सनातन धर्म - हिंदी/अंग्रेजी भाषा-9
नवम् बिन्दू -
Please don't use the word "Sin" instead of "Paapa". We only have Dharma (duty, righteousness, responsibility and privilege) and Adharma (when dharma is not followed). Dharma has nothing to do with social or religious morality. 'Paapa' derives from Adharma.
पाप और पुण्य कर्मों से संबंधित हैं।जो कर्म शास्त्र और धर्म के अनुकूल हों, वे सभी कर्म शुभ कर्म अथवा पुण्य कर्म कहलाते हैं।जो कर्म धर्म और शास्त्र के प्रतिकूल हों, वे सभी कर्म अशुभ कर्म अथवा पाप कर्म कहलाते हैं।धर्म चार पुरुषार्थों में से एक पुरुषार्थ है । धर्म का अर्थ है, सत्य के मार्ग पर चलना और अधर्म का अर्थ है धर्म का त्याग कर देना।हम सभी जानते हैं कि सत्य का मार्ग कौन सा है?जिस कर्म को करने से अन्तः करण किञ्चित भी विचलित न हो, वे सब मार्ग सत्य के मार्ग हैं।आपका अंतःकरण आपको अधर्म के मार्ग पर होने पर कम से कम एक बार चेतावनी अवश्य ही देता है।उस चेतावनी को अनसुना करके अधर्म को अपना लेना ही पाप है।
सनातन धर्म केवल सत्य की राह पर चलने की प्रेरणा देता है।देखा जाए तो हमारी संस्कृति मूलतः धर्म पर ही आधारित है, इसमें अधर्म का कोई स्थान ही नहीं है।अधर्मी को यहां पर सदैव ही हेय दृष्टि से देखा गया है।पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हमने हमारे धर्म मार्ग को छोड़ना प्रारम्भ कर दिया है।धर्म के मार्ग पर चलते रहने से ही व्यक्ति जीवन में कभी भी अशांत नहीं हो सकता।इसलिए धर्म का किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं करना चाहिए।
जहां तक मूल शब्दों की बात है, पुण्य और पाप शब्दों के स्थान पर धर्म और अधर्म शब्द अधिक उपयुक्त है।पुण्य और पाप चर्च की देन है, जिसको हमने धर्म और अधर्म के स्थान पर उपयोग में लेना प्रारम्भ कर दिया है।हमारे शास्त्रों में मुख्यतः धर्म और अधर्म की बात कही गई है और कर्म शुभ व अशुभ बताए गए हैं।अतः हमें केवल धर्म और अधर्म शब्दों का उपयोग ही बोलचाल और लेखन में करना चाहिए ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
नवम् बिन्दू -
Please don't use the word "Sin" instead of "Paapa". We only have Dharma (duty, righteousness, responsibility and privilege) and Adharma (when dharma is not followed). Dharma has nothing to do with social or religious morality. 'Paapa' derives from Adharma.
पाप और पुण्य कर्मों से संबंधित हैं।जो कर्म शास्त्र और धर्म के अनुकूल हों, वे सभी कर्म शुभ कर्म अथवा पुण्य कर्म कहलाते हैं।जो कर्म धर्म और शास्त्र के प्रतिकूल हों, वे सभी कर्म अशुभ कर्म अथवा पाप कर्म कहलाते हैं।धर्म चार पुरुषार्थों में से एक पुरुषार्थ है । धर्म का अर्थ है, सत्य के मार्ग पर चलना और अधर्म का अर्थ है धर्म का त्याग कर देना।हम सभी जानते हैं कि सत्य का मार्ग कौन सा है?जिस कर्म को करने से अन्तः करण किञ्चित भी विचलित न हो, वे सब मार्ग सत्य के मार्ग हैं।आपका अंतःकरण आपको अधर्म के मार्ग पर होने पर कम से कम एक बार चेतावनी अवश्य ही देता है।उस चेतावनी को अनसुना करके अधर्म को अपना लेना ही पाप है।
सनातन धर्म केवल सत्य की राह पर चलने की प्रेरणा देता है।देखा जाए तो हमारी संस्कृति मूलतः धर्म पर ही आधारित है, इसमें अधर्म का कोई स्थान ही नहीं है।अधर्मी को यहां पर सदैव ही हेय दृष्टि से देखा गया है।पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हमने हमारे धर्म मार्ग को छोड़ना प्रारम्भ कर दिया है।धर्म के मार्ग पर चलते रहने से ही व्यक्ति जीवन में कभी भी अशांत नहीं हो सकता।इसलिए धर्म का किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं करना चाहिए।
जहां तक मूल शब्दों की बात है, पुण्य और पाप शब्दों के स्थान पर धर्म और अधर्म शब्द अधिक उपयुक्त है।पुण्य और पाप चर्च की देन है, जिसको हमने धर्म और अधर्म के स्थान पर उपयोग में लेना प्रारम्भ कर दिया है।हमारे शास्त्रों में मुख्यतः धर्म और अधर्म की बात कही गई है और कर्म शुभ व अशुभ बताए गए हैं।अतः हमें केवल धर्म और अधर्म शब्दों का उपयोग ही बोलचाल और लेखन में करना चाहिए ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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