Sunday, December 9, 2018

काशी के तुलसी

महान संत गोस्वामी तुलसीदास जी की चर्चा किये बिना  वाराणसी की महिमा अधूरी रहेगी। पत्नी से हुए वार्तालाप ने उनकी आंखें खोल दी और वे वहां से निकलकर प्रयाग होते हुए सर्वप्रथम काशी पहुंचे। वहां लोगों को रामकथा सुनाने लगे । वहां से वे चित्रकूट चले गए जहां उनको अपने आराध्य श्री राम के दर्शन हुए। भगवान के आदेश से गोस्वामीजी चित्रकूट से अयोध्या की ओर चल दिये। वहां से सर्वप्रथम काशी आये । यहां आकर उन्होंने राम चरित्र लिखना प्रारम्भ किया। दिनभर बैठे लिखते रहते और रात को सारा लिखा हुआ साफ हो जाता। बड़ा आश्चर्य होता उन्हें।एक दिन रात को स्वप्न में दर्शन देकर भगवान शंकर ने आदेश दिया कि तुम संस्कृत में लिखना छोड़ कर अपनी भाषा हिंदी में लिखो । गोस्वामीजी ने दूसरे दिन ही अयोध्या का रुख कर लिया। वहां पहुंचकर अपनी भाषा में ही रामचरितमानस ग्रंथ लिखा।
      ग्रंथ का लेखन समापन कर वे काशी लौट आये और सर्वप्रथम भगवान शंकर को विश्वनाथ मंदिर में कथा सुनाई।रात को मंदिर में श्री रामचरितमानस की प्रति रख दी गई। प्रातः उस प्रति पर भगवान विश्वनाथ के हस्ताक्षर से सत्यं शिवं सुंदरं लिखा मिला । इससे उत्साहित होकर गोस्वामीजी लोगों के समक्ष रामचरित मानस का सस्वर पाठ करने लगे। धीरे धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। इससे काशीजी के पंडे बड़े चिंतित हुए, उन्हें अपने साम्राज्य की दीवारें ढहती नज़र आने लगी।
      ब्राह्मणों की तुलना उस केकड़ों से भरी खुली टोकरी से की जा सकती है, जिसमें से एक भी केकड़ा बाहर नहीं निकल सकता क्योंकि वे एक दूसरे का उत्थान देख नहीं सकते। ऊपर उठने वाले केकड़े की टांग उसके नीचे वाले केकड़ा पकड़ कर खींच लेता है। ऐसा ही पंडितों ने काशी में तुलसी के साथ किया।उन्होंने बहुत प्रयास किया, श्री रामचरितमानस को नष्ट करने का, परंतु सफल नहीं हुए। फिर तो इस ग्रंथ की लोकप्रियता बढ़ती गई। ग्रंथ की कई हस्तलिखित प्रतियां तैयार की जाने लगी। काशी में रहते हुए गोस्वामीजी ने अन्य कई ग्रंथ लिखे ।
आज भी वाराणसी में वह स्थल मौजूद है, जहां तुलसीदासजी ने निवास और अपना लेखन कार्य किया। गंगा तट पर असि घाट के निकट तुलसी घाट भी है। असि घाट पर ही उन्होंने अपने जीवन का संध्या काल बिताया और 126 वर्ष की आयु में वे ब्रह्मलीन हो गए। काशी ऐसे कवि की सदैव ऋणी रहेगी।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम् ।।

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