Monday, December 31, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-14

अविरल जीवन (Life is continuous)-14
         हम भौतिकता के जाल में इस स्तर तक उलझ गए हैं कि इस मनुष्य जन्म के जीवन को एक मात्र जीवन समझ रहे हैं | शरीर के समाप्त हो जाने के बाद यह जीवन भी समाप्त हो जायेगा और इस जीवन के बाद न तो नया कोई जन्म है और न ही जीवन | ऐसी  मानसिकता वाले जीवन को एक जन्म तक ही मानते हैं | इस जीवन के रूप को हम ‘साधारण जीवन’ अथवा केवल "जीवन" कह सकते हैं, जिसका प्रारम्भ एक शरीर के जन्म के साथ होता है और उस शरीर की समाप्ति के साथ अंत | ऐसी मानसिकता के लोग पुनर्जन्म में कतई विश्वास नहीं रखते हैं और एक जन्म के बाद जीवन की समाप्ति हो जाना स्वीकार करते हैं |
           दूसरी मानसिकता के व्यक्ति पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और एक शरीर के त्याग देने के बाद दूसरे शरीर में हो रहे जीवन के प्रवाह को मानते भी हैं | ऐसी मानसिकता वाले लोगों के अनुसार हम जीवन के इस रूप को ‘महाजीवन’ कह सकते हैं | महाजीवन को मानने वाले व्यक्ति यह मानते हैं कि हमारी देह की समाप्ति के बाद भी हम वही बने रहते हैं और नया शरीर प्राप्त कर जीवन की धारा को अविरल बनाये रखते हैं | शरीर की समाप्ति और नया शरीर प्राप्त करते रहने की इस श्रृंखला का कहीं अंत नहीं होता | यही कारण है कि ऐसे जीवन को साधारण जीवन न कहकर महाजीवन कहा गया है | मोक्ष की कल्पना ऐसी मानसिकता रखने वाले व्यक्तियों ने की ही नहीं है |
              मैं यह तो नहीं कह सकता कि महाजीवन ही जीवन का अविरल होना है क्योंकि इससे यह सिद्ध हो सकता है कि जब तक शरीर है तब तक जीवन है, शरीर की समाप्ति के बाद नहीं | जबकि वास्तविकता यह है कि शरीर के बाद भी जीवन रहता है और शरीर से पहले भी जीवन था | अगर शरीर के पूर्व और उत्तर में जीवन नहीं होता तो फिर इस शरीर की प्राप्ति भी कैसे होती ? शरीर तो जीवन की अभिव्यक्ति मात्र है परन्तु केवल शरीर का होना ही जीवन होना नहीं है | फिर प्रश्न उठता है कि शरीर के अभाव में जीवन कहाँ है ? आइये, आगे बढ़ते हैं, इस जीवन की वास्तविकता को जानने और उसे स्वीकार करने की दिशा में |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, December 30, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-13

अविरल जीवन (Life is continuous)-13
      इतने विवेचन के बाद यह स्पष्ट है कि परमात्मा का अस्तित्व स्वीकार करना केवल श्रद्धा और विश्वास पर आधारित है | उसके अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास करना जल में से मख्खन निकालने के समान है।जिस प्रकार गर्भावस्था में मां दिखलाई नहीं पड़ती फिर भी मां के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता उसी प्रकार भौतिक नेत्रों से न दिखलाई देने पर भी श्रद्धा और विश्वास के साथ माना जा सकता है कि परमात्मा का अस्तित्व है |
         इसी प्रकार जीवन के बारे में भी एक प्रकार की अस्पष्टता बनी हुई है | इसका कारण है कि हम शरीर की मृत्यु के बाद के जीवन को सही दृष्टि से देख ही नहीं पा रहे हैं | "जीवन" विषय पर कुछ प्रश्न आये हैं इस सम्बन्ध में, उनका निराकरण होने से ही जीवन को हम और अधिक स्पष्ट रूप से समझ पाएंगे | प्रथम प्रश्न है - जीवन निरन्तरता लिए हुए है अर्थात प्रत्येक देह परिवर्तन के साथ जीवन वही रहता है अथवा नई देह में जाकर नया जीवन मिलता है ? दूसरा प्रश्न है कि जब जीव का मोक्ष हो जाता है, तब भी क्या जीवन बना रहता है ? दोनों ही प्रश्न बड़े ही महत्वपूर्ण है | दोनों ही प्रश्न एक दूसरे से सम्बंधित भी है | सम्बंधित इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जीवन के अविरल प्रवाह पर कम से कम मुझे तो किसी भी प्रकार का कोई संदेह नहीं है |   
            संसार में रहते हुए हमारे पास जो यह शरीर है, उसमें जीवन है | इस एक शरीर की मृत्यु हो जाने पर किसी दूसरे शरीर में हमारा पुनर्जन्म होता है, वहां उस दूसरे शरीर में भी निश्चित ही जीवन होगा | इस बात को तो साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है | परन्तु मोक्ष हो जाने के बाद तो पुनर्जन्म होना संभव ही नहीं है, ऐसे में भला जीवन कहाँ और कैसे होगा ?
           दोनों ही प्रश्नों का उत्तर भी एक ही है | हाँ, यह सत्य है कि जीवन भी कभी नष्ट नहीं होता | जैसे आत्मा अक्षर है, परमात्मा अक्षर हैं वैसे ही जीवन भी अक्षुण्ण है | साधारण रूप से देखने पर यह कथन सही प्रतीत नहीं होता परन्तु सत्य यही है | हम जीवन को मात्र अनुभव करने की बात मानते हैं परन्तु भौतिक अनुभव से भी आगे की बात है, इस जीवन को समझना | सरलता से समझने के लिए जीवन को हम तीन रूपों में विभक्त कर सकते हैं | जीवन के तीन रूप हमारी ही मानसिकता के आधार पर बताये गए हैं अन्यथा जब जीवन एक है तो फिर इसके रूप अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? मानसिकता के आधार पर निर्धारित इस जीवन के तीन रूपों को समझ लेने के उपरांत जीवन के बारे में हमारी बनी सभी भ्रान्तियां दूर हो जाएगी |आइए!चलते हैं, जीवन के अविरल प्रवाह को समझने।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, December 29, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-12

अविरल जीवन (Life is continuous)-12
    इतने गहन विवेचन के बाद पुनः लौटते हैं उस दृष्टान्त पर, जिसमें दो गर्भस्थ शिशु आपस में वार्तालाप कर रहे हैं और विषय है, "एक जन्म के जीवन के बाद भी जीवन चलता रहेगा अथवा नहीं" | प्रथम शिशु कहता है कि यह एक ही जीवन है जो प्रसव होने के साथ ही समाप्त हो जाएगा जबकि दूसरा शिशु कह रहा है कि नहीं, प्रसव के होने के साथ ही जीवन समाप्त नहीं होता बल्कि जीवन आगे भी यथावत चलता रहेगा |
दूसरा शिशु सत्य कह रहा है कि शरीर के परिवर्तित अथवा नष्ट हो जाने पर भी जीवन अविरल चलता रहता है क्योंकि जीवन का सम्बन्ध जीव से है जो कि अक्षर है, शरीर से नहीं जो कि परिवर्तित होता रहता है और क्षर भी है | दूसरा शिशु मां को देख न पाने के बावजूद भी मां के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए कहता है कि मां ही हमारी अच्छी प्रकार से देखभाल करती है, चाहे शारीरिक परिवर्तन कितना भी हो जाये | मां परमात्मा का व्यक्त रूप ही है | जिस प्रकार गर्भस्थ शिशु को मां दिखलाई नहीं पड़ती क्योंकि वह मां के भीतर स्थित है | इसी प्रकार हम भी परमात्मा में स्थित हैं और परमात्मा के सुरक्षा घेरे में हैं | परमात्मा ही हमारी सुरक्षा करते हैं और हमारा भरण पोषण भी -"योगक्षेमं वहाम्यहम्"| दिखलाई इसलिए नहीं पड़ते क्योंकि हम आन्तरिक दृष्टि के बजाय बाह्य दृष्टि को अधिक महत्त्व देने लगे हैं |
           परमात्मा की अपरिमेय विराटता हमें अपने भीतर समेटे हुए हमारा भलीभांति ध्यान रखती है | वे न तो कुछ करते हैं और न ही लिप्त होते हैं | उनके कारण ही प्रकृति का सृजन हुआ है और विस्तार भी | हमारा सृजन प्रकृति ने किया है और इस प्रकार से वह परमात्मा ही अप्रत्यक्ष रूप से हमारे सृजक हैं | हम भले ही उन्हें देख नहीं पाते हों परन्तु वे हम सभी को समान भाव से देख रहे हैं | दिखलाई नहीं देने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि परमात्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं है | परमात्मा हमारे शरीर के भीतर जीवात्मा के रूप में स्थित हैं | हम जीवात्मा हैं इसलिए परमात्मा के अंश हैं | हम संसार के भोगों में आसक्त होकर प्रकृति के साथ बंध गए हैं | जिस दिन हमें वास्तविकता का पता चल जायेगा, परमात्मा चहूँ और दिखाई देने लगेंगे | जीवन अविरल है, जीवात्मा अक्षर है परन्तु हमें यही मानकर संतोष नहीं करना होगा बल्कि परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार कर उनके प्रति समर्पित होना होगा | तभी यह जीव, अपने जीवन जीते हुए परम उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल सिद्ध होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ।।

Friday, December 28, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-11

अविरल जीवन (Life is continuous)-11 
              श्वेताश्वतर उपनिषद् अध्याय 4 के श्लोक सं. 6 में शरीर को एक पेड़ बताते हुए जीव और परमात्मा को उस पर बैठे दो पक्षी बताया गया है | जीवात्मा और परमात्मा दोनों को आपस में सखा बताया गया है | एक दूसरे के प्रति सखा भाव रखते हुए भी उस शरीर रुपी पेड़ पर बैठा केवल जीवात्मा ही वह पक्षी है, जो उस पेड़ के फल का भोक्ता है जबकि दूसरा पक्षी जो कि स्वयं परमात्मा है, वह जीव नामक पक्षी को फल खाते हुए केवल देखता रहता है अर्थात उसकी भूमिका मात्र एक द्रष्टा की है | कहने का अर्थ है कि जीव परमात्मा का ही अंश है परन्तु वह शरीर से प्राप्त हुए फल का भोक्ता बनकर शरीर के साथ बन्ध जाता है |
          गीता के 13 वें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोsपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ||31||
अर्थात हे कुन्ती नन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मा स्वरूप ही है | यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न ही लिप्त होता है |
    इस बात को श्वेताश्वतर उपनिषद में भी स्पष्ट किया गया है |
         संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च
               व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः |
        अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावा-
                ज्ज्ञात्वादेवं मुच्यते सर्वपाशै: || श्वे.उप.-1/8||
         अर्थात विनाशशील जड़ वर्ग अर्थात भौतिक शरीर और अविनाशी जीवात्मा, इन दोनों के संयोग से बने हुए व्यक्त और अव्यक्त रूप इस विश्व का भरण पोषण परमेश्वर ही करता है तथा इस जगत के विषयों का भोक्ता होने के कारण जीवात्मा प्रकृति के अधीन असमर्थ होकर उसके साथ बंध जाता है | उस परमपिता परमेश्वर को जानकर वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Thursday, December 27, 2018

अविरल जीवन (Life is continuous)-10

अविरल जीवन (Life is continuous)-10  
               गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि ‘देही नित्यमवध्योsयं देहे सर्वस्य भारत” (गीता-2/30) अर्थात हे अर्जुन ! यह देही अर्थात जीवात्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है | किसी को अवध्य कहने का अर्थ है, जिसका कभी भी वध नहीं किया जा सकता हो | देही को ही जीव कहा जाता है | इस प्रकार यह सिद्ध है कि जब जीव का वध नहीं हो सकता तो फिर जीवन भी कभी नष्ट नहीं हो सकता | जब तक जीव का अस्तित्व बना रहेगा तब तक भिन्न भिन्न प्रकार के शरीरों में जीवन का प्रवाह भी अविरल बना रहेगा |
            जीवात्मा दो शब्दों के मिलने से बना है, जीव और आत्मा। अब प्रश्न उठता है कि यह जीव क्या है ? स्थूल शरीर के सभी तत्व स्थूल प्रकृति के हैं जिसमें मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी सम्मिलित है | ये यह चारों मिलकर अंतःकरण कहलाते हैं | यह  अंतःकरण ही जीव कहलाता है | इन चारों के साथ जब आत्मा का मिलन हो जाता है तब यह जीवात्मा कहलाता हैं | वैसे आत्मा का अस्तित्व कई महापुरुष स्वीकार नहीं करते हैं | उनका कहना है कि परमात्मा का मन ही विस्तार पाकर जीवात्मा कहलाता है | दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि परमात्मा का अंश आत्मा है जो विस्तार पाकर मन बन जाती है । यह अंतरात्मा भी कहलाती है जिसमें मन, बुध्दि, चित्त और अहंकार आ जाते हैं।इस प्रकार इन चारों का यह संगम अंतःकरण चतुष्ट्य भी कहलाता है।खैर, जैसे भी हो, यह सत्य है कि जीवन के केंद्र में मन अवश्य है | सब कुछ मनुष्य के मन का ही खेल है और वही जीव के रूप में शरीर दर शरीर भटकता रहता है | समझने की दृष्टि से हम जीव को ही सूक्ष्म शरीर भी कहते है |
                इस प्रकार जीवात्मा और जीवन एक दूसरे के पर्याय हैं और वे संसार में अपना प्रवाह सतत बनाये रखते हैं | भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाने के लिए गीता के 13 वें अध्याय में शरीर को क्षेत्र और जीव को क्षेत्रज्ञ कहा है | इसी प्रकार गीता के 15 वें अध्याय में इन्हें क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष कहकर स्पष्ट किया है | शरीर क्षर है जबकि जीव अक्षर | जीव अक्षर है, इससे यह सिद्ध है कि जीवन भी नष्ट नहीं होता अर्थात जीवन का प्रवाह अविरल बना रहता है | परमात्मा को इन दोनों से ऊपर अर्थात उत्तम पुरुष कहा गया है |  
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Wednesday, December 26, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-9

अविरल जीवन (Life is continuous)-9 
            नदी का अविरल प्रवाह जल की उपलब्धता पर निर्भर करता है | जल के अभाव में जल प्रवाह भी रूक जाता है और नदी के नदी होने का अस्तित्व भी मिट जाता है | इसी प्रकार जीवन का प्रवाह भी जीव पर आधारित है | जब तक जीव शरीर में है तभी तक उस शरीर में जीवन है | जीव के शरीर को त्यागते ही उसमें से जीवन भी निकल जाता है और अभी तक जीवित कहलाने वाला शरीर निर्जीव शरीर कहलाने लगता है | इसका अर्थ हुआ कि जीवन जीव की उपस्थिति पर आधारित है | अब प्रश्न उठता है कि जीव क्या है ? जीव की उपस्थिति ही शरीर में स्पंदन पैदा करती है और उस स्पंदन का नाम ही जीवन है | जीव भी शरीर की तरह ही प्रकृति का एक सृजन है | जीव ही इस भौतिक संसार का आधार है, अकेला शरीर नहीं | शरीर का अस्तित्व और उसके होने की सार्थकता भी जीव के कारण है अन्यथा जीव के अभाव में शरीर की कोई उपयोगिता नहीं है | जीव का सृजन प्रकृति अवश्य करती है परन्तु जब तक उसके साथ एक और तत्व आकर सम्मिलित नहीं होता तब तक अकेला जीव उस भौतिक शरीर में जीवन तो ला सकता है परन्तु उसे सक्रिय नहीं कर सकता | निष्क्रिय शरीर सजीव होकर जीवन को अभिव्यक्त तो कर सकता है परन्तु अपने सृजन का उद्देश्य पूरा नहीं कर सकता | शरीर में स्थित जीव के उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसमें परमात्मा के एक अंश का आ मिलना आवश्यक है | परमात्मा के उस अंश को आत्मा कहा जाता है | आत्मा केवल कहा ही जाता है, वास्तव में वह परमात्मा ही है।आत्मा जीव के साथ संयोग कर जीवात्मा बनाता है और जीवात्मा युक्त शरीर में जीवन आ जाने से वह सक्रिय भी हो उठता है | सक्रिय शरीर ही के कारण जीव अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं |
              इतने विश्लेषण के बाद यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि शरीर क्या है ? उस शरीर में जीव के प्रवेश करने पर ही जीवन आता है, जीवन अविरल बहता रहता है, शरीर समाप्त हो सकता है, जीवन और जीव नहीं | शरीर में जीव के प्रवेश पाने के बाद भी उसमें परमात्मा के अंश आत्मा के प्रवेश करने से ही जीवन में सक्रियता आ सकती है | सक्रिय जीवन से ही जीव अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है | जीव और आत्मा का संयोग होने पर वह जीवात्मा कहलाता है | अतः जीवात्मा ही जीवन का एकमात्र आधार है | शरीर में जीवात्मा रहते हुए भी दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं | उनका एक होना कभी भी संभव नहीं है क्योंकि शरीर में अवस्था परिवर्तन होता रहता है जबकि जीवात्मा और जीवन, दोनों ही अवस्था परिवर्तन से अछूते रहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Tuesday, December 25, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-8

अविरल जीवन (Life is continuous)-8 
        गर्भावस्था समाप्त होने पर शिशु जन्म लेता है जो समय पाकर बालक, किशोर, युवा, प्रोढ़ और वृद्धावस्था को प्राप्त होता है | जीवन एक ही है परन्तु उसी एक जीवन में यह सब शरीर की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं हैं | वृद्धावस्था में शरीर जर्जर हो जाता है | यह जीर्ण शीर्ण शरीर भी उस जीवन के अविरल प्रवाह को नहीं रोक पाता है | हाँ, वृद्ध शरीर अवश्य ही असहाय हो जाता है और अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाता है परन्तु जीवन नहीं मरता | शारीरिक मृत्यु हो जाने के बाद भी जीवन बिना रुके झुके किसी अन्य स्त्री के गर्भ में पल बढ़ रही नई देह में प्रवेश पाकर पुनः स्पंदित होने लगता है |
          अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर अविरल चल रहा यह जीवन जीता कौन है ? कोई न कोई तो इस अविरल बह रहे जीवन के साथ चल रहा है, वह कौन है, इस जीवन का संगी-साथी कौन है ? गीता के दूसरे अध्याय के ऊपर वर्णित इस 13 वें श्लोक में भगवान इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं | वे कह रहे हैं कि जीवन एक ही है, शरीर की अवस्थाएं भिन्न – भिन्न अवश्य है | शरीर में हो रहे अवस्था परिवर्तन को देखकर धीर पुरुष मोहित नहीं होता | यह पुरुष ही विभिन्न शरीरों के माध्यम से अविरल बह रहे इस जीवन को जीता है |
             भगवान कह रहे हैं कि शरीर की बदल रही अवस्थाओं को देखकर धीर पुरुष मोहित नहीं होता | धीर पुरुष अर्थात जिसके पास धैर्य है | धैर्यवान पुरुष शरीर की दिन प्रतिदिन बदल रही अवस्थाओं को देखकर दुःखी नहीं होता | शरीर के प्रति मोह रखने के कारण अवस्थाओं में परिवर्तन ही व्यक्ति को दुःखी करता है | हमें यह समझना होगा कि जीवन परिवर्तित नहीं हो रहा है बल्कि सभी परिवर्तन केवल शरीर में हो रहे हैं | अधीर पुरुष शारीरिक मोह में पड़े रहते हैं और इसी कारण से इस शरीर को ही जीवन का अंतिम सत्य मानकर एक ही जीवन होने की अवधारणा में विश्वास रखते हुए परमात्मा के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Monday, December 24, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-7

अविरल जीवन (Life is continuous)-7
               जीवन के अविरल प्रवाह को स्पष्ट करते हुए गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||12||
अर्थात न तो ऐसा है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे |
             जीवन अविरल बहता रहता है, हम ही हमारे जीवन के संगी हैं जो हजारों लाखों जन्म ले कर भी वही के वही बने रहते हैं | अगर एक ही जीवन होता तो क्या भगवान श्री कृष्ण के द्वारा ऐसा कहना संभव होता कि प्रत्येक काल में हम सभी बने रहते हैं | परिवर्तित होती है तो हमारी यह देह | अन्य कुछ भी परिवर्तित नहीं होता और जो जन्म दर जन्म परिवर्तित नहीं होता उसी का नाम जीवन है |
          जीवन एक ही है, जन्म अनेकों | शरीर अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु उन शरीरों में स्पंदित होने वाला जीवन एक ही रहता है | जीवन कभी भी परिवर्तित नहीं होता, वह अपरिवर्तनीय है, इसीलिए शरीर अर्थात देह में जो जीवन है, वही सत्य है, यह शरीर नहीं | आगे इसी अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को और अधिक गंभीरता की तरफ ले जाते हुए कहते हैं कि-
देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||13||
अर्थात जैसे इस जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है , वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Sunday, December 23, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-6

अविरल जीवन (Life is continuous)-6 
      गीता के ज्ञान कर्म संन्यास योग नामक चतुर्थ अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
बहूनि मे व्यतितानि जन्मानि तव चार्जुन |
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||5||
अर्थात हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं | उन सबको तुम नहीं जानते, किन्तु मैं जानता हूँ |
    यहाँ भगवान श्री कृष्ण का यह कहना सिद्ध करता है कि हमारे जन्म तो बहुत से हो सकते हैं परन्तु प्रत्येक जन्म में जीवन एक ही रहता है | श्री कृष्ण तभी तो कह रहे हैं कि मेरे और तेरे कई जन्म हो चुके हैं और प्रत्येक नए जन्म में मैं और तुम बने रहते हैं | मैं और तुम का बना रहना ही अविरल जीवन का द्योतक है | मैं और तुम ही तो इस भौतिक संसार के आधार हैं | जिस दिन मैं और तुम समाप्त हो जायेंगे, यह संसार भी समाप्त हो जायेगा परन्तु इस संसार की समाप्ति के लिए प्रत्येक के जीवन से मैं और तुम का समाप्त हो जाना आवश्यक है | लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि संसार में जीवन की निरन्तरता के लिए मैं और तुम का बने रहना आवश्यक है | इस संसार में बह रहा अविरल जीवन ही तो परमात्मा के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है |
             परमात्मा का होना अविरल जीवन पर निर्भर नहीं करता है बल्कि जीवन का अविरल होना परमात्मा पर निर्भर करता है | परमात्मा ने ही यह प्रकृति सृजित की है | प्रकृति का सृजन ही जीवन का सृजन है | इस प्रकार परोक्ष रूप से परमात्मा ही इस अविरल जीवन का सृजक हुआ | दृष्टान्त में एक शिशु का यह कहना कि मां हमें अपने भीतर समेटे हुए है इसलिए हमें वह दिखाई नहीं दे रही है, एकदम सत्य है | ठीक इसी प्रकार हमें भी परमात्मा अपने में समेटे हुए हैं और इस कारण से हम उन्हें देख नहीं पा रहे हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Saturday, December 22, 2018

अविरल जीवन (Life is continuous)-5

अविरल जीवन (Life is continuous)-5 
              उन मित्रों के लिए जिन्हें भारतीय संस्कृति से पाश्चात्य संस्कृति अधिक विकसित अनुभव होती है, यह दृष्टान्त एक कहानी मात्र हो सकती है | शिशु मां के गर्भ में रहते हुए क्या और कैसी हलचल करता है, हम सब जानते हैं | इस बारे में केवल मां ही ईश्वर के बाद वह शख्सियत है जो गर्भ में पल रहे शिशु के बारे में सर्वाधिक ज्ञान रखती है | वार्तालाप चाहे वाक् इन्द्रिय से नहीं किया गया हो, परन्तु यह भी सत्य है कि कुछ कहने के लिए मुंह से ही कुछ बोल कर कहना आवश्यक नहीं है, मौन रह कर भी बहुत कुछ कहा और सुना जा सकता है | सन्देश में जितनी गंभीरता मौन रहकर कहने और सुनने में होती है उतनी भौतिक इन्द्रियों का उपयोग करते हुए कहने और सुनने में नहीं होती | अतः निःसंदेह इस दृष्टान्त के भीतर एक महत्वपूर्ण सन्देश छुपा हुआ है, जिसको प्रकट करने के लिए हमें गंभीरता से इसका विश्लेषण करने की आवश्यकता है |
        दृष्टान्त में दो शिशुओं के मध्य हुआ वार्तालाप उन सभी की आँखें खोल देने के लिए पर्याप्त है, जो यह सोचते हैं कि भौतिक शरीर की मृत्यु हो जाना ही इस जीवन का समाप्त हो जाना है | इस जीवन के बाद कहीं पर भी कोई अन्य जीवन है ही नहीं | ऐसे लोग तो परमात्मा के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं | अस्तित्व परमात्मा का है अथवा नहीं यह विवाद का विषय हो सकता है परन्तु इस सत्यता से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कोई एक शक्ति अवश्य है, जिसके कारण से यह संसार चल रहा है | विज्ञान इस शक्ति को प्रकृति कहता है और बुद्धिजीवी इस बात को स्वीकार करते हुए परमात्मा के अस्तित्व को नकारते हैं | भारतीय दर्शन इससे भी बहुत आगे जाकर कहता है कि प्रकृति का अस्तित्व भी तो किसी अन्य के अस्तित्व पर टिका हुआ होगा और वह अन्य कोई और नहीं, साक्षात् परम पिता परमात्मा ही है | उस परमात्मा से ऊपर तो क्या, उसके समकक्ष भी भला कोई अन्य कैसे हो सकता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Friday, December 21, 2018

अविरल जीवन (Life is continuous)-4

अविरल जीवन (Life is continuous)-4
              “ठीक है, मैं अधिक नहीं जानता | परन्तु यह निश्चित है कि यहाँ से बाहर निकलने पर हम हमारी जननी अर्थात माँ से मिलेंगे | मां हमें अपनी गोद में लेकर हमारी बहुत अच्छी प्रकार से देखभाल करेगी | मां ही हमारे जीवन का मूलभूत आधार है |” दूसरे शिशु ने उत्तर दिया | इस बात को सुनकर पहला शिशु बोला - “मां ! कौन है यह, मां कैसी होती है ? क्या तुम मां के होने पर सचमुच में विश्वास करते हो ? हा - हा- हा, कितना हास्यास्पद है यह सब ? अगर वास्तव में मां होती है, तो बताओ वो अभी कहाँ पर है ? मुझे तो दिखाई नहीं देती |”
       दूसरा शिशु कह रहा है - “वह अभी और इस समय भी हमारे पास है | उसने ही तो हमें चारों ओर से अपने सुरक्षा घेरे में ले रखा है | हम उसके घेरे में सुरक्षित रहकर यह जीवन जी रहे हैं | मां ने स्वयं के भीतर हमें समेट रखा है | हम उसी मां के ही तो अंश हैं | एक माँ के बिना इस संसार का न तो कभी अस्तित्व ही था, न है और न ही भविष्य में कभी रहेगा |”
      पहला बोला –“ मैंने तो पहले कभी भी ऐसी किसी मां को नहीं देखा है | जो हमें स्वयं की आंखों से दिखाई नहीं देती, उसके अस्तित्व पर आँख मूंदकर कैसे विश्वास किया जा सकता है ? अतः यह स्वतः सिद्ध है कि इस संसार में मां नाम के किसी भी व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं है |”
     यह सुनकर दूसरा शिशु कुछ विनम्र होकर पहले शिशु से कह रहा है – “कुछ समय के लिए यह चंचलता त्यागकर शांत होकर बैठो और ध्यानपूर्वक कुछ सुनने का प्रयास करो | तुम्हें मां की स्नेहमय वाणी सुनाई पड़ेगी | तुम्हें हमारी मां की उपस्थिति का अलौकिक अनुभव होगा | तुम्हें अनुभव होगा जैसे ऊपर आकाश से कोई तुम्हें पुकार रहा है, तुम्हें प्यार कर रहा है |”
         पहला शिशु मां के होने की बात सुन-सुन कर परेशान हो गया | उसे न दिखाई पड़ने वाली वस्तु, व्यक्ति आदि पर विश्वास नहीं हो रहा था | वह बोला-‘ तुम सुनो ध्यान से मां की वाणी, मुझे नहीं सुनना | शांत होकर बैठो, ध्यान लगाओ, सुनो, अनुभव करो-इतना करने की आफत क्यों मोल लूं मैं ? मां नहीं है, नहीं है, नहीं है |’ इतना कहकर पहला शिशु मुंह दूसरी ओर फेरकर शांत हो गया | दूसरे शिशु ने भी फिर उसे अधिक विवाद करना उचित नहीं समझा |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Thursday, December 20, 2018

अविरल जीवन (Life is continuous)-3

अविरल जीवन (Life is continuous)-3
            दूसरे शिशु ने उत्तर दिया-“इस बारे में बहुत अधिक तो नहीं जानता परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि इस दुनिया से बाहर की दुनिया में प्रकाश कहीं अधिक है | वहां हम अपने पैरों पर खड़े होकर चल भी सकते हैं और इस छोटे से मुंह से सब कुछ खा पी भी सकते हैं | कुछ दूसरी इन्द्रियों से नए अनुभव भी हमें प्रसव के बाद ही होंगे जिन्हें हम अभी अनुभव नहीं कर सकते |”
     यह सुनकर पहला शिशु कुछ उत्तेजित हो गया और बोला – “कैसा पागलपन है यह ? यह बहुत ही बेहूदा बात है | स्वयं के पैरों से चलना, असंभव | अपने मुंह से खाना तो और भी असंभव | ऐसा होना कल्पना में भी असंभव है | हमें अभी जितना भोजन हमारे पोषण के लिए आवश्यक है, वह हमें गर्भ में इस शिशु नाल से मिल ही रहा है | हाँ, हमारी यह शिशु नाल छोटी अवश्य है | इस आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि प्रसव के उपरान्त जीवन हो ही नहीं सकता | जीवन इस गर्भ में शिशु नाल के रहते हुए ही संभव है, बाद में नहीं |”
        दूसरा शिशु यह सुनकर मुसकुराया और बोला-“तुम सत्य कहते हो भाई कि हम पोषण गर्भ में इस शिशु नाल से प्राप्त कर रहे हैं, परन्तु मेरी सोच तुमसे भिन्न है | मेरा मानना है कि बाहर की दुनियां यहाँ की दुनिया से बहुत ही अलग है | यहाँ से बाहर निकल जाने के बाद इस शिशु नाल की भी शायद हमें आवश्यकता ही नहीं रहेगी |”
        पहले ने उत्तर दिया –“क्या बेवकूफों जैसी बातें कर रहे हो | अगर बाहर जीवन है, तो फिर वहां से भीतर कोई वापिस क्यों नहीं आता ? भैया ! यही सत्य है कि प्रसव ही हमारे जीवन का अंत है | प्रसव के बाद केवल अन्धकार, नीरवता और विस्मरण के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहेगा |” प्रसव हमें नए जीवन की और तो क्या, वह हमें कहीं पर भी नहीं ले जाता | इस संसार में केवल यह जीवन ही एक मात्र जीवन है, इसके उपरांत कोई जीवन नहीं है |”
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Wednesday, December 19, 2018

