उद्धव-कृष्ण संवाद-5
इतने सारे प्रश्न अकेले उद्धव के मन के नहीं हैं | महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनो-मस्तिष्क में यही सवाल उठते हैं | आप इतना समझ लीजिये कि उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए थे | इन प्रश्नों पर भगवान श्रीकृष्ण मुसकुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, मेरे द्वारा सृजित इस सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है | उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं | यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए |"
ऐसे अनपेक्षित उत्तर से उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूत-क्रीड़ा के लिए उपयोग किया |उसका यही निर्णय विवेक है | धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने ममेरे भाई अर्थात मुझसे ऐसा ही अनुरोध कर सकते थे।वे कह सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा, परन्तु उन्होंने राजसभा में तो कहना दूर, मेरे से भी आग्रह तक नहीं किया | तुम जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता? पासे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को भी जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें क्षमा किया जा सकता है | लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी भूल की और वह यह कि उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए क्योंकि वे अपने ‘दुर्भाग्य का खेल’ मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे | वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं | इस प्रकार उन्होंने अपनी एक प्रार्थना से मुझे बाँध दिया | मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति तक नहीं थी |
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब के सब मुझे भूल गए | केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे |
अपने भाई के आदेश पर जब दु:शासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया,तब द्रौपदी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही | उसने भी मुझे नहीं पुकारा | उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दु:शासन ने उसे लगभग निर्वस्त्र ही कर दिया था |
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर, “हरि, हरि ...... अभयम् कृष्णा ...अभयम्” की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा करने का अवसर मिला |उसने जैसे ही मुझे पुकारा, मैं अविलम्ब वहां पहुँच गया | अब तुम्हीं बताओ, इस स्थिति में मेरी गलती कहाँ थी?"
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
इतने सारे प्रश्न अकेले उद्धव के मन के नहीं हैं | महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनो-मस्तिष्क में यही सवाल उठते हैं | आप इतना समझ लीजिये कि उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए थे | इन प्रश्नों पर भगवान श्रीकृष्ण मुसकुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, मेरे द्वारा सृजित इस सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है | उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं | यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए |"
ऐसे अनपेक्षित उत्तर से उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूत-क्रीड़ा के लिए उपयोग किया |उसका यही निर्णय विवेक है | धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने ममेरे भाई अर्थात मुझसे ऐसा ही अनुरोध कर सकते थे।वे कह सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा, परन्तु उन्होंने राजसभा में तो कहना दूर, मेरे से भी आग्रह तक नहीं किया | तुम जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता? पासे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को भी जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें क्षमा किया जा सकता है | लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी भूल की और वह यह कि उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए क्योंकि वे अपने ‘दुर्भाग्य का खेल’ मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे | वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं | इस प्रकार उन्होंने अपनी एक प्रार्थना से मुझे बाँध दिया | मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति तक नहीं थी |
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब के सब मुझे भूल गए | केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे |
अपने भाई के आदेश पर जब दु:शासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया,तब द्रौपदी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही | उसने भी मुझे नहीं पुकारा | उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दु:शासन ने उसे लगभग निर्वस्त्र ही कर दिया था |
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर, “हरि, हरि ...... अभयम् कृष्णा ...अभयम्” की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा करने का अवसर मिला |उसने जैसे ही मुझे पुकारा, मैं अविलम्ब वहां पहुँच गया | अब तुम्हीं बताओ, इस स्थिति में मेरी गलती कहाँ थी?"
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
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