अविरल जीवन (Life is continuous)-11
श्वेताश्वतर उपनिषद् अध्याय 4 के श्लोक सं. 6 में शरीर को एक पेड़ बताते हुए जीव और परमात्मा को उस पर बैठे दो पक्षी बताया गया है | जीवात्मा और परमात्मा दोनों को आपस में सखा बताया गया है | एक दूसरे के प्रति सखा भाव रखते हुए भी उस शरीर रुपी पेड़ पर बैठा केवल जीवात्मा ही वह पक्षी है, जो उस पेड़ के फल का भोक्ता है जबकि दूसरा पक्षी जो कि स्वयं परमात्मा है, वह जीव नामक पक्षी को फल खाते हुए केवल देखता रहता है अर्थात उसकी भूमिका मात्र एक द्रष्टा की है | कहने का अर्थ है कि जीव परमात्मा का ही अंश है परन्तु वह शरीर से प्राप्त हुए फल का भोक्ता बनकर शरीर के साथ बन्ध जाता है |
गीता के 13 वें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोsपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ||31||
अर्थात हे कुन्ती नन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मा स्वरूप ही है | यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न ही लिप्त होता है |
इस बात को श्वेताश्वतर उपनिषद में भी स्पष्ट किया गया है |
संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च
व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः |
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावा-
ज्ज्ञात्वादेवं मुच्यते सर्वपाशै: || श्वे.उप.-1/8||
अर्थात विनाशशील जड़ वर्ग अर्थात भौतिक शरीर और अविनाशी जीवात्मा, इन दोनों के संयोग से बने हुए व्यक्त और अव्यक्त रूप इस विश्व का भरण पोषण परमेश्वर ही करता है तथा इस जगत के विषयों का भोक्ता होने के कारण जीवात्मा प्रकृति के अधीन असमर्थ होकर उसके साथ बंध जाता है | उस परमपिता परमेश्वर को जानकर वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
श्वेताश्वतर उपनिषद् अध्याय 4 के श्लोक सं. 6 में शरीर को एक पेड़ बताते हुए जीव और परमात्मा को उस पर बैठे दो पक्षी बताया गया है | जीवात्मा और परमात्मा दोनों को आपस में सखा बताया गया है | एक दूसरे के प्रति सखा भाव रखते हुए भी उस शरीर रुपी पेड़ पर बैठा केवल जीवात्मा ही वह पक्षी है, जो उस पेड़ के फल का भोक्ता है जबकि दूसरा पक्षी जो कि स्वयं परमात्मा है, वह जीव नामक पक्षी को फल खाते हुए केवल देखता रहता है अर्थात उसकी भूमिका मात्र एक द्रष्टा की है | कहने का अर्थ है कि जीव परमात्मा का ही अंश है परन्तु वह शरीर से प्राप्त हुए फल का भोक्ता बनकर शरीर के साथ बन्ध जाता है |
गीता के 13 वें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोsपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ||31||
अर्थात हे कुन्ती नन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मा स्वरूप ही है | यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न ही लिप्त होता है |
इस बात को श्वेताश्वतर उपनिषद में भी स्पष्ट किया गया है |
संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च
व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः |
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावा-
ज्ज्ञात्वादेवं मुच्यते सर्वपाशै: || श्वे.उप.-1/8||
अर्थात विनाशशील जड़ वर्ग अर्थात भौतिक शरीर और अविनाशी जीवात्मा, इन दोनों के संयोग से बने हुए व्यक्त और अव्यक्त रूप इस विश्व का भरण पोषण परमेश्वर ही करता है तथा इस जगत के विषयों का भोक्ता होने के कारण जीवात्मा प्रकृति के अधीन असमर्थ होकर उसके साथ बंध जाता है | उस परमपिता परमेश्वर को जानकर वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment