उद्धव-कृष्ण संवाद-4
अब आते है उद्धव-कृष्ण के मध्य हुए दूसरे संवाद पर-
द्वारिका में जब यदुवंश की समाप्ति के बाद भगवान श्री कृष्ण निज धाम को प्रस्थान करने लगे तो उद्धव ने भी उनके साथ जाने की इच्छा प्रकट की | भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि आप ‘वासु’ नामक देव के अवतार हैं और आपका यह अंतिम जन्म है | आपको अभी मेरे धाम आने के लिए कुछ प्रतिक्षा करनी होगी।तब उद्धव ने कहा कि केशव ! मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं, क्या आप निज धाम गमन करने से पूर्व उनका उत्तर देकर मुझे संतुष्ट करेंगे ? श्री कृष्ण बोले-“ उद्धव!तुम मुझे सबसे प्रिय हो, मैं तुम्हारी प्रत्येक शंका का समाधान करूँगा, पूछो |"
तब उद्धवजी ने पूछना शुरू किया-
"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है ?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, सहायता करे। मित्र को जब आवश्यकता हो, मित्र को तत्काल उसकी स्थिति समझकर सहायता करनी चाहिए |"
उद्धव को श्रीकृष्ण से इसी प्रकार के उत्तर की आशा थी।उन्होंने तत्काल ही एक के बाद एक कई प्रश्न भगवान श्री कृष्ण से कर दिए ।
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीयऔर प्रिय मित्र थे | एक भाई के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया | कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं | आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता भी हैं, किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया? आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं? चलो, ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा, जबकि ऐसा करना आपके हाथ में था | आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे | आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक ही सकते थे |
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाइयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे | आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए पांचाली को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे |अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे | यह करने के स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो चुकी थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया | लेकिन आप यह यह दावा भी भला कैसे कर सकते हैं ?द्रोपदी को एक आदमी सरेआम घसीटकर राज सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है | भला ऐसे में एक महिला का शील कहां बचा? फिर आपने द्रोपदी का क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपात-बन्धु कैसे कहा जा सकता है?बताइए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो फिर उस सहायता का क्या लाभ ?क्या यही धर्म है?"
इतने सारे प्रश्नों को एक साथ पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे|
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
अब आते है उद्धव-कृष्ण के मध्य हुए दूसरे संवाद पर-
द्वारिका में जब यदुवंश की समाप्ति के बाद भगवान श्री कृष्ण निज धाम को प्रस्थान करने लगे तो उद्धव ने भी उनके साथ जाने की इच्छा प्रकट की | भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि आप ‘वासु’ नामक देव के अवतार हैं और आपका यह अंतिम जन्म है | आपको अभी मेरे धाम आने के लिए कुछ प्रतिक्षा करनी होगी।तब उद्धव ने कहा कि केशव ! मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं, क्या आप निज धाम गमन करने से पूर्व उनका उत्तर देकर मुझे संतुष्ट करेंगे ? श्री कृष्ण बोले-“ उद्धव!तुम मुझे सबसे प्रिय हो, मैं तुम्हारी प्रत्येक शंका का समाधान करूँगा, पूछो |"
तब उद्धवजी ने पूछना शुरू किया-
"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है ?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, सहायता करे। मित्र को जब आवश्यकता हो, मित्र को तत्काल उसकी स्थिति समझकर सहायता करनी चाहिए |"
उद्धव को श्रीकृष्ण से इसी प्रकार के उत्तर की आशा थी।उन्होंने तत्काल ही एक के बाद एक कई प्रश्न भगवान श्री कृष्ण से कर दिए ।
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीयऔर प्रिय मित्र थे | एक भाई के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया | कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं | आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता भी हैं, किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया? आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं? चलो, ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा, जबकि ऐसा करना आपके हाथ में था | आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे | आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक ही सकते थे |
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाइयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे | आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए पांचाली को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे |अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे | यह करने के स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो चुकी थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया | लेकिन आप यह यह दावा भी भला कैसे कर सकते हैं ?द्रोपदी को एक आदमी सरेआम घसीटकर राज सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है | भला ऐसे में एक महिला का शील कहां बचा? फिर आपने द्रोपदी का क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपात-बन्धु कैसे कहा जा सकता है?बताइए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो फिर उस सहायता का क्या लाभ ?क्या यही धर्म है?"
इतने सारे प्रश्नों को एक साथ पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे|
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
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