रखने और क्षमा करने की क्षमता हमारी ही बुद्धि के अधीन है और हम उसका उपयोग करके ही इन दोनों क्षमताओं को स्वयं में विकसित कर सकते हैं।इस प्रकार दत्तात्रेयजी द्वारा पृथ्वी को अपना प्रथम गुरु मान लेना उचित है।
अब चलते हैं, दत्तात्रेयजी के दूसरे गुरु की ओर। उनका दूसरा गुरु है, वायु। शरीर निर्माण और उसके संचालन में काम आने वाले पांच तत्वों में से एक तत्व है, वायु।वायु दो प्रकार की होती है, एक शरीर के भीतर की वायु, जिस पर हमारे प्राण टिके हुए हैं और दूसरी शरीर के बाहर की वायु।शरीर के अंदर की वायु मुख्यतः प्राण कहलाती है, जिसके शरीर में आवागमन करते रहने से शरीर सक्रिय बना रहता है अन्यथा उसके रूक जाने से शरीर भी निष्क्रिय होकर अर्थहीन हो जाता है। वैसे भीतर की वायु पांच प्रकार की होती है-प्राण,अपान,समान,उदान और व्यान। पांचों वायु अर्थात प्राण शरीर के विभिन्न अंगों को सुचारू रूप से संचालित करते हैं।भीतर की वायु के संचरण होते रहने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है और यह ऊर्जा मिलती है, भोजन से। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि भीतर की वायु से मैंने यह सीखा है कि जितने आहार से हमारे प्राण भली भांति संचरित होते रहें, हमें उतनी ही मात्रा में भोजन ग्रहण करना चाहिए।प्रायः हम अपनी स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने के लिए आहार ग्रहण करने की सीमा का भी अतिक्रमण कर जाते हैं जिससे इंद्रियों की विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है, उनको प्राप्त करने के लिए मन चंचल हो उठता है और अंततः विफल रहने पर हम अपनी वाणी पर भी नियंत्रण तक खो बैठते हैं।इस प्रकार हमारी बुद्धि विकृत हो जाती है और हम पतन के मार्ग की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
दत्तात्रेयजी ने कह तो दिया कि मैंने पृथ्वी से धैर्य रखने और क्षमा करने की शिक्षा प्राप्त की है परंतु धैर्य और क्षमा को जीवन में किस प्रकार उतारा जा सकता है,यह नहीं बतलाया । हमारा कोई भी व्यक्ति कुछ भी उपयोग करते हुए हमारे साथ उचित अनुचित व्यवहार करता है, तो हमें अपने विवेक का उपयोग करते हुए उसकी विवशता को समझना होगा।कोई भी व्यक्ति किसी के साथ तब तक अनुचित व्यवहार नहीं कर सकता जब तक कि उससे उसका कोई न कोई हित सधता हो। स्वयं के हित के लिए ही वह आपका उपयोग करता है।ऐसे में हमारे में धैर्य की क्षमता तभी आ सकती है, जब हम सामने वाले की विवशता को समझे और साथ ही साथ इस बात को भी समझे कि यह शरीर हमें परहित के लिए ही मिला है,इससे जिसको भी कोई लाभ मिले उसके लिए इसका उपयोग हो जाना ही सबसे अच्छा है। सामने वाले की विवशता और हमारे शरीर का परहित के लिए होना, इन दो बातों को हम अपने विवेक से भली भांति समझ लें तो फिर धैर्य और क्षमा हमारे भीतर स्वतः ही पैदा हो जाएंगे।धैर्य रखने और क्षमा करने की क्षमता हमारी ही बुद्धि के अधीन है और हम उसका उपयोग करके ही इन दोनों क्षमताओं को स्वयं में विकसित कर सकते हैं।इस प्रकार दत्तात्रेयजी द्वारा पृथ्वी को अपना प्रथम गुरु मान लेना उचित है।
अब चलते हैं, दत्तात्रेयजी के दूसरे गुरु की ओर। उनका दूसरा गुरु है, वायु। शरीर निर्माण और उसके संचालन में काम आने वाले पांच तत्वों में से एक तत्व है, वायु।वायु दो प्रकार की होती है, एक शरीर के भीतर की वायु, जिस पर हमारे प्राण टिके हुए हैं और दूसरी शरीर के बाहर की वायु।शरीर के अंदर की वायु मुख्यतः प्राण कहलाती है, जिसके शरीर में आवागमन करते रहने से शरीर सक्रिय बना रहता है अन्यथा उसके रूक जाने से शरीर भी निष्क्रिय होकर अर्थहीन हो जाता है। वैसे भीतर की वायु पांच प्रकार की होती है-प्राण,अपान,समान,उदान और व्यान। पांचों वायु अर्थात प्राण शरीर के विभिन्न अंगों को सुचारू रूप से संचालित करते हैं।भीतर की वायु के संचरण होते रहने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है और यह ऊर्जा मिलती है, भोजन से। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि भीतर की वायु से मैंने यह सीखा है कि जितने आहार से हमारे प्राण भली भांति संचरित होते रहें, हमें उतनी ही मात्रा में भोजन ग्रहण करना चाहिए।प्रायः हम अपनी स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने के लिए आहार ग्रहण करने की सीमा का भी अतिक्रमण कर जाते हैं जिससे इंद्रियों की विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है, उनको प्राप्त करने के लिए मन चंचल हो उठता है और अंततः विफल रहने पर हम अपनी वाणी पर भी नियंत्रण तक खो बैठते हैं।इस प्रकार हमारी बुद्धि विकृत हो जाती है और हम पतन के मार्ग की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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