अविरल जीवन (Life is continuous)-2

अविरल जीवन (Life is continuous)-2
           जीवन को समझने के लिए केवल वैज्ञानिक प्रयोग करते रहना ही पर्याप्त नहीं है, कुछ दार्शनिकता का मिश्रण भी ऐसे प्रयोगों में करना आवश्यक है | आप यह न समझें कि आधुनिक विज्ञान की उपलब्धि पर मैं किसी भी प्रकार का कोई संदेह कर रहा हूँ बल्कि यह कहना चाहता हूँ कि विज्ञान की मात्र इतनी सी उपलब्धियां ही इस जीवन को समझने के लिए पर्याप्त नहीं है | मैं स्वयं विज्ञान के एक क्षेत्र में विशेषज्ञ हूँ इसलिए विज्ञान पर मेरे द्वारा अविश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता | हमारे जीवन और इस जीवन के आधारभूत परमात्मा को समझने के लिए अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए अपनी बात एक दृष्टान्त से प्रारम्भ करना चाहूँगा | इस दृष्टान्त में एक मां के गर्भ में एक साथ पल रहे दो शिशुओं के मध्य हुआ वार्तालाप है | इस दृष्टान्त को मैंने अपने चिकित्सा-शिक्षा प्राप्त करने की अवधि में सहपाठी रहे मॉरिशस के एक मित्र डॉ. जे. एन. वर्मा के व्हाट्सएप्प सन्देश से लिया है | उन्होंने यह संदेश अंग्रेजी भाषा में भेजा है, जिसका हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। संदेश लंबा है, धैर्य और गंभीरता के साथ पढ़ें। इस श्रृंखला का मुख्य आधार यह सन्देश ही है |
             एक मां के गर्भ में दो जुड़वां शिशु पल रहे थे | पूर्ण विकसित होकर प्रसव से पहले एक दिन एक शिशु ने दूसरे शिशु से पूछा - “क्या तुम प्रसव के बाद भी जीवन के होने में विश्वास करते हो ?” दूसरे ने उत्तर दिया – “क्यों नहीं ? जीवन के होने में भी क्या किसी प्रकार का कोई संदेह हो सकता है ?” प्रसव के बाद कुछ होता अवश्य ही है, इतना मैं अवश्य जनता हूँ | प्रसव के बाद जो कुछ भी होता है, वह बिना जीवन के हुए होना संभव नहीं है | इसका अर्थ यह है कि प्रसव के बाद भी जीवन है | हम दोनों जीवन भी प्रसव होने के बाद भी निरंतर चलता रहेगा | प्रसव के बाद जीवन में हमारा भविष्य कैसा होगा और हम क्या और कैसे होंगे, हमारी यह आज की गर्भावस्था उस जीवन की तैयारी मात्र ही तो है |”
        “मैं नहीं मानता |” पहला शिशु बोला | ”प्रसव के बाद कोई जीवन नहीं है | एक क्षण के लिए अगर प्रसव के बाद जीवन होना मान भी लूं तो बताओ प्रसव के बाद का वह जीवन कैसा होगा ?”
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Tuesday, December 18, 2018

अविरल जीवन (Life is continuous)-1

आज गीता जयंती है।आज ही के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में दोनों ओर खड़ी सेनाओं के मध्य अर्जुन को दिव्य ज्ञान दिया। उस ज्ञान को केवल अर्जुन ही आत्मसात कर सके। आप भी अर्जुन बने और इस शास्त्र में समाहित ज्ञान को आत्मसात करने का प्रयास करें।इस पुनीत अवसर पर आप सभी को  शुभकामनाएं ।
अविरल जीवन ((Life is continuous)-1-
      इस संसार के कथित बुद्धिजीवी भारत के दर्शन का मखौल उड़ाते हुए कहते हैं कि इस देश में भगवान के अस्तित्व में विश्वास रखने के कारण यहाँ के व्यक्ति कर्म करने से जी चुराते हैं, जिसके कारण से यहाँ विकास नहीं हो पा रहा है | विकास नहीं हो पा रहा है, कहने का अर्थ है कि हम अभी भी सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था अर्थात आदि मानव के रूप में ही जी रहे हैं | नहीं जी, हम पहले भी पूर्ण रूप से विकसित थे और आज भी है, बस अंतर केवल इतना सा है कि विनाश की ओर जा रहे संसार के लोगों को हम अविकसित लग रहे हैं | विकास क्या है, इसकी परिभाषा भोग वादियों ने बदल कर रख दी है | विकास केवल भोग सामग्री उपलब्ध कराने के क्षेत्र में हुआ है आध्यात्मिक क्षेत्र में नहीं | जीवन में भोग हमें अशांत ही करते हैं यही कारण है कि आज हम सभी का जीवन अशांत हो रखा है | जीवन में शांति चाहिए तो भारतीय दर्शन को अपनाना होगा, पुनः उसकी और लौटना होगा |
           संसार में जितने भी प्राणी है, वे सब जीवन की अभिव्यक्ति मात्र है | प्रत्येक प्राणी का अपना एक जीवन होता है | भौतिकता वादी कहते हैं कि भौतिक देह की मृत्यु हो जाने के उपरांत प्राणी को कोई नया जीवन नहीं मिलता | इसलिए जितना सुख इस जीवन के रहते, इस संसार में रहते हुए प्राप्त कर सकते हो कर लें | न तो इस जीवन के बाद किसी को नयी देह मिलनी है और न ही कोई इस एक जीवन के अतिरिक्त भविष्य में कोई अन्य जीवन है | ‘There is no life after life’  कथित बुद्धिजीवियों का यही मत है |
                 मेरा इन कथित बुद्धिजीवियों से एक ही प्रश्न है- क्या हमें जो कुछ भी इन भौतिक नेत्रों से दिखलाई पड़ रहा है, सत्य केवल इतना सा ही है ? नहीं, सत्य को केवल इतने मात्र से ही व्यक्त नहीं किया जा सकता | सत्य आज की हमारी कल्पना से भी विराट् है | हम उस महान संस्कृति के वाहक है, उन महान ऋषि-मुनियों की संतान है, जिनकी दृष्टि दृश्य का भी उल्लंघन कर सकती है | दृश्य से परे भी कुछ है, जो हमें भौतिक चक्षुओं से दिखलाई नहीं दे सकता | किसी एक शरीर में जन्म हो जाना ही उसका एक मात्र जीवन नहीं है | जीवन तो अविरल है, जीवन की धारा तो सतत प्रवाहित होती रहती है, यह जन्म तो उसका एक छोटा सा पड़ाव है | व्यक्ति अथवा प्राणी के जन्म भिन्न-भिन्न हो सकते हैं परन्तु जीवन सदैव एक ही रहता है | जीवन तो उस नदी की अविरल बहती धारा के समान है जो कभी भी रूक नहीं सकती और अपने मूल स्रोत तक पहुँचना ही जिसका एक मात्र लक्ष्य होता है | भला पश्चिम की भोग वादी संस्कृति को मानने वाले हमारी उच्च स्तर की संस्कृति को इतनी सुगमता और शीघ्रता से कैसे समझ सकते हैं ? इस संस्कृति को समझने के लिए प्रथमतः तो उन्हें परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास करना होगा और उसके बाद ही उन्हें जीवन की अविरलता और निरंतरता समझ में आएगी अन्यथा नहीं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Monday, December 17, 2018

जीवन क्या है?

जीवन क्या है ? इसको हममें से कोई कोई ही समझ पाया है अन्यथा तो हम सभी एक ही ढर्रे पर चलते हुए अपना जीवन बिता रहे हैं। बिताना ही क्या, यह कह सकता हूँ कि जीवन को एक प्रकार से ढो ही रहे हैं।शरीर की मृत्यु के साथ जीवन समाप्त हो जाएगा, यह सोचना ही हमारी सबसे बड़ी भूल है। जीवन कभी भी समाप्त नहीं होने वाला, जो इसको समाप्त होने वाला समझता है, वह इसे जीता नहीं है, बल्कि ढोता है।जब हमारे यह समझ में आ जायेगा कि जीवन अविरल है, सदैव के लिए है और बहता रहता है, तभी हम इसे सही मायने में जी पाएंगे ।
    अभी तीन दिन पूर्व मैं अपने मेडिकल कॉलेज के सहपाठी मित्र राकेश के पुत्र के विवाह अवसर पर श्री गंगानगर में था। वहां पर 44 वर्ष पूर्व मेडिकल कॉलेज के सहपाठी मित्र प्रवीण,राजेन्द्र मीना,हरीश,फूल चंद,ओमप्रकाश,शशि आदि से मिला और हमने अध्ययन के समय के अन्य साथियों को याद किया।ऐसे ही अनेकों सहपाठियों में एक मित्र हैं, डॉ. जे.एन. वर्मा।मॉरीशस में रहते हैं, आध्यात्मिक चिंतक हैं।उन्होंने कुछ समय पूर्व एक कहानी भेजी थी, वह मुझे उस दिन स्मरण हो आई। वह कहानी है, दो जुड़वां गर्भस्थ शिशुओं के मध्य हो रहे वार्तालाप की। विषय था,क्या गर्भावस्था के बाद भी जीवन है? उसी कहानी ने मुझे प्रेरित किया है, 'जीवन' विषय पर लिखने के लिए। पहले सोचा था कि आश्रम जाकर इस विषय पर लिखूंगा,परंतु दुर्भाग्य से श्री गंगानगर से हरिद्वार जाने वाली ट्रेन 15/12 को रद्द कर दी गयी थी और मुझे वापिस जयपुर लौटना पड़ा। इस कारण से अब समय मिला है तो क्यों न इसका लाभ उठाते हुए अपने इस जीवन पर भी कुछ चिंतन कर लिया जाए। कल से जीवन पर नई श्रृंखला प्रारम्भ करने जा रहा हूँ,"अविरल जीवन" अर्थात Life is continuous. जीवन का प्रवाह सदैव बना रहता है, इसका प्रवाह अविरल है, तो आइए, कल से इस प्रवाह के साथ हम भी बहने का प्रयास करें।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, December 16, 2018

अभ्यास और ज्ञान

अभ्यास से व्यक्ति इंद्रियों को वश में कर सकता है परंतु इस अभ्यास के लिए उसे प्रेरित करता है, ज्ञान।ज्ञान मिलता है, संतों के साथ सत्संग करने से और शास्त्रों के अध्ययन से । शास्त्रों का अध्ययन हमें भले बुरे में अंतर स्पष्ट करता है, धर्म अधर्म और पाप पुण्य में अंतर स्पष्ट करता है। शास्त्रों के अध्ययन से उपजी जिज्ञासा को संत अथवा गुरु शांत करते हैं।जब एक बार प्राप्त ज्ञान को मनुष्य विवेक में परिवर्तित कर लेता है, तब जाकर वह बार बार के अभ्यास से अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित करते हुए मन को वश में करने में सफल हो सकता है।
      मन और इंद्रियों के वश में होते ही कामनाओं और इच्छाओं का तूफान भी शांत होने लगता है। मन के एक बार वश में आ जाने पर फिर मनुष्य विवेक का अनादर कर ही नहीं सकता, फिर उसके द्वारा केवल सत्कर्म ही होंगे। फिर वह अधर्म के मार्ग पर जा ही नहीं सकता। मन चंचल है, यह कभी भी पुनः भटक सकता है।मन को बार बार भटकने से रोकने के लिए मनुष्य को वैराग्य धारण करते हुए निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए।एक बार मन वश में हो गया इसका अर्थ यह नहीं है कि फिर इस जीवन में वह कभी भटकेगा ही नहीं। नारद ने काम को जीत लिया था फिर भी विश्वमोहिनी के जाल में उसका मन उलझ ही गया।अगर वे निरंतर मन में वैराग्य धारण किये रहते और अभ्यास रत रहते तो यह भटकाव होता ही नहीं।अतः अपने जीवन में सदैव राग से दूर रहें और इंद्रियों,मन और इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का अभ्यास करना न छोड़ें।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, December 15, 2018

मन पर नियंत्रण

मन पर नियंत्रण
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं -
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6/35।।
अर्थात हे महाबाहो अर्जुन ! निःसंदेह मन चंचल है, बड़ी कठिनाई से वश में होने वाला है,परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! यह मन केवल अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही वश में किया जा सकता है।
     अभ्यास नाम है, बार बार प्रयत्न करने का।वैराग्य नाम है, देखी सुनी विषय-वस्तुओं में राग छोड़ देना अर्थात इनसे किसी भी प्रकार का लगाव न रखना यानि विषय भोगों में आसक्ति का त्याग। राग होता है विषय भोगों में।यही राग फिर मन में इच्छाओं को जन्म देता है और व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कर्म करने को विवश हो जाता है। कर्म करना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परंतु केवल भोगों की प्राप्ति के लिए कर्म करना व्यक्ति को आवागमन से मुक्त नहीं होने देता।भोगों से हमें सुख की अनुभूति अवश्य होती है परंतु यह सुख तात्कालिक और क्षणिक होता है औऱ दुःख का कारण बनता है।सुख प्राप्ति के लिए भोगों में राग रखना ही हमारे जीवन में दुःख को आमंत्रित करता है। वैराग्य से हमारे मन में सुख प्राप्त करने की कामना ही लुप्त हो जाती है तो फिर जीवन में दुःखों का आगमन हो ही नहीं सकता।
      मन को नियंत्रण में रखने का दूसरा साधन है-अभ्यास। अभ्यास अर्थात मन में उठ रही इच्छाओं को नियंत्रित करने का प्रयास । मन को अनियंत्रित करती है, हमारी इंद्रियां क्योंकि दसों इंद्रियां ही शरीर को भोग उपलब्ध कराती है।अतः इंद्रियों को वश में रखने का साधन है, अभ्यास। केवल मनुष्य को ही परमात्मा ने वह शक्ति प्रदान की है, जिससे वह इंद्रियों को प्रयत्न से वश में रखते हुए मन को नियंत्रित कर सकता है।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, December 14, 2018

इच्छाओं का त्याग

"इच्छा का त्याग करें" कहना जितना सरल है उतना ही करना कठिन है।संसार के गतिमान बने रहने के केंद्र में इच्छा ही महवपूर्ण भूमिका में है।मन में किसी भी प्रकार की इच्छा का नहीं रहना ही व्यक्ति को संसार से उदासीन कर देता है।दूसरे शब्दों में कहूँ तो कह सकता हूँ कि मन में इच्छा है तो संसार है और इच्छा नहीं है तो परमात्मा हैं। मन में इच्छा होना संसार में प्रवृत्त होना है और समस्त इच्छाओं का त्याग कर देना संसार से निवृत हो जाना है।
       इच्छा का जन्म स्थान मन है, इसीलिए सभी संतजन मन को नियंत्रण में रखने की बात करते हैं।मन सुगमता से वश में आने वाला नहीं है।मन के पास हज़ारों बहाने है, संसार के रस में डूबने के लिए।यह नहीं हो पा रहा है तो वह कर लूँ, यहां नहीं रह सकता तो वहां चला जाऊं, थोड़ा और धन कमा लूँ फिर भजन में लगूंगा, मेरी तो किस्मत ही खराब है आप तो बहुत भाग्यशाली हैं,अभी तो जीवन में बहुत समय मेरे पास हैं आदि अनेकों बहाने हैं, मन के पास बचने के लिए। सारा खेल मन का है, जिसमें इच्छाएं समुद्र में लहरों की भांति उठती मिटती रहती है।जब मन को वश में कर लेंगे तो धीरे धीरे उसमें इच्छाओं का जन्म लेना भी मिट जाएगा। मन को वश में करने के दो ही साधन गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताए हैं-अभ्यास और वैराग्य।इन दो साधनों को जीवन में उतार लें तो मन वश में आ जायेगा।मन वश में होगा तो सांसारिक इच्छाएं मन में जन्म ही नहीं लेगी।हमारी इच्छाएं केवल जीवन में सुख प्राप्त करने की ही होती हैं।सुख की चाहत ही दुःख को जन्म देती है।सुख की इच्छा समाप्त हो जाए तो जीवन से दुःख स्वतः ही दूर हो जाएगा।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, December 13, 2018

दुःख के कारण

दुःख के कारण-
1.जो चाहा सो मिला नहीं।
2.जो मिला वह पसन्द नहीं।
3. जो मिला हुआ है, वह पसन्द तो आया, परंतु वह टिकता नहीं।
जो इच्छानुसार होता है अथवा मिलता है,तब हम सुखी होते हैं।जब इच्छानुसार नहीं होता या नहीं मिलता है,तब हम दुखी हो जाते हैं।इसका अर्थ है कि प्रत्येक सुख दुःख के पीछे मूल कारण हमारी इच्छा है।अतः जीवन में समस्त इच्छाओं का त्याग ही दुःखों से दूर रहने का एक मात्र साधन है।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, December 12, 2018

संतों का ऐश्वर्य

रैदास का विलक्षण ऐश्वर्य --
एक बार भक्तिमति मीराबाई को किसी ने ताना मारा - "मीरा ! तू तो राजरानी है।.महलों में रहने वाली, मिष्ठान्न-पकवान खाने वाली और तेरे गुरु झोंपड़े में रहते हैं। उन्हें तो एक वक्त की रोटी भी ठीक से नहीं मिलती ।" मीरा के गुरु कौन?महान भक्त रैदास।
मीरा से भला यह कैसे सहन होता। मीरा ने पालकी मँगवायी और गुरुदर्शन के लिए चल पड़े।मायके से कन्यादान में मिला एक हीरा उसने गाँठ में बाँध लिया ।
          रैदास जी की कुटिया जगह-जगह से टूटी हुई थी। वे एक हाथ में सूई और दूसरे में एक फटी-पुरानी जूती लेकर बैठे थे। पास ही एक कठौती पड़ी थी। हाथ से काम और मुख में नाम चल रहा था । ऐसे महापुरुष कभी बाहर से चाहे साधन-सम्पदा विहीन दिखें पर अंदर की परम सम्पदा के धनी होते हैं और बाहर की धन-सम्पदा उनके चरणों की दासी होती है। यह संतों का विलक्षण ऐश्वर्य है ।
          मीरा ने गुरुचरणों में वह बहूमूल्य हीरा रखते हुए प्रणाम किया। उसके नेत्रों में श्रद्धा-प्रेम के आँसू उमड़ रहे थे । वह हाथ जोड़कर निवेदन करने लगीः - "गुरुजी! लोग मुझे ताने मारते हैं कि मीरा तू तो महलों में रहती है और तेरे गुरु को रहने के लिए अच्छी कुटिया तक नहीं है । गुरुदेव मुझसे यह सुना नहीं जाता। अपने चरणों में एक दासी की यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये। इस झोंपड़ी और कठौती को छोड़कर तीर्थयात्रा कीजिये और...."
            आगे संत रैदासजी ने मीरा को बोलने का मौका ही नहीं दिया वे बोले -- "गिरधर नागर की सेविका होकर तुम ऐसा कहती हो । मुझे इसकी जरूरत नहीं है। बेटी ! मेरे लिए इस कठौती का पानी ही गंगाजी है,यह झोंपड़ी ही मेरी काशी है ।"
            इतना कहकर रैदासजी ने कठौती में से एक अंजलि जल लेकर उसकी धार भूमि पर छोड़ी तो अनेकों सच्चे मोती जमीन पर बिखरने लग गए ।
मीरा चकित-सी देखती रह गयी ।
भला, संतो की महिमा का बखान कौन कर सकता है ?
ऐश्वर्य तो उनके चरणों का दास है ।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, December 11, 2018

सारनाथ-वाराणसी

वाराणसी से 14 किलोमीटर की दूरी पर एक पवित्र स्थल है -सारनाथ।सारनाथ में भगवान बुद्ध के मंदिर हैं। बहुत ही सुंदर स्थान है, सारनाथ। गगनचुम्बी बुद्ध प्रतिमा एक पार्क में स्थित है, जो दूर से ही दिखाई पड़ जाती है। पार्क व्यवस्थित है, साफ सफाई और व्यवस्था पवित्र स्थान के अनुसार ही है। मंदिर और बौद्ध विहार की व्यवस्था प्रशंसनीय है। इन सभी की व्यवस्था तिब्बती लोगों के हाथ मे है, जो कि भगवान बुद्ध के अनुयायी हैं।
       श्रीमद्भागवत महापुराण में दशावतार का उल्लेख है, उसके अनुसार भगवान बुद्ध परमपिता के नवें अवतार हुए हैं आठवें अवतार भगवान श्रीकृष्ण थे। एक राजघराने में पैदा हुए और पले बढ़े सिद्धार्थ नाम के पुरुष ने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश भी किया, पुत्र भी हुआ परंतु सांसारिक दुखों से जीवन को कैसे मुक्त रखा जाए, उसका यह प्रश्न उनके लिए सदैव अनुत्तरित ही रहा। सत्य की खोज में उन्होंने राज पाट, घर बार, पत्नी पुत्र सब कुछ छोड़ छाड़ कर जंगल में जाने का निश्चय किया। जंगल मे कई गुरुकुल और आश्रमों को छान डालने के बाद भी उनका प्रश्न अनुत्तरित ही रहा।पांच पंडितों के बतलाये अनुसार सब कर्म कांड भी किए, यहां तक कि कठोर व्रतादि कर शरीर को कष्ट भी दिया परंतु सब व्यर्थ। दुःख से मुक्त हो जाने की कोई राह नहीं मिली। थक हारकर  सब क्रियाओं से मुक्ति पा लेने का निश्चय किया, सब इच्छाओं का त्याग कर दिया,यहां तक कि जीवन में दुःख नहीं रहे,इस इच्छा का भी त्याग कर दिया।सब इच्छाओं का त्याग करते ही आत्म बोध को उपलब्ध हो गए।सुबह सुबह सुजाता के हाथों मिली खीर ने कई दिन से भूखे सिद्धार्थ को भीतर तक तृप्त कर दिया। क्षुधा तृप्ति के बाद, सुजाता ने नाम पूछा परंतु आज तो सिद्धार्थ विगत सब कुछ भूल चुका था।सुजाता ने ही उस तृप्तात्मा को नाम दिया-बुद्ध। शांत सौम्य बुद्ध की तो जैसे वाणी ही चली गयी।मौन ही मौन, बाहर भीतर मौन,संसार के सभी दु:खों से दूर । मौन व्यक्ति क्या तो बोले और किससे बोले? उठ कर चल देते हैं, बिना किसी लक्ष्य के।
      आज यही सिद्धार्थ, बुद्ध बनकर लौटता है और पहुंचता है, वाराणसी। वहीं मिलते है, वही पांच पंडित। बुद्ध के शांत भाव पूर्ण व्यक्तित्व को देखकर समझ जाते हैं कि इस व्यक्ति को वह सब कुछ मिल गया है, जो विभिन्न क्रियाओं को करने के बाद भी उन्हें आज तक नहीं मिल पाया। पांचों पूछ बैठे,बुद्ध शांत । बहुत आग्रह पर आत्मज्ञान होने के बाद पहली बार बोलते हैं तथागत उन्हीं पांच पंडितों से जिन्होंने कभी सिद्धार्थ को ज्ञान दिया था।आज उसके ठीक विपरीत पांचों पंडित उनसे ज्ञान ले रहे हैं । पहली बार आज पांचों पंडितों ने धार्मिक ग्रंथों से ऊपर उठकर नई सोच के लिए अपने मस्तिष्क के द्वार खोले।सुनकर चकित रह गए, सब कुछ पाना इतना सरल है ।जीवन के सार की बात सुनी पहली बार कि इच्छाओं से मुक्ति ही दुःखों से मुक्ति है।पांचों पंडितों ने तथागत को प्रणाम किया और आज सर्वप्रथम परम ज्ञान का सार सुनकर बोल पड़े -"जीवन का सार समझाने वाले,आभार है आपका ।हमारा प्रणाम स्वीकार करें, हे सारनाथ।" वाराणसी में यह स्थान जहाँ पांचों पंडितों ने बुद्ध से ज्ञान लिया,वह कहलाया सारनाथ। इसी दिन से सारनाथ बन गया,तथागत का उपदेश स्थल।वाराणसी में आदि देव काशी विश्वनाथ और परमात्मा के नवें अवतार भगवान बुद्ध दोनों विराजते हैं।परम सौभाग्य है, हम भारतीयों का कि हमनें इस पावन भारत भूमि पर जन्म लिया।
जय काशी विश्वनाथ।बुद्धं शरणं गच्छामि।।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम् ।।

Monday, December 10, 2018

माँ विंध्यवासिनी

वाराणसी से 170 किलोमीटर की दूरी पर मिर्ज़ापुर जिले में एक शहर है, विंध्याचल ।  यह शहर गंगा नदी के किनारे स्थित है।पुराणों में विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में वर्णित है। विंध्याचल की पहाड़ियों में गंगा की पवित्र धाराओं की कल-कल करती ध्वनि, प्रकृति की अनुपम छटा बिखेरती है। विंध्याचल शहर से होकर भारतीय मानक समय (I S T) की रेखा गुजरती है।यहां पर आदिशक्ति विंध्यवासिनी का प्रसिद्ध मंदिर है।मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, माँ विन्ध्यवासिनी ने महिषासुर का वध करने के लिए अवतार लिया था।कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिध्दि प्राप्त होती है।ऐसी मान्यता है कि सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता।
        त्रेता युग में भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजीके साथ विंध्याचल आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वर महादेव से इस शक्तिपीठ की माहात्म्य और बढ गया है। द्वापर युग में मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी सन्तानों का वध करने लगा। तब वसुदेवजीके कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचण्डी का अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप वे गोकुल में नन्दराय के यहाँ अवतरित हुई।
          श्रीमद्भागवत महापुराण के श्री कृष्ण जन्म वृत्तान्त में भी यह बात वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से अवतार लिए श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातों रात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
      इस पावन तीर्थ स्थल पर भी भीड़ बहुत रहती है, जिसका फायदा पंडे उठाने का प्रयास करते हैं।जिसके कारण श्रद्धालुओं को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।जिस स्थल पर विंध्यवासिनी का निवास है, वहां श्रद्धालुओं के भक्ति भाव को ठेस नहीं पहुंचे, सभी का यह प्रयास रहना चाहिए।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम् ।।

Sunday, December 9, 2018

काशी के तुलसी

महान संत गोस्वामी तुलसीदास जी की चर्चा किये बिना  वाराणसी की महिमा अधूरी रहेगी। पत्नी से हुए वार्तालाप ने उनकी आंखें खोल दी और वे वहां से निकलकर प्रयाग होते हुए सर्वप्रथम काशी पहुंचे। वहां लोगों को रामकथा सुनाने लगे । वहां से वे चित्रकूट चले गए जहां उनको अपने आराध्य श्री राम के दर्शन हुए। भगवान के आदेश से गोस्वामीजी चित्रकूट से अयोध्या की ओर चल दिये। वहां से सर्वप्रथम काशी आये । यहां आकर उन्होंने राम चरित्र लिखना प्रारम्भ किया। दिनभर बैठे लिखते रहते और रात को सारा लिखा हुआ साफ हो जाता। बड़ा आश्चर्य होता उन्हें।एक दिन रात को स्वप्न में दर्शन देकर भगवान शंकर ने आदेश दिया कि तुम संस्कृत में लिखना छोड़ कर अपनी भाषा हिंदी में लिखो । गोस्वामीजी ने दूसरे दिन ही अयोध्या का रुख कर लिया। वहां पहुंचकर अपनी भाषा में ही रामचरितमानस ग्रंथ लिखा।
      ग्रंथ का लेखन समापन कर वे काशी लौट आये और सर्वप्रथम भगवान शंकर को विश्वनाथ मंदिर में कथा सुनाई।रात को मंदिर में श्री रामचरितमानस की प्रति रख दी गई। प्रातः उस प्रति पर भगवान विश्वनाथ के हस्ताक्षर से सत्यं शिवं सुंदरं लिखा मिला । इससे उत्साहित होकर गोस्वामीजी लोगों के समक्ष रामचरित मानस का सस्वर पाठ करने लगे। धीरे धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। इससे काशीजी के पंडे बड़े चिंतित हुए, उन्हें अपने साम्राज्य की दीवारें ढहती नज़र आने लगी।
      ब्राह्मणों की तुलना उस केकड़ों से भरी खुली टोकरी से की जा सकती है, जिसमें से एक भी केकड़ा बाहर नहीं निकल सकता क्योंकि वे एक दूसरे का उत्थान देख नहीं सकते। ऊपर उठने वाले केकड़े की टांग उसके नीचे वाले केकड़ा पकड़ कर खींच लेता है। ऐसा ही पंडितों ने काशी में तुलसी के साथ किया।उन्होंने बहुत प्रयास किया, श्री रामचरितमानस को नष्ट करने का, परंतु सफल नहीं हुए। फिर तो इस ग्रंथ की लोकप्रियता बढ़ती गई। ग्रंथ की कई हस्तलिखित प्रतियां तैयार की जाने लगी। काशी में रहते हुए गोस्वामीजी ने अन्य कई ग्रंथ लिखे ।
आज भी वाराणसी में वह स्थल मौजूद है, जहां तुलसीदासजी ने निवास और अपना लेखन कार्य किया। गंगा तट पर असि घाट के निकट तुलसी घाट भी है। असि घाट पर ही उन्होंने अपने जीवन का संध्या काल बिताया और 126 वर्ष की आयु में वे ब्रह्मलीन हो गए। काशी ऐसे कवि की सदैव ऋणी रहेगी।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम् ।।

Saturday, December 8, 2018

गुरु और शिष्या-रैदास और मीरां बाई

मीरा बाई से रैदास का जुड़ाव
संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में माना जाता है जो कि राजस्थान के मेड़ता के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी। वो संत रविदास के अध्यापन से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी। अपने गुरु के सम्मान में मीरा बाई ने कुछ पंक्तियाँ लिखी है-
“गुरु मिलीया रविदास जी-”।
वो अपने माता-पिता की एक मात्र संतान थी जो बाद में चितौड़ की रानी बनी। मीरा बाई ने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया जिसके बाद वो अपने दादा जी के संरक्षण में आ गयी जो कि रविदास जी के अनुयायी थे। वो अपने दादा जी के साथ कई बार गुरु रविदास से मिली और उनसे काफी प्रभावित हुयी। अपने विवाह के बाद, उन्हें और उनके पति को गुरु जी से आशीर्वाद प्राप्त हुआ। बाद में मीराबाई ने अपने पति और ससुराल पक्ष के लोगों की सहमति से गुरु जी को अपने वास्तविक गुरु के रुप में स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने गुरु जी के सभी धर्मों के उपदेशों को सुनना शुरु कर दिया जिसने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा और वो प्रभु भक्ति की ओर आकर्षित हो गयी। कृष्ण प्रेम में डूबी मीराबाई भक्ति गीत गाने लगी और दैवीय शक्ति का गुणगान करने लगी।
अपने गीतों में वो कुछ इस तरह कहती थी:
“गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी ।
चोट लगी निजनाम हरी की म्हारे हिवरे खटकी”।।
दिनों-दिन वो ध्यान की ओर आकर्षित हो रही थी और वो अब संतों के साथ रहने लगी थी। उनके पति की मृत्यु के बाद उनके देवर और ससुराल के लोग उन्हें देखने आये लेकिन वो उन लोगों के सामने बिल्कुल भी व्यग्र और नरम नहीं पड़ी। बल्कि उन्हें तो आधी रात को उन लोगों के द्वारा गंभीरी नदी में फेंक दिया गया था लेकिन गुरु रविदास जी के आशीर्वाद से वो बच गयी।
एक बार अपने देवर के द्वारा दिये गये जहरीले दूध को गुरु जी द्वारा अमृत मान कर पी गयी और खुद को धन्य समझा। उन्होंने कहा कि:
“विष को प्याला राना जी भिजाय दिया,
जाओ देओ मेड़तनी न पाय ।
कर चरणामृत पी गयी रे,
गुण गोविन्द रा गाय”।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, December 7, 2018

बनारस - भक्त रैदास

बनारस में भगवान के भक्त भी पैदा हुए हैं जिनमें संत कबीर और रविदास(रैदास)प्रमुख हैं।दोनों ही निम्न और वंचित तबकों से आते हैं। उस समय अस्पृश्यता अपने चरम पर थी।भक्ति किसी विशेष जाति अथवा तबके की गुलाम नहीं होती। आज जिस प्रकार का जातिवाद का जहर चारों ओर फैलता ही जा रहा है उससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि सनातन धर्म किन विपरीत परिस्थितियों से गुजर रहा है। कबीर और रैदास के युग में भी जातिवाद कम न था। जातिवाद के आधार पर निम्न वर्ग के लोगों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था।आज भी काशी विश्वनाथ मंदिर ही नहीं बल्कि यहां के प्रत्येक मंदिर में प्रवेश के लिए भेदभाव किया जा रहा है परंतु आज यह भेदभाव जाति आधारित न होकर धन आधारित हो गया है। वाराणसी के मंदिरों में दर्शन के लिए जिस प्रकार पंडे लोगों से लूट करते हैं, मन खराब हो जाता है।दर्शन के लिए जाति को कोई नहीं पूछता बल्कि धन की पूछ अवश्य होती है। अतः कहा जा सकता है कि हमारे मंदिरों का एक मात्र धन ही केंद्र बिंदु बन गया है। हमें भी शीघ्र दर्शन का लालच दिया गया था परंतु मैंने कहा कि दर्शन के एवज में पैसा नहीं देना है।प्रातःकाल मंगला आरती के समय विश्वनाथ मंदिर में भीड़ नाम मात्र की होती है। प्रातः चार बजे जाकर सुगमता से दर्शन हो सकते हैं।हमने भी प्रातः 4 बजे ही दर्शन किये हैं।
खैर, छोड़िए इन बातों को।जब तक धन है,तब तक यह खेल चलता रहेगा। हाँ, तो बात हो रही थी भक्तों की। रैदास का जन्म भी वाराणसी में हुआ था।वही रैदास, जो मेड़ता में जन्मी और मेवाड़ के राजघराने में ब्याही  मीरा बाई के गुरु थे। अस्सि घाट से जब बनारस हिंदू विश्व विद्यालय की ओर जाते हैं, तब रास्ते में पड़ने वाले लंका चौराहे पर संत रैदास गेट बना हुआ है।  संत रविदास नगर और गंगा नदी पर संत रवि दास घाट भी बना हुआ है। रैदास जयंती माघ शुक्ला पूर्णिमा को आती है।
         15वीं-16वीं शताब्दी के इस महान संत ने सनातन धर्म में फैली प्रतिमा पूजन की क्रियाओं को सरल बनाया,जिससे बनारसी पंडित नाराज़ भी हुए। इसकी शिकायत पंडितों ने तत्कालीन बनारस महाराजा से की। तब महाराजा ने आदेश दिया था कि कल दशाश्वमेध घाट पर पंडित अपनी मूर्ति और रैदास अपनी मूर्ति लेकर पहुंचें।वहां अपने अपने विधान से उनकी पूजा करे और फिर दोनों ही मूर्तियों को गंगा में प्रवाहित करें।जिसकी मूर्ति तैरती रहेगी, उसी की पूजा सत्य मानी जायेगी।
निश्चित दिन पर भारी भीड़ के समक्ष, राजा की उपस्थिति में मूर्तियों की पूजा दोनों पक्षों द्वारा की गई  पंडितो की मूर्ति हल्की थी और उन्होंने कई प्रकार के मंत्रोच्चार कर उसकी पूजा की। रैदास की मूर्ति बहुत भारी थे।उन्होंने साधारण रूप से दत्तचित्त होकर उसकी पूजा की। पूजा के उपरांत दोनों मूर्तियों को गंगा की धारा को समर्पित किया गया। पंडितों की मूर्ति कम वजन की होने के बावजूद डूब गई जबकि रैदास की मूर्ति भारी होकर भी गंगा की जल सतह पर तैरती रही।राजा ने रैदास की पूजा को मान्यता दी। उसके बाद रैदास ने कई पद, दोहे और साखियाँ भी लिखी।ऐसे महान भगवद्भक्त को प्रणाम।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, December 6, 2018

वाराणसी-एक नारी योद्धा की जन्मभूमि

कभी कभी अध्यात्म की तात्विक बातों से बाहर निकलकर अवलोकन करना चाहिए कि इस पावन धरा पर सनातन धर्म की रक्षा और देश को स्वतंत्रता दिलाने में किन योद्धाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।आज मैं उनमें से ही एक योद्धा के बारे में बात करने जा रहा हूँ, जो एक नारी होते हुए भी स्वाभिमान और देश के लिए जीवन भर संघर्ष रत रही। बचपन में मां चल बसी, एक मात्र पुत्र भी अपने जीवन के प्रथम तीन माह भी सांस न ले सका और इतना ही नहीं,पुत्र वियोग से निकल ही नहीं पाई थी कि पति चल बसे। ऐसे में अपनी मातृभूमि की रक्षा करने का भार नाज़ुक कलाइयों पर आ गया।भारत भूमि वीरों की भूमि है।यहां पर नारियां जौहर भी करती है और शत्रुओं के दांत खट्टे भी। चलिए!आज बात करते हैं,उस नारी योद्धा की जिसने वाराणसी की धरा पर जन्म लिया।
          वाराणसी, केवल भगवान और भक्तों की नगरी ही नहीं है अपितु यहां की वीर प्रसूताओं ने योद्धाओं को भी पैदा किया है। आपका सिर गर्व से आसमान को छूने लगता है, जब आपका सामना होता है,"मैं अपनी झांसी नही दूँगी" कहने वाली वीर योद्धा नारी की जन्म स्थली पर लगी उनकी मूर्ति से।क्या मूर्ति बनाई है, कलाकार ने? लगता है घोड़े पर सवार हुई यह वीर नारी अपने हाथ में लहरा रही इस नंगी तलवार से सामने पड़ने वाले सभी शत्रुओं के सर काट डालेगी।दत्तक पुत्र भी पीठ पर सवार होकर अपनी मां का हौसला बढ़ा रहा प्रतीत होता है।सतत नमन करते रहने का मन करता है, इस मूर्ति को। बूढ़ी हो रही बाजुएं भी फड़क उठती है, इस वीर नारी की गाथा को पढ़कर, जिसे एक पत्थर पर यहां उकेरा गया है।"खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी",सुभद्रा कुमारी चौहान जी, सत्य को काव्य के माध्यम से इतने शानदार रूप में आपके अतिरिक्त कोई अन्य प्रस्तुत नहीं कर सकता था। एक नारी ही दूसरी नारी के भावों को लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त कर सकती है।अब तो अंग्रेज़ देश छोड़कर चले गए हैं परंतु यह सत्य है कि उस 1857 की क्रांति के दौर में केवल डलहौजी ही क्यों, कोई भी शत्रु रानी लक्ष्मीबाई के रहते चैन से नहीं सो सका था। रात को सपनों में भी उन्हें रानी लक्ष्मीबाई घोड़े पर नंगी तलवार लेकर अपनी तरफ लपकती नज़र आती थी। लिखने को तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है परंतु जितना भी लिखूंगा, ऐसे महान व्यक्तित्व के सामने वह तुच्छ ही होगा। मैं अब उठता हूँ इस पावन स्थल से और चलता हूँ, पास ही स्थित गंगा घाट की ओर, गंगा घाट की उस मिट्टी को उठाकर अपने मस्तक पर लगाने को, जहाँ बचपन में मनु (लक्ष्मी बाई)खूब खेली होगी ।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, December 5, 2018

काशी/वाराणसी

पिछले चार दिनों से काशी के भ्रमण पर हूँ। आज वापिस लौटना है, मन तो नहीं कर रहा यहां से जाने का परंतु संसार चक्र के भ्रमण में स्थायित्व का अभाव है, इसलिए जाना और आना यहां की नियति है। काशी अर्थात वाराणसी जिसे आम बोलचाल में आजकल बनारस कहते हैं, बड़ी ही शानदार जगह है। यहां काशी विश्वनाथ नाम से शिवजी का ज्योतिर्लिंग है। यहां के घाट और उन घाटों पर होने वाली सायंकालीन गंगा-आरती दर्शनीय है। इस स्थान का नाम काशी और वाराणसी कैसे पड़ा, इसके बारे में शंकर और पार्वती के मध्य हुआ एक संवाद है।
एक बार पार्वती किसी छोटी सी बात को लेकर शंकर भगवान से नाराज होकर कैलाश को छोड़कर चल दी। वह एक स्थान पर आकर रहने लगी जिसे आज हम काशी/वाराणसी/ बनारस कहते हैं। थोड़े दिन तो गुस्से में होने के कारण उसे शंकर के पास नहीं जाने की जिद्द रखी परंतु कुछ समय बाद उसे अपने पति की याद सताने लगी। नारी स्वभाव वश वह शंकर के द्वारा अनुनय विनय किये बिना उनके पास लौटना भी नहीं चाहती थी। मन को लगाने के लिए वह प्रतिदिन प्रातःकाल गरीबों को दान देने लगी और भोजन कराने लगी । इधर कैलाश में भी शंकरजी का हाल भी पार्वती से भिन्न नहीं था। पत्नी की याद में उनके दिन भी काटे नहीं कट रहे थे। दोनों के पुनःमिलन के मध्य केवल एक ही प्रश्न था - पहले कौन किसके पास जाए, मिलने की पहल कौन करे ? थक हार कर शंकरजी ने ही पहल की परंतु पुरुष स्वभाव के कारण वे मन में मिलन की भावना होते हुए भी उसे प्रदर्शित नहीं करना चाहते थे।
    दीनानाथ ने दीन हीन का वेश बनाया और पहुंच गए अपनी प्रिया को देखने। प्रातःकाल वे भी दान लेने वालों की पंक्ति में जा बैठे। पार्वती आई, देखकर शम्भू सुध बुध खो बैठे। पार्वती ने देना चाहा परंतु शंकर तो हाथ फैलाने के बजाय बस उनके मुख मंडल की ओर ही देखे जा रहे थे। पार्वती झट से पहचान गई। यह कोई दीन हीन नहीं है, हो न हो ये वही है जिनसे मिलने को मैं भी इतने दिनों से व्याकुल हो रही हूं। फिर भी मन के भीतर एक संदेह, भला एक पुरुष पहल कैसे कर सकता है ? यह व्यक्ति यहां भिक्षा ग्रहण करने तो नहीं आया है फिर यहां क्या कर रहा है ? इतनी देर से केवल मुझे ही क्यों निहार रहा है ? आखिर पूछ ही बैठी -"कः असि" अर्थात कौन ? यह आप क्या कर रहे हैं? पार्वती के मुख से केवल ये दो शब्द सुनकर शिव मुस्कुरा दिए और बोले-"वरण असि" अर्थात जिसको आपने वरण किया है । सुनकर पार्वती को होश ही नहीं रहा । वे अपनी सुध बुध खो बैठी । उनके हाथ से वासन छूट गए, शरीर के वसन भी नियंत्रण में नहीं रहे, झट से शंकर के चरणों मे गिरकर अपनी गलती की क्षमा मांगने लगी।अंततः शिव का भी धीरज छूट गया, उठाकर प्रिया को हृदय से लगा लिया।पार्वती ने अश्रु भरे नेत्रों से शिव से केवल एक ही आग्रह किया-"मैं आपके विरह में इतने लंबे समय तक यहां व्याकुल रही,अतः इस स्थान को छोड़कर नहीं जाना चाहती । इस स्थान को भी हमें अपना निवास स्थान  बना लेना चाहिए। इस प्रकार पार्वती के प्रश्न कः+असि से काशी और शंकर भगवान के उत्तर  वरण+असि से वाराणसी, इस स्थान को ये दोनों नाम मिले । वाराणसी का धीरे धीरे अपभ्रंश होकर बनारस हो गया। पार्वती के प्रश्न से काशी का जन्म हुआ और शंकर के उत्तर से विश्वनाथ वाराणसी का। वाराणसी अर्थात जिसका पार्वती ने वरण किया यानी विश्वनाथ, इस प्रकार पार्वती के द्वारा पूछे गए प्रश्न और शम्भू के दिए गए उत्तर से काशी विश्वनाथ के नाम से यह स्थान प्रसिद्ध हुआ और इसी नाम से यहां शंकर विराजते हैं।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम् ।।

Tuesday, December 4, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेज़ी भाषा-10-समापन

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेजी भाषा-10-समापन
दसवां बिंदू -
Please don't use loose translation like meditation for "dhyana" and 'breathing exercise' for "Pranayama". It conveys wrong meanings. Use the original words
         Meditation शब्द जबसे इस देश मे आया है, हम सब ने 'ध्यान' पर ध्यान देना प्रारम्भ कर दिया है।जब से 'योग' yoga बनकर आया है, हम सब yoga करने लगे हैं। इसी प्रकार जब से breathing exercise की सलाह चिकित्सक देने लगे हैं, हमने 'प्राणायाम' करना प्रारम्भ कर दिया है।महर्षि पतंजलि ने हजारों वर्ष पहले 'योग' की अवधारणा दी थी।इसको 'अष्टांग योग'कहा जाता है।ध्यान और प्राणायाम इन आठ अंगों में केवल मात्र दो अंग हैं।इन दो अंगों के अंग्रेज़ी रूपांतरण ने इनके मूल ध्येय को भूल दिया गया है।meditation को आज केवल दिखावे की एक वस्तु बना दिया गया है जबकि ध्यान बहुत ही उच्च स्तर की बात है। Meditation करके भले ही आप अपने आपको गौरवान्वित महसूस करें परंतु मन की शांति जो ध्यान से मिलती है, वह meditation से नहीं।
      यही स्थिति प्राणायाम की है। Breathing exercise, आपकी सांस लेने की क्षमता बढ़ा सकती है परंतु सांसों पर नियंत्रण प्राणायाम करने से ही स्थापित होगा। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सांस केवल रक्त में ऑक्सिजन देने का और कार्बन डाई ऑक्साइड को शरीर से बाहर निकलने का कार्य करती है। पतंजलि कहते हैं कि सांस से संचालित होने वाले प्राण भी एक नहीं, पांच है जबकि आधुनिक विज्ञान केवल रक्त के ऑक्सिकरण की बात तक सीमित है।प्राणायाम को Breathing exercise बोलने से प्राणायाम के क्षेत्र को सीमित कर दिया जाता है।इसी प्रकार ध्यान को meditation कहने से उससे मिलने वाले लाभ को कमजोर कर दिया जाता है।अतः हमें अष्टांग योग के इन दो महत्वपूर्ण अंगों को इनके मूल नाम ध्यान और प्राणायाम से ही पुकारना चाहिए।आधुनिकता और अंग्रेजियत के प्रभाव में आकर हमें हमारी सांस्कृतिक धरोहर को क्षति नहीं पहुँचाना चाहिए और केवल मूल शब्दों का ही उपयोग करना चाहिए।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, December 3, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा -9

सनातन धर्म - हिंदी/अंग्रेजी भाषा-9
नवम् बिन्दू -
Please don't use the word "Sin" instead of "Paapa". We only have Dharma (duty, righteousness, responsibility and privilege) and Adharma (when dharma is not followed).  Dharma has nothing to do with social or religious morality. 'Paapa' derives from Adharma.
        पाप और पुण्य कर्मों से संबंधित हैं।जो कर्म शास्त्र और धर्म के अनुकूल हों, वे सभी कर्म शुभ कर्म अथवा पुण्य कर्म कहलाते हैं।जो कर्म धर्म और शास्त्र के प्रतिकूल हों, वे सभी कर्म अशुभ कर्म अथवा पाप कर्म  कहलाते हैं।धर्म चार पुरुषार्थों में से एक पुरुषार्थ है । धर्म का अर्थ है, सत्य के मार्ग पर चलना और अधर्म का अर्थ है धर्म का त्याग कर देना।हम सभी जानते हैं कि सत्य का मार्ग कौन सा है?जिस कर्म को करने से अन्तः करण किञ्चित भी विचलित न हो, वे सब मार्ग सत्य के मार्ग हैं।आपका अंतःकरण आपको अधर्म के मार्ग पर होने पर कम से कम एक बार चेतावनी अवश्य ही देता है।उस चेतावनी को अनसुना करके अधर्म को अपना लेना ही पाप है।
     सनातन धर्म केवल सत्य की राह पर चलने की प्रेरणा देता है।देखा जाए तो हमारी संस्कृति मूलतः धर्म पर ही आधारित है, इसमें अधर्म का कोई स्थान ही नहीं है।अधर्मी को यहां पर सदैव ही हेय दृष्टि से देखा गया है।पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हमने हमारे धर्म मार्ग को छोड़ना प्रारम्भ कर दिया है।धर्म के मार्ग पर चलते रहने से ही व्यक्ति जीवन में कभी भी अशांत नहीं हो सकता।इसलिए धर्म का किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं करना चाहिए।
      जहां तक मूल शब्दों की बात है, पुण्य और पाप शब्दों के स्थान पर धर्म और अधर्म शब्द अधिक उपयुक्त है।पुण्य और पाप चर्च की देन है, जिसको हमने धर्म और अधर्म के स्थान पर उपयोग में लेना प्रारम्भ कर दिया है।हमारे शास्त्रों में मुख्यतः धर्म और अधर्म की बात कही गई है और कर्म शुभ व अशुभ बताए गए हैं।अतः हमें केवल धर्म और अधर्म शब्दों का उपयोग ही बोलचाल और लेखन में  करना चाहिए ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, December 2, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा-8

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा -8
अष्टम बिंदु-
Please avoid using the words "spirituality" and "materialistic". For a Hindu, everything is divine. The words spirituality and materialism came to India through evangelists and Europeans who had a concept of Church vs State. Or Science vs Religion. On the contrary, in India, Sages were scientists and the foundation stone of Sanatan Dharma was Science.
Spirituality का हिंदी शब्दार्थ है, आध्यात्मिकता और materialistic का अर्थ है, भौतिकता।अध्यात्म स्वयं को जानना है।जब व्यक्ति स्वयं को जान जाता है तब भौतिकता का कोई अर्थ नहीं रह जाता।व्यक्ति का आत्म ज्ञान उसे परमात्मा तक ले जाता है। सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हो जाने पर सभी व्यक्ति, वस्तुओं में परमात्मा का होना दिखने लगता है।इसलिए प्रत्येक स्थान दिव्य होता है।जहां दिव्यता दिखलाई देने लगती हैं वहां आध्यात्मिकता और भौतिकता गौण हो जाती है।
         ईसाई धर्म प्रचारकों और आधुनिक विज्ञान ने ये शब्द गढ़ें हैं और अज्ञान के कारण हमने इन अंग्रेज़ी शब्दों को पकड़ लिया है।दिव्यता का अनुभव होने पर ही हमें आभास होता है कि सब कुछ परमात्मा है,उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।
        सनातन धर्म और संस्कृति में हमारे पूर्वजों को ऋषि और मुनि कहा गया है। हमारे ऋषि उस काल के महान वैज्ञानिक थे और मुनि महान दार्शनिक।सुश्रुत, चरक,कणाद,वराहमिहिर,आर्यभट्ट आदि ऋषि थे जिन्होंने बहुत वैज्ञानिक शोध किये हैं और आधुनिक विज्ञान को शोध के लिए आधार प्रदान किया है।कपिल, अगस्त्य, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि मुनि कहलाये,जिन्होंने अपनी दार्शनिकता से संसार को प्रभावित किया है।
      हमारी सनातन संस्कृति सदैव ही महान रही है।पिछले दो हज़ार वर्षों से इसको हीन कहने का दुष्प्रचार किया जा रहा है।इस का तोड़ एक मात्र यही है कि हम अपना साहित्य पढ़ें और जानें कि हम क्या थे ? आर्यभट्ट और रामानुजम जैसे गणितज्ञ आज तक संसार में पैदा नहीं हुए हैं।एक बार अगर वराहमिहिर और कणाद को पढ़ लिया तो न्यूटन और आइंस्टीन की वास्तविकता को जान जाएंगे अन्यथा हम भविष्य में भी महान वैज्ञानिकों के रूप में न्यूटन और आइंस्टीन  के ही गुण गाते रहेंगे । हमारी संस्कृति की दिव्यता इसी बात से सिद्ध हो जाती है कि श्री मद्भागवत महापुराण, जो वेद व्यास द्वारा आज से लगभग 5000वर्ष पूर्व लिखी गयी थी, में आज के चिकित्सा विज्ञान द्वारा सिद्ध की गई बातें वर्णित है।दिव्यता का विषय बहुत लंबा विषय है, इस पर फिर कभी बात करेंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, December 1, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेज़ी भाषा-7

सनातन धर्म- हिंदी/अंग्रेजी भाषा -7
सप्तम बिंदु-
Please don't wish your children "black birthday" by allowing  them to blow off the candles that are kept on top of the birthday cake. Don't throw spit on the divine fire (Agni Deva). Instead, ask them to pray: "Oh divine fire, lead me from darkness to light" (Thamasoma Jyotirgamaya) by lighting a lamp. These are all strong images that go deep into the psyche.
मनुष्य जन्म के साथ ही मृत्यु की ओर जाने की यात्रा प्रारम्भ कर देता है। इस मनुष्य के रूप में जीवन के कितने दिन शेष रहे हैं, कोई नहीं जानता।मनुष्य जीवन मिला ही आत्म बोध के लिए, अज्ञान में जीने के लिए नहीं।पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव हमारे ऊपर भी पड़ा है।हमारे यहां जन्म दिन के उत्सव पर न तो केक काटने की प्रथा कभी रही है और न ही मोमबत्ती बुझाने की। आधुनिकीकरण के प्रभाव ने जन्मोत्सव और जन्म दिन मनाने की प्रथा ने विकृत रूप धारण कर लिया है।
सही मायने में जन्म दिन इस प्रकार मनाया जाना चाहिए जिससे व्यक्ति उस दिन शांति से बैठकर अपने बीते हुए वर्षों का विश्लेषण करें और नए वर्ष में प्रवेश कर आगे की योजना पर विचार करे।
         हम अपने पूर्व मानव जीवन में अज्ञान में जी रहे थे, तभी तो हमारा पुनर्जन्म हुआ है। पुनर्जन्म इसलिए हुआ है कि हम अज्ञान को छोड़कर ज्ञान की ओर जाएं।ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ है, हम आत्म बोध को उपलब्ध हो।आत्म बोध को उपलब्ध होने का अर्थ है,स्वयं को प्रकाशित करना। हमारी संस्कृति में जन्म दिन दीप जलाकर मनाया जाता है, न कि दीप बुझाकर। दीप प्रज्वलित करने का अर्थ है, परमात्मा हमारे अज्ञान रूपी अंधकार को हर कर इस मनुष्य जीवन को ज्ञान से प्रकाशित कर दे।'तमसो मा ज्योतिर्गमय' कहने का अर्थ यही है।अग्नि को हम देवता मानते हैं और जन्म दिन के दिन दीप प्रज्वलित कर उनसे हम अपने जीवन से अज्ञान को दूर कर ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण करने की कामना करते हैं।अतः जीवन मे जन्म दिन दीप प्रज्वलित कर मनाएं न कि उन्हें बुझाकर।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, November 30, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा-6

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेजी भाषा-6
छठा बिंदू -
Please don't refer to our temples as prayer halls. Temples are "devalaya" (abode of god) and not "prarthanalaya" (Prayer halls).
परमात्मा से प्रार्थना कहाँ की जाती है ? सनातन दर्शन में परमात्मा की उपस्थिति प्रत्येक स्थान पर होना स्वीकार की गई है।इसलिए प्रार्थना के लिए कोई विशेष स्थान नियत नहीं है,परमात्मा की प्रार्थना सभी स्थानों पर की जा सकती है।चर्च,गुरुद्वारा, मस्जिद तथा मंदिर को प्रार्थना स्थल कहा अवश्य जाता है परंतु केवल इन्हीं स्थानों पर ही परमात्मा से की गई प्रार्थना स्वीकार  होती हो,ऐसी बात नहीं है। मंदिर को देवालय कहें अथवा और कुछ, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। हाँ, जिस मंदिर में देवता की प्रतिमा स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा की गयी हो, उस स्थान का महत्व अन्य स्थान की तुलना में अवश्य ही अधिक हो जाता है। ऐसे स्थान पर परमात्मा के विग्रह के कारण हमारी मानसिकता में परिवर्तन आ जाता है। सनातन धर्म का अनुगामी चोर भी अगर उस मंदिर में प्रवेश करता है, तो उसके भीतर का चौर्य भाव विग्रह को देखकर ही समाप्त हो जाता है। व्यभिचारी भी मंदिर में व्यभिचार करने से कतराता है।
आजकल मंदिरों की मर्यादा भी तार तार होती देख रहे हैं।इसका कारण है कि लोग विग्रह को भगवान न मानकर मात्र पत्थर ही मानने लगे हैं। मेरी बात को अन्यथा न लें, यह आज की वास्तविकता है कि विग्रह की प्रतिदिन सेवा-पूजा करने वाले व्यक्ति को भी उस मूर्ति में भगवान के होने पर विश्वास नहीं है। परमात्मा तो बहुत बड़ी बात है, मैं तो यहां तक कहता हूँ कि यह भौतिक संसार भी विश्वास पर टिका है।ऐसे में मूर्ति में भगवान होने के विश्वास को खंडित होते देखकर मन में ग्लानि अवश्य होती है। फिर भी कुछ स्थानों को अपवाद स्वरूप छोड़ दे तो अभी भी इस देश में मंदिरों के प्रति लोगों की आस्था बनी हुई है।
अनुचित कर्म करने के लिए प्रायः मंदिर का उपयोग नहीं किया जाता। मंदिर में पाप कर्म करने से बचने की सोच ही इसको प्रार्थना स्थल अथवा सभागार से कुछ अलग स्थान प्रदान करती है। जिस प्रकार चोर चोरी किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति में नहीं करता, अपराधी भी अपराध छुपकर करता है किसी अन्य के सामने नही करता, उसी प्रकार देवालय में भगवान की उपस्थिति मानकर कोई भी वहां अशुभ कर्म नहीं करना चाहता।मूर्ति की उपस्थिति मंदिर में परमात्मा के वहां होने का अहसास कराती है। इसलिए मंदिर को मात्र प्रार्थना स्थल न कहकर देवालय कहना अधिक उपयुक्त होगा।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, November 29, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेज़ी भाषा -5-

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा-5
पंचम बिंदु-
Please don't refer to Ganesh and Hanuman as "Elephant god" and "Monkey god" respectively. You can simply write Shree Ganesh and Shree Hanuman.
भगवान को कोई क्या कहता है उससे क्या फर्क पड़ता है ? हमारी आस्था कहाँ पर स्थिर है, यह बात मुख्य है। जो यह नहीं जानते कि गणेश के हाथी का मुंह क्यों लगा, वे ही ऐसा कहते हैं।गणेश भगवान है चाहे उनका सिर हाथी का ही क्यों न हो। हम हाथी में भी भगवान देखते हैं और मनुष्य में भी। गणेश में दोनों उपस्थित है परंतु देखा जाए तो दोनों अलग अलग नहीं है। यही बात हम हनुमानजी के बारे में कह सकते हैं, वानर में भी तो वही ईश्वर विराजमान है, जो आप में और हम में है। क्षणिक हमें यह आभास हो सकता है कि गणेश को elephant god अथवा हनुमान को monkey goad क्यों कहा दिया ? अंग्रजी भाषा में प्रत्येक नाम को उसी रूप में लिखा जाता है, जैसा कि उसका उच्चारण किया जाता है जैसे कि मेरा नाम प्रकाश है तो यह Prakash ही लिखा जाएगा light नहीं।
     अंग्रेजी का अधूरा ज्ञान रखने वाला ही गणेश को elephant god लिख सकता है अथवा वह लिखेगा जो हमारे धर्म को हीन समझकर उसका मजाक बनाना चाहता हो। हनुमान वानर थे, जो काम वानर कर सकता है, मनुष्य नहीं कर सकता। बंदर की छलांग देखी है न, वैसी छलांग लगाने वाला ही भारत भूमि से लंका जा सकता है। बच्चे की चंचलता देखकर हम उसे बंदर कह देते हैं, इससे वह बंदर नही हो जाता।
      आज गणेशजी का  हाथी का मुंह देखकर लोग हंस सकते हैं, परंतु शीघ्र ही विज्ञान head transplant करने में सफल होने जा रहा है,तब ऐसे लोगों को हमारी पुरातन शल्य चिकित्सा पद्धति का लोहा मानना होगा।अतः ऐसी बातों और इस प्रकार के अनुचित लेखन पर ध्यान न दें।साथ ही हम सभी सनातन धर्मावलंबियों का कर्तव्य बनता है कि कम से कम हम स्वयं तो अपने देवताओं का न तो उपहास करें और न ही किसी को करने दें।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, November 28, 2018

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेज़ी भाषा -4

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेजी भाषा -4
चतुर्थ बिंदु -
Please don't be apologetic about idol worship and say “Oh, that's just symbolic". All religions have idolatry in kinds or forms - cross, words, letters (calligraphy) or direction.
Also let's stop using the words the words 'idols', 'statues' or 'images' when we refer to the sculptures of our Gods.
Use the terms 'Moorthi' or 'Vigraha'. If words like Karma, Yoga, Guru and Mantra can be in the mainstream, why not Moorthi or Vigraha?
सनातन धर्म में मूर्ति पूजा का बड़ा महत्व है।मूर्ति पूजा का कई व्यक्ति विरोध करते हैं। मैं कहता हूं कि आप मूर्ति पूजा में विश्वास रखते हैं अथवा नहीं, यह बात आपके विचारों की है परन्तु इसका विरोध कदापि न करें। मूर्ति पूजा में विश्वास न रखना और मूर्ति पूजा का विरोध करना, दोनों अलग अलग बातें हैं।ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते थे कि किसी भी बात का खंडन मंडन कभी भी नहीं करना चाहिए।सभी बातें न तो पूर्णतया सत्य होती है और न ही असत्य। सत्य केवल परमात्मा हैं। आप मूर्ति अथवा विग्रह में परमात्मा देख पा रहे हैं तो फिर मूरत/विग्रह सत्य है।उसकी पूजा करना भी सही है। मूर्ति उसी के लिए परमात्मा है, जो उसमें पत्थर न देखकर परमात्मा को देखता है।हम मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा इसीलिए कराते हैं जिससे हमें यह विश्वास हो जाये कि इसमें अथवा यह अब पत्थर न होकर भगवान है।
सनातन धर्म कण कण में भगवान को मानता है।ऐसे में कहा जा सकता है कि प्रत्येक स्थान,वस्तु और व्यक्ति में ईश्वर है।ऐसे में मूर्ति को प्रतीक कहना उचित नहीं है और न ही मूर्ति पूजा केवल प्रतीक मात्र ही है।मूर्ति और उसकी पूजा केवल उनके लिए प्रतीक भर हो सकती है जिनको मूर्ति में भी भगवान होने का विश्वास न हो।अतः मूर्ति को विग्रह कहना अधिक उपयुक्त है न कि प्रतीक ।  पूजा भी मन लगाकर की जाए तो भगवान भी प्रकट है अन्यथा पूजा भी मात्र औपचारिकता बन कर रह जाती हूं। सब कुछ आपके मनोभाव पर निर्भर करता है। मन मे भाव अच्छे हो तो प्रत्येक स्थान पर भगवान की पूजा की जा सकती है क्योंकि वह सब जगह उपस्थित है।क्या मुझे कोई बात सकता है कि वह कहां नहीं है ?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, November 27, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा-3

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेजी भाषा -3
तीसरा बिंदु-
Please don't use the word "Mythology" for our historic epics (Ithihaas) Ramayana and Mahabharata.  Rama and Krishna are historical heroes, not just mythical characters.
      भगवान श्री राम के इस धरा पर अवतरण की कथा उनके समकालीन महर्षि वाल्मिकी ने रामायण में वर्णित की है।इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण की जीवन गाथा उनके समकालीन वेद व्यासजी ने महाभारत नामक ग्रंथ में लिखी है। इस आधार पर हम इन ग्रंथों को ऐतिहासिक ग्रंथ तो कह सकते हैं परंतु काल्पनिक नहीं। अंग्रेजी में इन धर्मग्रंथों को mythology कहा जाता है अर्थात इनमें वर्णित कथाएं केवल मिथक है।मिथक कहने का अर्थ है कि इन कथाओं और पात्रों का वास्तविकता से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। वास्तव में देखा जाए तो महाभारत काल और श्री कृष्ण के होने के प्रमाण तो पुरातत्व विभाग को मिल ही चुके हैं।अतः श्री कृष्ण को तो मिथक नहीं कहा जा सकता। भगवान श्री राम के द्वारा निर्मित सेतु, जो कि भारत की भूमि को श्री लंका से कभी जोड़ता था, NASA ने अंतरिक्ष से उसका अवलोकन कर सिद्ध किया है कि इस सेतु की रचना मनुष्यों द्वारा की गई है अर्थात यह सेतु मानव निर्मित है।इसी प्रकार वन प्रवास की अवधि में श्री राम ने जिस मार्ग से अयोध्या से श्रीलंका की यात्रा की थी, रास्ते में जहां जहां वे रुके थे, उनसे संबंधित वे सभी स्थान आज भी मौजूद है।
पश्चिमी विद्वानों ने इन सब पात्रों और उनके जीवन को मनुष्य के मन की कोरी कल्पना मात्र बताया है, जो कि सत्यता से परे है। हमें उनकी बातों पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। हमें अपने रामायण, महाभारत आदि धर्मग्रंथों पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हुए ऐसी समस्त भ्रांतियों का विरोध करते हुए युवाओं का मार्गदर्शन करना चाहिए । आज सनातन धर्म का मखौल उड़ाना एक फ़ैशन बन गया है, जिसका मुख्य कारण हम स्वयं है, जो अपने धर्म के प्रति उदासीनता रखते हैं । सर्वप्रथम तो हमें हमारे ईश्वर पर श्रद्धा रखनी चाहिए और फैलाये जा रहे असत्य को नंगा कर सत्य को प्रचारित करने जा प्रयास करना चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, November 26, 2018

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेज़ी भाषा-2

सनातन दर्शन - हिंदी/अंग्रेजी भाषा-2
द्वितीय बिंदु -
Please do not use the meaningless term "RIP" when someone dies. Use "Om Shanti", "Sadhgati" or "I wish this atma attains moksha/sadhgati /Uthama lokas".  Hinduism neither has the concept of "soul" nor its "resting". The terms "Atma" and "Jeeva" are, in a way, antonyms for the word "soul".(to be understood in detail)
लेख का दूसरा बिंदु कहता है कि किसी की मृत्यु होने पर आजकल RIP कहने का प्रचलन है।RIP अर्थात rest in peace शांति में विश्राम।यह कहना कहाँ तक उचित है?हम भी अपनी भाषा में कह देते हैं कि 'परमात्मा उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे '।
ऐसा कहना भी उचित नहीं है। आत्मा का स्वभाव ही शांत है, अशांति उसमें हो ही नहीं सकती। अशांति रहती है, मन में। सब मन के खेल है।मन से बनता है जीव।इस जीव के साथ जब परमात्मा का अंश आ मिलता है, तभी जीवन प्रारम्भ होता है। शांति जीव को चाहिए न कि आत्मा को। इसलिए मृत व्यक्ति के जीव की शांति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए न कि आत्मा की शांति के लिए। जीवात्मा के मुक्त होने की कामना करें । जीव से आत्मा के मुक्त हो जाने का नाम ही मोक्ष है। जीव से आत्मा तभी मुक्त होगी जब जीव को शांति मिलेगी।अतः जीव की शांति और आत्मा के मुक्त होकर परमात्मा में मिलने की प्रार्थना करनी चाहिए न कि आत्मा की शांति के लिए।
    एक बात और, RIP उन मृत व्यक्तियों के लिए कहा जाता है जो ऐसे समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं जिसमें मोक्ष की धारणा को स्वीकार नहीं किया है अर्थात जो मोक्ष होने में विश्वास नहीं करते । न ही वे पुनर्जन्म ने विश्वास करते हैं।वे मानते हैं कि शरीर की मृत्यु के उपरांत जीव स्वर्ग में जाकर शांति को प्राप्त होता है और पुनः संसार के नए सृजन के साथ उसका इस धरा पर पदार्पण होता है। ऐसा मानने वाले अगर मृत व्यक्ति के लिए RIP की प्रार्थना करते हैं, तो उनके लिए ऐसा कहना उचित है।
      सनातन दर्शन मोक्ष में विश्वास करता है। हम पुनर्जन्म होना मानते हैं। हम परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं।मन को संसार में  आवागमन का कारण मानते हैं। आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप हैं अतः हमारा स्वरूप भी वही है। इसलिए शरीर की मृत्यु हो जाने पर हमें आत्मा के मन से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाने की कामना करनी चाहिए ।ॐ शांति, सद्गति अथवा स्वर्ग को प्राप्त हो, यह कामना भी की जा सकती है,परंतु सर्वोच्च कामना है- मोक्ष होकर परमात्मा में विलीन होने की।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, November 25, 2018

सनातन धर्म - हिंदी/अंग्रेजी भाषा -1

सनातन दर्शन-हिंदी/अंग्रेजी भाषा -1
भाई अशोकजी ने कल एक अंग्रेज विद्वान का एक लेख भेजा है, जिसमें मुख्य रूप से यह बतलाया गया है कि सनातन धर्म के अंतर्गत उपयोग में लिए जाने वाले कुछ शब्दों का रूपांतरण जब अंग्रेजी भाषा में किया जाता है तो उनका अर्थ हिंदी शब्दों के अनुकूल नहीं होता है। जिसके कारण कई बार बड़ी विसंगतियां उत्पन्न हो जाती है। अशोकजी ने मेरे से आग्रह किया है कि मैं उस लेख में वर्णित तथ्यों को स्पष्ट करते हुए आपके समक्ष रखूं।वास्तव में देखा जाए तो उस लेख में वर्णित बिंदुओं का आध्यामिकता से सीधा संबंध नहीं है फिर भी यह एक वास्तविकता है कि पर्याप्त जानकारी के अभाव में हम अपने धर्म और संस्कृति को सही रूप से नहीं समझ पा रहे हैं।इसके कारण हमारा व्यवहार भी संस्कृति के विपरीत होता प्रतीत होता है। इस लेख में दस बिंदु है, जिनको एक एक कर स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।
प्रथम बिंदु -
Please stop using the term "God fearing" - Hindus never ever fear God. For us, God is everywhere and we are also part of God. God is not a separate entity to fear.
It is integral.
अंग्रेजी में कहते हैं, 'god fearing' और हिंदी में इसे कहते हैं,'ईश्वर से डरो'।हम कई कार्य भगवान के डर से करते हैं जबकि भगवान से डरने की कोई बात नहीं है।ईश्वर से डरना ही नहीं बल्कि किसी से भी भयग्रस्त होना हमारी दार्शनिकता में कभी भी नहीं रहा है।आध्यात्मिकता का अर्थ है, स्वयं को जानना। स्वयं को जानने का अर्थ है, परमात्मा को जान लेना।हमारे और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है।परमात्मा से हम अभिन्न हैं ऐसे में स्वयं से वही डर सकता है जिसको स्वयं कौन है, इस बात का ज्ञान नहीं है। परमात्मा को जानने अर्थात आत्म-ज्ञान के मार्ग पर चलने वाला कभी भी भयग्रस्त नहीं हो सकता।भयमुक्त रहकर मुक्त व्यवहार करना ही  हमारी जीवन शैली में सदैव से है क्योंकि हम परमात्मा के होने में विश्वास करते हैं । परमात्मा से डरना अर्थात उसमें विश्वास न करना अतः 'परमात्मा से डरो' कहने का अर्थ है जैसे ईश्वर हमें दंडित करेगा। ईश्वर दंड नहीं देते, दंड देते हैं हमारे बुरे कर्म। अगर डरना ही है,तो फिर ईश्वर से नहीं कर्मों से डरो।बुरे कर्म नहीं करोगे तो भय भी नहीं रहेगा।परमात्मा ने तो एक व्यवस्था प्रकृति के माध्यम से हमें दे दी है।उस प्रकृति के कई नियम है। उन नियमों का उल्लंघन करना ही हमें दंडित करता है।नियम का पालन करने वाला कभी भी दंडित नहीं हो सकता। परमात्मा में विश्वास करने वाला कभी भी प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करता ।यही कारण है कि वह अपने जीवन में कभी भी भय से पीड़ित नहीं होता। अतः कहा जा सकता है कि god fearing अथवा परमात्मा से डरो कहना उपयुक्त नहीं है।
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, November 24, 2018

सकाम भक्ति/निष्काम भक्ति .....कल से आगे -

सकाम भक्ति/निष्काम भक्ति...कल से आगे-
     परीसा भागवत और कमला अपने जीवन में कहां संतुष्ट थे ? संतुष्ट होते तो पारस पत्थर को सिर पर उठाए न फिरते। असंतुष्टि के कारण ही तो नामदेव द्वारा पारस को नदी में फैंके जाने पर परीसा व्यथित हो गया था, मन में संतोष रहता तो उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। नामदेव जीवन में संतुष्ट थे परंतु राजाई नहीं थी। राजाई नामदेव की पत्नी, विवाह उपरांत इतने वर्षों तक सदैव नामदेव के साथ रही, वह भी उनकी निष्काम भक्ति को समझ नहीं सकी तो केवल परीसा ही क्यूँ, आप और मैं भी भला कैसे समझ सकेंगे ? दैवी से परीसा ने पारस पत्थर मांगा, कमला ने उससे स्वर्ण बनाया, फिर कमला ने वही पारस राजाई को दिया, 8न सब के मध्य सकाम भाव ही प्रवाहित होता रहा, निष्काम भाव कहीं पर भी नहीं था। परंतु जब नामदेव ने नदी में गोता लगाकर कई पारस पत्थर परीसा के सामने ला फैंके थे तब उनके मन में रत्ती भर भी सकाम भाव नहीं था।सकाम भाव की अनुपस्थिति ही निष्काम भाव है, यहां तक कि मन मे किसी विशेष प्रयोजन के लिए कुछ करने के भाव का न होना अर्थात कुछ करने के भाव का अभाव। निष्काम भाव ही निष्काम भक्ति की ओर ले जाता है।
       परीसा भागवत का सकाम भाव निष्काम भाव में तभी परिवर्तित हुआ जब उसको अपनी सकाम भक्ति नामदेव की निष्काम भक्ति के सामने बौनी प्रतीत हुई । इधर वह सामने पड़े असंख्य पारस पत्थरों को देख रहा था और उधर नामदेव को निर्विकार भाव से परमात्मा का ध्यान करते।वह समझ गया था कि सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति तक की यात्रा में अटकाव कहीं पर भी नहीं होना चाहिए। वह तत्काल ही सकाम भाव से मुक्त होकर निष्काम भक्ति की ओर अग्रसर हो गया और नामदेव के चरणों में गिर पड़ा।
           सारांश यह निकलता है भक्ति के अभाव से सकाम भक्ति अच्छी है। भक्ति का प्रारम्भ ही कामना पूर्ति से होता है । अतः सकाम भक्ति करना कहीं से भी अनुचित नहीं है। अनुचित है, सकाम भक्ति पर ही बने रहना अथवा वहीं पर अटक जाना । परमात्मा की कृपा हो तो संतों का सानिध्य पाकर नास्तिक भी आस्तिक हो सकता है और सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की ओर भी अग्रसर हुआ जा सकता है। इसीलिए संत मिलन को ही संसार का सर्वोत्तम सुख कहा गया है ।
प्रस्तुति -डॉ.प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, November 23, 2018

सकाम भक्ति/निष्काम भक्ति

सकाम भक्ति/ निष्काम भक्ति 
मलूकदास और नामदेव, दोनों ही प्रसंग से स्पष्ट होता है कि मनुष्य के जीवन में भक्ति के होने का बड़ा महत्व है। भक्ति में भी निष्काम भक्ति सर्वश्रेष्ठ है। मलूकदास को परमात्मा में विश्वास नहीं था।वे नास्तिक थे । नास्तिक से आस्तिक होने में देर कितनी लगी ? एक दिन मात्र ही तो लगा इसमें। सत्संग से उपजी श्रद्धा के कारण मलूकदास के मन में परमात्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए परीक्षा लेने का आग्रह हुआ। उस परीक्षा के अनुभव ने परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने के साथ साथ उनके प्रति विश्वास पैदा किया और श्रद्धा को मजबूत किया। मलूकदास तत्काल ही निष्काम भक्ति की ओर चल पड़े। लेकिन एक सांसारिक व्यक्ति के लिए प्रारम्भ से ही निष्काम भक्ति के लिए प्रेरित होना संभव नहीं हो सकता। परीसा भागवत भी तो प्रारम्भ से ही सकाम भक्ति में ही लीन था।
सकाम भक्ति को व्यर्थ न समझें।निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है परंतु उस भक्ति को स्वीकार करना एक सांसारिक व्यक्ति के लिए लगभग असंभव है।"भूखे भजन न होय गोपाला।ये ले अपनी कंठी माला।।" कहने का अर्थ यह है कि सकाम भक्ति में हमारी कामनाओं से हम परमात्मा को अवगत कराते हैं।परमात्मा दयावान है, वे भूखा किसी को भी नहीं सोने देते । आपकी आवश्यकता वे पूरी करेंगे ही, इस भावना के साथ ही सकाम भक्ति निष्काम भक्ति बनने की ओर अग्रसर होती है। परंतु यह मनुष्य नाम का प्राणी है न, यह पेट भरकर, अपनी आवश्यकताएँ पूरी हो जाने पर भी संतुष्ट नहीं होता।उसकीआवश्यकता जब विलासिता में परिवर्तित हो जाती है, तब उसकी भक्ति भी केवल कामना पूर्ति के साधन बनकर रह जाती है।सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की ओर तो केवल वही व्यक्ति अग्रसर हो सकता है जो अपनी आवश्यकताओं के पूरा हो जाने पर संतुष्ट हो जाता है। संतुष्टि के अभाव में सकाम भक्ति पर अटक जाने का खतरा है । यह बात सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की ओर वही जा सकता है, जो जीवन में संतुष्टि धारण कर ले ।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, November 22, 2018

प्रेरक प्रसंग के संदेश -5

प्रेरक प्रसंग के संदेश -5
नामदेव पारस पत्थर कभी के छोड़ चुके थे।नदी में से निकले सभी पत्थर उनकी दृष्टि में एक समान थे, न कोई पारस न कोई पत्थर,सब के सब पत्थर, जिनका मनुष्य के जीवन के लिए कोई अर्थ नहीं है। "ओ पारीसा, ढूंढ ले अपना पारस पत्थर।हे मेरे पाण्डुरंग ! कहाँ फंसा दिया रे मुझको।" और इधर पारीसा, जिस पत्थर को उठाकर देखे वही पारस, लोहे से छुआते ही सोना। नदी किनारे स्वर्ण का पहाड़ खड़ा हो गया।उधर नामदेव का ध्यान केवल परमात्मा पर। पारीसा दौड़ा और नामदेव के चरणों में गिर पड़ा।
भूल गया परीसा भागवत भी, पारस को।अरे! जिसके भक्त के स्पर्श मात्र से ही साधारण पत्थर भी पारस बन गए हो, उस भक्त के तो पाण्डुरंग ही महान हुए। फिर ऐसे पारस का महत्व ही क्या,जो संसार के बंधन में डाल दे।भक्ति से मिले तो फिर पाण्डुरंग को ही मांगो। वही असली पारस। सच है, जिसने सब कुछ छोड़ा, उसी ने पूरा पाया। आधा छोड़ने वाले का सब कुछ ही छूट जाता है।
      सकाम भक्त आधा छोड़ता है, उसे सिवाय पारस के कुछ भी नहीं मिलता।पारस की भी क्या कीमत,कुछ नहीं।जीवन में परमात्मा नहीं तो सब कुछ होकर भी कुछ भी नहीं है। केवल सांसारिक अभाव की पूर्ति करते रहना, आत्मा को खोखला कर देता है। रिक्त आत्मा का क्या तो होना और क्या न होना। जीवन आत्मसंतुष्टि का दूसरा नाम है और यह भी सत्य है कि आत्मसंतुष्टि जीवन में हज़ारों पारस मिल जाये तो भी नहीं आ सकती। भक्ति ही करनी है तो फिर निष्काम भक्ति ही की जाए। मिला हुआ स्वर्ण मिट्टी समान, दोनों में कोई अंतर नहीं। नामदेव शताब्दियों में कोई एक पैदा होता है, अन्यथा पारीसा भागवत जैसे तो इस संसार में करोड़ों व्यक्ति अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा रहे हैं।न जाने हमारे जैसे करोड़ों पारीसाओं को नामदेव कब मिलेंगे जो हमारी आंखें खोल दे।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, November 21, 2018

प्रेरक प्रसंग के संदेश -4

प्रेरक प्रसंग के संदेश -4
   नामदेव तो भक्त थे। कई दिनों बाद सत्संग कर लौटे तो अपने घर की दशा देखकर विस्मित रह गए। खाली पड़े खाद्यान्न भंडार ठसाठस भरे हुए थे। टूटी फूटी झोंपड़ी भी सुधार दी गई थी। ऐसा कैसे हुआ राजाई?राजाई की बातों को सुनकर बड़ा दुःख हुआ, नामदेव को। हे पाण्डुरंग, यह क्या हुआ ? क्यों राजाई, मुझको समझ नहीं सकी?
      परमात्मा जैसे अमूल्य हीरे के रहते यह पारस पत्थर भी तुच्छ है।भला,पत्थर के बदले हीरा कैसे फैंका जा सकता है? अभाव हैं तो परमात्मा से निकटता है, अभाव दूर हुए कि परमात्मा से विस्मरण हुआ। परीसा भागवत बनना सरल है, नामदेव बनना बड़ा मुश्किल।नामदेव जानते थे कि असली पारस तो परमात्मा है,  स्वर्ण बनाने वाला पारस पत्थर तो छद्म है, नकली है। पारस पत्थर तो संसार मे उलझाने का काम करता है।इस पत्थर को तो जितनी शीघ्रता से त्याग दिया जाए,वही उत्तम है। पाण्डुरंग याद आये, नामदेव को।हम होते तो पाण्डुरंग को भूला देते,केवल पारस पत्थर को याद रखते।नामदेव ने पारस को उठाया और नदी में फेंक दिया और पुनः लग गए, पाण्डुरंग को भजने।
      नामदेव पारस छोड़ सकता है परंतु परीसा भागवत भला कैसे छोड़ दे उसको। नामदेव अनन्य भक्त हैं भगवान के, उनको कैसे कुछ अनुचित कह दे।स्वयं परीसा अपने ही बाल नोचने लगा। हम भी तो ऐसा ही करते हैं, जब मिली हुई भोग की वस्तु हमसे कोई छीन कर ऐसी जगह फैंक देता है,जहां से उसे वापिस पाना असंभव लगने लगे।जब बात कुछ अधिक ही बढ़ गई तो पाण्डुरंग की कृपा नामदेव पर हुई। नदी में गोता लगाकर मुट्ठी में भरकर सैंकड़ो पारस पत्थर ला फैंके, परीसा भागवत के सामने। कितना खूबसूरत दृश्य रहा होगा उस समय, जब चारों और पारस पत्थर बिखरे पड़े हों और नामदेव की दृष्टि केवल परमात्मा पर ही टिकी हो और वे निर्विकार भाव से पाण्डुरंग को भज रहे हो।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम् ।।

