Friday, December 7, 2018

बनारस - भक्त रैदास

बनारस में भगवान के भक्त भी पैदा हुए हैं जिनमें संत कबीर और रविदास(रैदास)प्रमुख हैं।दोनों ही निम्न और वंचित तबकों से आते हैं। उस समय अस्पृश्यता अपने चरम पर थी।भक्ति किसी विशेष जाति अथवा तबके की गुलाम नहीं होती। आज जिस प्रकार का जातिवाद का जहर चारों ओर फैलता ही जा रहा है उससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि सनातन धर्म किन विपरीत परिस्थितियों से गुजर रहा है। कबीर और रैदास के युग में भी जातिवाद कम न था। जातिवाद के आधार पर निम्न वर्ग के लोगों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था।आज भी काशी विश्वनाथ मंदिर ही नहीं बल्कि यहां के प्रत्येक मंदिर में प्रवेश के लिए भेदभाव किया जा रहा है परंतु आज यह भेदभाव जाति आधारित न होकर धन आधारित हो गया है। वाराणसी के मंदिरों में दर्शन के लिए जिस प्रकार पंडे लोगों से लूट करते हैं, मन खराब हो जाता है।दर्शन के लिए जाति को कोई नहीं पूछता बल्कि धन की पूछ अवश्य होती है। अतः कहा जा सकता है कि हमारे मंदिरों का एक मात्र धन ही केंद्र बिंदु बन गया है। हमें भी शीघ्र दर्शन का लालच दिया गया था परंतु मैंने कहा कि दर्शन के एवज में पैसा नहीं देना है।प्रातःकाल मंगला आरती के समय विश्वनाथ मंदिर में भीड़ नाम मात्र की होती है। प्रातः चार बजे जाकर सुगमता से दर्शन हो सकते हैं।हमने भी प्रातः 4 बजे ही दर्शन किये हैं।
खैर, छोड़िए इन बातों को।जब तक धन है,तब तक यह खेल चलता रहेगा। हाँ, तो बात हो रही थी भक्तों की। रैदास का जन्म भी वाराणसी में हुआ था।वही रैदास, जो मेड़ता में जन्मी और मेवाड़ के राजघराने में ब्याही  मीरा बाई के गुरु थे। अस्सि घाट से जब बनारस हिंदू विश्व विद्यालय की ओर जाते हैं, तब रास्ते में पड़ने वाले लंका चौराहे पर संत रैदास गेट बना हुआ है।  संत रविदास नगर और गंगा नदी पर संत रवि दास घाट भी बना हुआ है। रैदास जयंती माघ शुक्ला पूर्णिमा को आती है।
         15वीं-16वीं शताब्दी के इस महान संत ने सनातन धर्म में फैली प्रतिमा पूजन की क्रियाओं को सरल बनाया,जिससे बनारसी पंडित नाराज़ भी हुए। इसकी शिकायत पंडितों ने तत्कालीन बनारस महाराजा से की। तब महाराजा ने आदेश दिया था कि कल दशाश्वमेध घाट पर पंडित अपनी मूर्ति और रैदास अपनी मूर्ति लेकर पहुंचें।वहां अपने अपने विधान से उनकी पूजा करे और फिर दोनों ही मूर्तियों को गंगा में प्रवाहित करें।जिसकी मूर्ति तैरती रहेगी, उसी की पूजा सत्य मानी जायेगी।
निश्चित दिन पर भारी भीड़ के समक्ष, राजा की उपस्थिति में मूर्तियों की पूजा दोनों पक्षों द्वारा की गई  पंडितो की मूर्ति हल्की थी और उन्होंने कई प्रकार के मंत्रोच्चार कर उसकी पूजा की। रैदास की मूर्ति बहुत भारी थे।उन्होंने साधारण रूप से दत्तचित्त होकर उसकी पूजा की। पूजा के उपरांत दोनों मूर्तियों को गंगा की धारा को समर्पित किया गया। पंडितों की मूर्ति कम वजन की होने के बावजूद डूब गई जबकि रैदास की मूर्ति भारी होकर भी गंगा की जल सतह पर तैरती रही।राजा ने रैदास की पूजा को मान्यता दी। उसके बाद रैदास ने कई पद, दोहे और साखियाँ भी लिखी।ऐसे महान भगवद्भक्त को प्रणाम।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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