अविरल जीवन (Life is continuous)-7
जीवन के अविरल प्रवाह को स्पष्ट करते हुए गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||12||
अर्थात न तो ऐसा है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे |
जीवन अविरल बहता रहता है, हम ही हमारे जीवन के संगी हैं जो हजारों लाखों जन्म ले कर भी वही के वही बने रहते हैं | अगर एक ही जीवन होता तो क्या भगवान श्री कृष्ण के द्वारा ऐसा कहना संभव होता कि प्रत्येक काल में हम सभी बने रहते हैं | परिवर्तित होती है तो हमारी यह देह | अन्य कुछ भी परिवर्तित नहीं होता और जो जन्म दर जन्म परिवर्तित नहीं होता उसी का नाम जीवन है |
जीवन एक ही है, जन्म अनेकों | शरीर अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु उन शरीरों में स्पंदित होने वाला जीवन एक ही रहता है | जीवन कभी भी परिवर्तित नहीं होता, वह अपरिवर्तनीय है, इसीलिए शरीर अर्थात देह में जो जीवन है, वही सत्य है, यह शरीर नहीं | आगे इसी अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को और अधिक गंभीरता की तरफ ले जाते हुए कहते हैं कि-
देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||13||
अर्थात जैसे इस जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है , वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
जीवन के अविरल प्रवाह को स्पष्ट करते हुए गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||12||
अर्थात न तो ऐसा है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे |
जीवन अविरल बहता रहता है, हम ही हमारे जीवन के संगी हैं जो हजारों लाखों जन्म ले कर भी वही के वही बने रहते हैं | अगर एक ही जीवन होता तो क्या भगवान श्री कृष्ण के द्वारा ऐसा कहना संभव होता कि प्रत्येक काल में हम सभी बने रहते हैं | परिवर्तित होती है तो हमारी यह देह | अन्य कुछ भी परिवर्तित नहीं होता और जो जन्म दर जन्म परिवर्तित नहीं होता उसी का नाम जीवन है |
जीवन एक ही है, जन्म अनेकों | शरीर अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु उन शरीरों में स्पंदित होने वाला जीवन एक ही रहता है | जीवन कभी भी परिवर्तित नहीं होता, वह अपरिवर्तनीय है, इसीलिए शरीर अर्थात देह में जो जीवन है, वही सत्य है, यह शरीर नहीं | आगे इसी अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को और अधिक गंभीरता की तरफ ले जाते हुए कहते हैं कि-
देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||13||
अर्थात जैसे इस जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है , वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
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