Tuesday, November 20, 2018

प्रेरक प्रसंग के संदेश 3

प्रेरक प्रसंग के संदेश - 3
"असली पारस" प्रसंग में जो संदेश छिपा है वह एकदम स्पष्ट है है। भक्ति क्या है और कौन सी भक्ति श्रेष्ठ है, इस प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है।परमात्मा की भक्ति दो प्रकार की होती है-सकाम भक्ति और निष्काम भक्ति।सकाम भक्ति के द्वारा व्यक्ति परमात्मा से सांसारिक वस्तुएं मांगता है जबकि निष्काम भक्ति में भक्त की कोई मांग नहीं होती।
 पारस पत्थर से छूने वाला लोहा भी सोना बन जाता है। सोने से दैनिक आवश्यकताएं तो पूरी ही सकती है परंतु परमात्मा से दूरी बनी रहती है। भक्ति परीसा ने भी की थी और नामदेव ने भी।परीसा की दैवी उपासना से प्रसन्न हुई देवी से आखिर पसीजा ने मांगा तो क्या मांगा ? परीसा भागवत के स्थान पर उसकी पत्नी कमला होती अथवा आप और हम होते तो भी क्या मांगते ? वही जो परीसा भागवत ने मांगा-पारस पत्थर। परमात्मा चाहिए भी किसको ? हमें विश्वास ही नहीं है, उसके होने पर भी। हम तो केवल उसकी भक्ति करने का नाटक भर कर रहे हैं। उस नाटक से प्रसन्न होकर कभी ईश्वर ने हमें भी वर मांगने का कह दे, तो हम भी क्या मांगेंगे-उस परमपिता को नहीं बल्कि उस पत्थर को जिसके छूने भर से लोहा सोना बन जाता है।हम नामदेव बनना ही नहीं चाहते। प्रशंसा करेंगे, नामदेव की भक्ति की और स्वयं भक्ति के बदले मांगेंगे पारस।यही वास्तविकता है, हमारी भक्ति की और हमारे जीवन की भी।
अभावों में नामदेव भी जी रहे थे और परीसा भागवत भी। शारीरिक भूख नामदेव और परीसा, दोनों की एक समान थी परंतु आत्मज्ञान की भूख केवल नामदेव को थी। जो व्यक्ति शारीरिक भूख के समक्ष समर्पण कर देता है वह परमात्मा के प्रति समर्पित हो ही नहीं सकता । शारीरिक भूख के सामने समर्पण करने वाले पर परमात्मा दया करते हैं, यह बात निश्चित है परंतु उसकी  दया के परिणाम स्वरूप मिलेगी सांसारिक वस्तुएं, जो आपकी शारीरिक भूख कुछ समय के लिए शांत कर सकती है परंतु फिर लोभ को बढ़ा देती है। परीसा भागवत की पत्नी कमला के साथ भी तो यही हुआ था। पारस पत्थर मिलने पर उसने टनों स्वर्ण बना लिया था, फिर भी भूख ऐसी थी कि शांत होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही थी। जैसा कि नारी का स्वभाव होता है कि वह तकलीफ में किसी को देख नहीं सकती।उसका हृदय कोमल होता है। ऐसे ही कमला भी अपनी सहेली राजाई की गरीबी नहीं देख सकी। उसने द्रवित होकर पारस पत्थर से स्वर्ण बनाने के लिए कुछ समय के लिए राजाई को दे दिया, जिससे वह अपने अभाव दूर कर सके।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, November 19, 2018

प्रेरक प्रसंग के संदेश -2

प्रेरक प्रसंग के सन्देश-2
'अजगर करे न चाकरी' प्रसंग से दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं-प्रथम, सत्संग से ही जीवन परिवर्तित होता है और दूसरा बिना ईश्वरीय कृपा के सत्संग नहीं मिलता ।मनुष्य एवं अन्य जीवों में मूलभूत यही अंतर है कि अन्य जीव सत्संग से लाभ नहीं उठा सकते। आप ने देखा होगा कि सत्संग के समय उस क्षेत्र में कई प्राणी आकर बैठ जाते हैं परंतु वे उसका लाभ नहीं ले सकते।सत्संग विवेक को जाग्रत करता है और मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्राणी में यह क्षमता नहीं है।हमारे धर्म शास्त्रों में लिखा है कि अल्प समय के लिए मिला सत्संग भी जीवन की धारा को मोड़ने के लिए पर्याप्त होता है।
         एक चोर चोरी करने के लिए दिन के समय ही एक घर में घुस गया।घर किसी प्रभावशाली व्यक्ति का था। घर के किसी व्यक्ति ने  चोर को चोरी करते हुए देख लिया। चोर के जितना माल हाथ लगा उसे लेकर वहां से भाग छूटा। रसूखदार ने तुरंत पुलिस को फोन किया। मामला vip का था,तो पुलिस को सक्रिय होना ही था।अब चोर माल सहित आगे आगे और पुलिस उसके पीछे पीछे। चोर को छिपने का स्थान तक नहीं मिल रहा था। तभी उसे एक घर में सत्संग होता दिखाई दिया। उसे छिपने के लिए वह स्थान उपयुक्त लगा।वह सत्संग हो रहे स्थान पर प्रवेश कर छिपने के लिए श्रोताओं के मध्य जाकर बैठ गया।चोरी के माल की गठरी को पास में ही रखकर प्रवचन को सुनने का नाटक लगा। संत कह रहे थे -"इस संसार में जिस व्यक्ति को एक क्षण के लिए भी सत्संग मिल जाता है,उसके समस्त पाप कट जाते हैं,उसका कल्याण हो जाता है। समय निकालकर सत्संग करना अन्य सांसारिक कार्यों से ज्यादा जरूरी है।"
उसी समय पुलिस का उस पांडाल में प्रवेश होता है। पुलिस उड़ती नज़रें पांडाल में बैठे श्रोताओं पर डालती है और यह सोचकर वहां से निकल जाती है कि भला,चोर यहां पर क्यों कर आएगा ? इस प्रकार चोर पकड़े जाने से बच जाता है। चोर को बड़ा आश्चर्य होता है । उसे संत की कही वाणी पर विश्वास हो जाता है और मन ही मन में भविष्य में चोरी न करने का संकल्प कर लेता है। सत्संग समाप्ति के बाद वह चोरी का माल वहीँ छोड़कर चल देता है। रास्ते में वह सोचता है कि "संत सही कह रहे थे । सत्संग तो अल्प समय के लिए भी मिले तो जीवन परिवर्तित हो जाता है। आज मैंने कुछ देर ही सत्संग किया और पकड़े जाने से बच गया, अगर  नित्य सत्संग करूँ तो निश्चित ही मेरा कल्याण हो सकता है।"
       चोर को सत्संग मिला,ईश्वर कृपा से।अगर वह उस राह पर ही नहीं आता जहां सत्संग हो रहा था,तो वह या तो कहीं अन्य स्थान पर छिप जाता अथवा पकड़ा जाता।दोनों ही परिस्थितियों में उसकी चोरी करने की आदत नहीं छूटती। परमात्मा की कृपा होने से ही उसको वही राह भागने को मिली,जिस राह पर सत्संग हो रहा था। सत्संग में एक ही बात ने उसको प्रभावित किया कि अल्प समय के लिए मिला सत्संग भी कल्याणकारी होता  है। इस बात का उस पर प्रभाव तभी पड़ा,जब वह पकड़े जाने से बच गया। बच जाने से ही उसका जीवन परिवर्तित हुआ, जो पकड़े जाने पर संभव नहीं था। यह है, सत्संग का प्रभाव। अतः मनुष्य को सत्संग कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए और कुसंग से सदैव बचना चाहिए।मलूकदास का तो एक सत्संग से ही कल्याण हो गया और इसी प्रकार चोर का भी।परंतु यह कल्याण हुआ,सत्संग में सुनी हुई बातों को आत्मसात करने से। सत्संग में प्रवचन सुनने मात्र से कल्याण नहीं होता बल्कि उस ज्ञान को जीवन मे अपनाने से होता है ।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, November 18, 2018

प्रेरक प्रसंग के सन्देश - 1

प्रेरक प्रसंग के संदेश - 1
पिछले दो दिनों में हमने दो प्रेरक प्रसंग पढ़े।पढ़ने और सुनने में दोनों ही प्रसंग हृदय स्पर्शी हैं। पहले प्रसंग में मलूक दास अपने जीवन के प्रारम्भ में परमात्मा में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते थे अर्थात नास्तिक थे परंतु सत्संग के प्रभाव से उनका जीवन ही परिवर्तित हो गया। उनके जीवन मे यह परिवर्तन यूँही नहीं आ गया। घोर नास्तिक की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वह बिना सबूत के, बिना आजमाए किसी बात को आसानी से स्वीकार नहीं करता ।ऐसा व्यक्ति भगवान ही क्या, किसी पर भी विश्वास नहीं करता। संतों के सानिध्य से, राम-कथा का लगातार श्रवण करते रहने से उनके मन में परमात्मा के प्रति, उसे जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई।मलूकदास ने इससे पूर्व जीवन मे कभी शायद ही सोचा होगा कि संसार का पालनहार भी मनुष्य के अतिरिक्त कोई अन्य भी हो सकता है।उन्होंने इसी बात को संतों के द्वारा कही गई बात की सत्यता परखने का आधार बनाया। इस परीक्षा से वह बड़ी सरलता से समझ सकता था कि ईश्वर का अस्तित्व है अथवा नहीं।
जीवन में सभी परिस्थितियां अचानक ही नहीं बनती।उनके बनने के पीछे भी परमात्मा की ही कृपा होती है। मलूकदास ने परीक्षा लेने से पहले सोचा भी नहीं होगा कि 24 घंटे के अंदर ही घनघोर जंगल में परिस्थिति इतनी तेज गति से परिवर्तित हो जाएगी।शेर, अपने स्वभावानुसार शिकार की तलाश में जंगल में सदैव घूमता ही रहता है।दहाड़ लगाना भी उसकी एक आदत है। परंतु राज कर्मचारियों का आना,फिर शेर की दहाड़ सुनकर पहले घोड़ों के और फिर सभी का भोजन वहीं छोड़कर भाग जाना क्या अपने आप हो सकता है ? सब कुछ पूर्वलिखित एक पटकथा सी लगती है। प्रसंग अपनी पराकाष्ठा को तब छूता है, जब डाकू स्वयं भोजन करने से पहले पेड़ पर बैठे मलूकदास को अपने हाथों से भोजन कराते हैं। अंततः मलूकदास के साथ साथ डाकुओं का भी हृदय परिवर्तन हो जाता है।
रामचरितमानस में महर्षि वाल्मिकी जी भगवान श्री राम को कहते हैं कि हे राम!आपको वही जान सकता है, जिसको आप जनाना चाहते हैं। इस प्रसंग से यह बात शतप्रतिशत सत्य सिद्ध होती है। सत्संग भी उसी को मिलता है जिस पर परमात्मा की कृपा होती है।मलूकदास के गांव में भी इस राम-कथा से पहले भी कई संत आये होंगे। परंतु जब मलूकदास जी पर परमात्मा की कृपा दृष्टि पड़ी तभी सत्संग में केवल एक प्रसंग सुनकर और परख कर ही वे नास्तिक से आस्तिक हो गए और स्वयं के जीवन को परिवर्तित करने के साथ साथ डाकुओं का जीवन भी परिवर्तित कर दिया। ऐसी होती है, परमात्मा की कृपा और सत्संग का प्रभाव।
गोस्वामीजी मानस में इसी सम्बन्ध में कहते हैं-
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाहि।।2/3/127।।
बिनु सतसंग बिबेक न होई।राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।1/3/7।।
होइ विवेकु मोह भ्रम भागा।तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।2/93/5।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, November 17, 2018

असली पारस

असली पारस
संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था और परीसा भागवत की पत्नी का नाम था कमला। कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियाँ थीं। 
दोनों की शादी हुई तो पड़ोस-पड़ोस में ही आ गयीं। राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी थी। 
कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस माँग लिया और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे।
नामदेव जी दर्जी का काम करते थे। वे भजन-कीर्तन करने जाते और दस-पन्द्रह दिन के बाद लौटते। अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इकट्ठे करते और फिर चले जाते।वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।
एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गये तो कमला ने राजाई से कहा कि ‘तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया, तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।‘
राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की माँग भी आवश्यकता की पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।
नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में बहुत सारा सामान, धन-धान्य…. भरा-भरा घर दिखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।
नामदेव जी ने कहाः “इतना सारा वैभव कहाँ से आया ? “ 
राजाई ने सारी बात बता दी कि “परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया। वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं। हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दुःख देखकर उसको दया आ गयी।“
नामदेव जी ने कहाः “मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों के पारस ईश्वर है, उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान !”
नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बाँटकर आ गये। घर जैसे पहले था वैसे ही खाली कर दिया।
नामदेव जी ने पूछाः “वह पत्थर कहाँ है ? लाओ !” राजाई पारस ले आयी। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे ‘मेरे विट्ठल, पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा, नहीं तो हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जायेंगे।‘ – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गये।
स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती। राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया। अब सहेली कमला तो रोने लगी। 
इतने में परीसा भागवत आया, पूछाः “कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ? “
वह बोलीः “तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।“ आखिर परीसा भागवत ने सारा रहस्य समझा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया और बोलाः “कहाँ है नामदेव, कहाँ है ? कहाँ गया मेरा पारस, कहाँ गया ? “ और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।
परीसा भागवत वहाँ पहुँचाः “ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिये।“
नामदेवः “पारस तो मैंने डाल दिया उधर, नदी में। परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ? मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है। पारस-पारस क्या करते हो भाई ! बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।“
“मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।“
“हरि - हरि बोलो और आत्म-विश्रांति पाओ !!
“नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ। मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है.. मुझे मेरा पारस दीजिये।“
“पारस तो नदी में डाल दिया।“
“नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिये।“
“अब क्या करना है.. सच्चा पारस तो तुम्हारी आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है..“
“मैं आपको हाथ जोड़ता हूँ मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो.. पारस दो..।“
“पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।“
“कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किये, सिद्धि आयी, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है। देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस..“
नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।
नामदेव जी बोलेः “अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है !”
‘जय पांडुरंगा !’ कहकर नामदेव जी ने नदीं में डुबकी लगायी और कई पत्थर ला के रख दिये उसके सामने।
“आपका पारस आप ही देख लो।“ 
देखा तो सभी पारस ! “इतने पारस कैसे !”
“अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !” 
“ये कैसे पारस, इतने सारे !”
नामदेव जी बोलेः “अरे, आप अपना पारस पहचान लो।“ 
अब सब पारस एक जैसे, जैसे रूपये-रूपये के सिक्के सब एक जैसे। आपने मुझे एक सिक्का दिया, मैंने फेंक दिया और मैं वैसे सौ सिक्के ला के रख दूँ और बोलूँ कि आप अपना सिक्का खोज लो तो क्या आप खोज पाओगे ??
उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया। लोहे की जिस वस्तु को लगाये वह सोना !
“ओ मेरी पांडुरंग माऊली (माँ) ! क्या आपकी लीला है ! हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे ! हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस, नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !”
परीसा भागवत ने सारे-के-सारे पारस नदी में फेंक दिये और परमात्म- पारस में ध्यान मग्न हो गये।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।