अविरल जीवन (Life is continuous)-10
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि ‘देही नित्यमवध्योsयं देहे सर्वस्य भारत” (गीता-2/30) अर्थात हे अर्जुन ! यह देही अर्थात जीवात्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है | किसी को अवध्य कहने का अर्थ है, जिसका कभी भी वध नहीं किया जा सकता हो | देही को ही जीव कहा जाता है | इस प्रकार यह सिद्ध है कि जब जीव का वध नहीं हो सकता तो फिर जीवन भी कभी नष्ट नहीं हो सकता | जब तक जीव का अस्तित्व बना रहेगा तब तक भिन्न भिन्न प्रकार के शरीरों में जीवन का प्रवाह भी अविरल बना रहेगा |
जीवात्मा दो शब्दों के मिलने से बना है, जीव और आत्मा। अब प्रश्न उठता है कि यह जीव क्या है ? स्थूल शरीर के सभी तत्व स्थूल प्रकृति के हैं जिसमें मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी सम्मिलित है | ये यह चारों मिलकर अंतःकरण कहलाते हैं | यह अंतःकरण ही जीव कहलाता है | इन चारों के साथ जब आत्मा का मिलन हो जाता है तब यह जीवात्मा कहलाता हैं | वैसे आत्मा का अस्तित्व कई महापुरुष स्वीकार नहीं करते हैं | उनका कहना है कि परमात्मा का मन ही विस्तार पाकर जीवात्मा कहलाता है | दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि परमात्मा का अंश आत्मा है जो विस्तार पाकर मन बन जाती है । यह अंतरात्मा भी कहलाती है जिसमें मन, बुध्दि, चित्त और अहंकार आ जाते हैं।इस प्रकार इन चारों का यह संगम अंतःकरण चतुष्ट्य भी कहलाता है।खैर, जैसे भी हो, यह सत्य है कि जीवन के केंद्र में मन अवश्य है | सब कुछ मनुष्य के मन का ही खेल है और वही जीव के रूप में शरीर दर शरीर भटकता रहता है | समझने की दृष्टि से हम जीव को ही सूक्ष्म शरीर भी कहते है |
इस प्रकार जीवात्मा और जीवन एक दूसरे के पर्याय हैं और वे संसार में अपना प्रवाह सतत बनाये रखते हैं | भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाने के लिए गीता के 13 वें अध्याय में शरीर को क्षेत्र और जीव को क्षेत्रज्ञ कहा है | इसी प्रकार गीता के 15 वें अध्याय में इन्हें क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष कहकर स्पष्ट किया है | शरीर क्षर है जबकि जीव अक्षर | जीव अक्षर है, इससे यह सिद्ध है कि जीवन भी नष्ट नहीं होता अर्थात जीवन का प्रवाह अविरल बना रहता है | परमात्मा को इन दोनों से ऊपर अर्थात उत्तम पुरुष कहा गया है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment