Sunday, September 22, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-2

उद्धव-कृष्ण संवाद-2
          श्री कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानार्जन के लिए गए थे तब रह रहकर उन्हें व्रज की याद सताती थी | वहां यही उद्धव उनका मित्र था जो सदैव रीति-नीति, निर्गुण ब्रह्म और योग की बात करता रहता था | तब श्री कृष्ण को चिंता हुई कि यह संसार केवल मात्र विरक्ति युक्त निर्गुण ब्रह्म से तो चलेगा नहीं, इसके लिए तो विरह और प्रेम की आवश्यकता है | उद्धव से वे उकताने लगे थे जो सदैव कहता रहता था कि कौन माता, कौन पिता, कौन सखा, कौन बन्धु ? इसीलिए प्रेम और विरह का ज्ञान कराने के लिए ही श्री कृष्ण ने सन्देश देकर उद्धव को वृन्दावन भेजा था | ऐसा नहीं है कि श्री कृष्ण को ज्ञान नहीं था कि उद्धव के साथ कैसा व्यवहार होगा? सब पता था कृष्ण को परन्तु वे अपने मित्र को उस प्रेम और विरह से परिचित करना चाहते थे जो समस्त ज्ञान के ऊपर है | इस प्रकार सूरदासजी ने अपने ‘भ्रमर-गीत’ में इसका वर्णन बड़े ही सुन्दर रूप से किये है |
 उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै,किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो,
हम जो कहति हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत,
धुन देखियत नहिं नीकी।
          भ्रमर-गीत के बारे में विस्तार से चर्चा फिर कभी, अभी तो हम उद्धव के साथ श्री कृष्ण के पास लौट चलते हैं |
                  वृन्दावन से सब प्रकार से हतोत्साहित होकर उद्धवजी को आखिर लौटना ही पड़ा | वे समझ नहीं पा रहे थे कि मेरा ज्ञान, साधारण सी दिखने वाली गोपिकाओं के सामने आकर, आखिर असफल क्यों हो गया ?  वृन्दावन से उद्धव बड़े उद्विग्न होकर लौटे और साथ ही कई प्रश्न उनके साथ वहाँ से आये जिनका बोझ उद्धव से उठाये नहीं जा रहा था | वे सीधे कृष्ण के पास उनके विश्राम गृह में गए और उनके चरणों के पास बैठकर अपना सर झुका कर बैठ गए |
           कृष्ण उद्धव को देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उठाकर उद्धव को अपने सीने से लगाया | फिर अपने पास बैठाकर उनसे माता यशोदा, नन्द बाबा और अपने सभी मित्रों का कुशल क्षेम पूछा | उन्होंने उद्धव की आवाज में एक ठहराव सा पाकर उद्धव से उन सबके कुशल क्षेम की जानकारी ली |
           उद्धव उदास मन से कृष्ण से बोले, “हे कृष्णा,  तुम्हारे लिए मैंने वृंदावन के कण कण में अविरल, असीमित, निर्विकार और शाश्वत प्रेम पाया | मैंने गोपियों की वेदनाएं भी सुनी। सब के सब तुम बिन ऐसे तड़पते हैं जैसे जल बिन मछली और तुम यहाँ मुसकुराते हुए राजपाट का आनंद भोग रहे हो, राजसी कन्याओं के साथ अठखेलियाँ और क्रीडा कर रहे हो, रास कर रहे हो | तुम तो बड़े निर्मोही ठहरे, इतने निर्मम और निर्दयी कैसे बन गए तुम ?”
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

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