मन पर नियंत्रण
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं -
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6/35।।
अर्थात हे महाबाहो अर्जुन ! निःसंदेह मन चंचल है, बड़ी कठिनाई से वश में होने वाला है,परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! यह मन केवल अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही वश में किया जा सकता है।
अभ्यास नाम है, बार बार प्रयत्न करने का।वैराग्य नाम है, देखी सुनी विषय-वस्तुओं में राग छोड़ देना अर्थात इनसे किसी भी प्रकार का लगाव न रखना यानि विषय भोगों में आसक्ति का त्याग। राग होता है विषय भोगों में।यही राग फिर मन में इच्छाओं को जन्म देता है और व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कर्म करने को विवश हो जाता है। कर्म करना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परंतु केवल भोगों की प्राप्ति के लिए कर्म करना व्यक्ति को आवागमन से मुक्त नहीं होने देता।भोगों से हमें सुख की अनुभूति अवश्य होती है परंतु यह सुख तात्कालिक और क्षणिक होता है औऱ दुःख का कारण बनता है।सुख प्राप्ति के लिए भोगों में राग रखना ही हमारे जीवन में दुःख को आमंत्रित करता है। वैराग्य से हमारे मन में सुख प्राप्त करने की कामना ही लुप्त हो जाती है तो फिर जीवन में दुःखों का आगमन हो ही नहीं सकता।
मन को नियंत्रण में रखने का दूसरा साधन है-अभ्यास। अभ्यास अर्थात मन में उठ रही इच्छाओं को नियंत्रित करने का प्रयास । मन को अनियंत्रित करती है, हमारी इंद्रियां क्योंकि दसों इंद्रियां ही शरीर को भोग उपलब्ध कराती है।अतः इंद्रियों को वश में रखने का साधन है, अभ्यास। केवल मनुष्य को ही परमात्मा ने वह शक्ति प्रदान की है, जिससे वह इंद्रियों को प्रयत्न से वश में रखते हुए मन को नियंत्रित कर सकता है।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं -
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6/35।।
अर्थात हे महाबाहो अर्जुन ! निःसंदेह मन चंचल है, बड़ी कठिनाई से वश में होने वाला है,परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! यह मन केवल अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही वश में किया जा सकता है।
अभ्यास नाम है, बार बार प्रयत्न करने का।वैराग्य नाम है, देखी सुनी विषय-वस्तुओं में राग छोड़ देना अर्थात इनसे किसी भी प्रकार का लगाव न रखना यानि विषय भोगों में आसक्ति का त्याग। राग होता है विषय भोगों में।यही राग फिर मन में इच्छाओं को जन्म देता है और व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कर्म करने को विवश हो जाता है। कर्म करना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परंतु केवल भोगों की प्राप्ति के लिए कर्म करना व्यक्ति को आवागमन से मुक्त नहीं होने देता।भोगों से हमें सुख की अनुभूति अवश्य होती है परंतु यह सुख तात्कालिक और क्षणिक होता है औऱ दुःख का कारण बनता है।सुख प्राप्ति के लिए भोगों में राग रखना ही हमारे जीवन में दुःख को आमंत्रित करता है। वैराग्य से हमारे मन में सुख प्राप्त करने की कामना ही लुप्त हो जाती है तो फिर जीवन में दुःखों का आगमन हो ही नहीं सकता।
मन को नियंत्रण में रखने का दूसरा साधन है-अभ्यास। अभ्यास अर्थात मन में उठ रही इच्छाओं को नियंत्रित करने का प्रयास । मन को अनियंत्रित करती है, हमारी इंद्रियां क्योंकि दसों इंद्रियां ही शरीर को भोग उपलब्ध कराती है।अतः इंद्रियों को वश में रखने का साधन है, अभ्यास। केवल मनुष्य को ही परमात्मा ने वह शक्ति प्रदान की है, जिससे वह इंद्रियों को प्रयत्न से वश में रखते हुए मन को नियंत्रित कर सकता है।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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