पिछले चार दिनों से काशी के भ्रमण पर हूँ। आज वापिस लौटना है, मन तो नहीं कर रहा यहां से जाने का परंतु संसार चक्र के भ्रमण में स्थायित्व का अभाव है, इसलिए जाना और आना यहां की नियति है। काशी अर्थात वाराणसी जिसे आम बोलचाल में आजकल बनारस कहते हैं, बड़ी ही शानदार जगह है। यहां काशी विश्वनाथ नाम से शिवजी का ज्योतिर्लिंग है। यहां के घाट और उन घाटों पर होने वाली सायंकालीन गंगा-आरती दर्शनीय है। इस स्थान का नाम काशी और वाराणसी कैसे पड़ा, इसके बारे में शंकर और पार्वती के मध्य हुआ एक संवाद है।
एक बार पार्वती किसी छोटी सी बात को लेकर शंकर भगवान से नाराज होकर कैलाश को छोड़कर चल दी। वह एक स्थान पर आकर रहने लगी जिसे आज हम काशी/वाराणसी/ बनारस कहते हैं। थोड़े दिन तो गुस्से में होने के कारण उसे शंकर के पास नहीं जाने की जिद्द रखी परंतु कुछ समय बाद उसे अपने पति की याद सताने लगी। नारी स्वभाव वश वह शंकर के द्वारा अनुनय विनय किये बिना उनके पास लौटना भी नहीं चाहती थी। मन को लगाने के लिए वह प्रतिदिन प्रातःकाल गरीबों को दान देने लगी और भोजन कराने लगी । इधर कैलाश में भी शंकरजी का हाल भी पार्वती से भिन्न नहीं था। पत्नी की याद में उनके दिन भी काटे नहीं कट रहे थे। दोनों के पुनःमिलन के मध्य केवल एक ही प्रश्न था - पहले कौन किसके पास जाए, मिलने की पहल कौन करे ? थक हार कर शंकरजी ने ही पहल की परंतु पुरुष स्वभाव के कारण वे मन में मिलन की भावना होते हुए भी उसे प्रदर्शित नहीं करना चाहते थे।
दीनानाथ ने दीन हीन का वेश बनाया और पहुंच गए अपनी प्रिया को देखने। प्रातःकाल वे भी दान लेने वालों की पंक्ति में जा बैठे। पार्वती आई, देखकर शम्भू सुध बुध खो बैठे। पार्वती ने देना चाहा परंतु शंकर तो हाथ फैलाने के बजाय बस उनके मुख मंडल की ओर ही देखे जा रहे थे। पार्वती झट से पहचान गई। यह कोई दीन हीन नहीं है, हो न हो ये वही है जिनसे मिलने को मैं भी इतने दिनों से व्याकुल हो रही हूं। फिर भी मन के भीतर एक संदेह, भला एक पुरुष पहल कैसे कर सकता है ? यह व्यक्ति यहां भिक्षा ग्रहण करने तो नहीं आया है फिर यहां क्या कर रहा है ? इतनी देर से केवल मुझे ही क्यों निहार रहा है ? आखिर पूछ ही बैठी -"कः असि" अर्थात कौन ? यह आप क्या कर रहे हैं? पार्वती के मुख से केवल ये दो शब्द सुनकर शिव मुस्कुरा दिए और बोले-"वरण असि" अर्थात जिसको आपने वरण किया है । सुनकर पार्वती को होश ही नहीं रहा । वे अपनी सुध बुध खो बैठी । उनके हाथ से वासन छूट गए, शरीर के वसन भी नियंत्रण में नहीं रहे, झट से शंकर के चरणों मे गिरकर अपनी गलती की क्षमा मांगने लगी।अंततः शिव का भी धीरज छूट गया, उठाकर प्रिया को हृदय से लगा लिया।पार्वती ने अश्रु भरे नेत्रों से शिव से केवल एक ही आग्रह किया-"मैं आपके विरह में इतने लंबे समय तक यहां व्याकुल रही,अतः इस स्थान को छोड़कर नहीं जाना चाहती । इस स्थान को भी हमें अपना निवास स्थान बना लेना चाहिए। इस प्रकार पार्वती के प्रश्न कः+असि से काशी और शंकर भगवान के उत्तर वरण+असि से वाराणसी, इस स्थान को ये दोनों नाम मिले । वाराणसी का धीरे धीरे अपभ्रंश होकर बनारस हो गया। पार्वती के प्रश्न से काशी का जन्म हुआ और शंकर के उत्तर से विश्वनाथ वाराणसी का। वाराणसी अर्थात जिसका पार्वती ने वरण किया यानी विश्वनाथ, इस प्रकार पार्वती के द्वारा पूछे गए प्रश्न और शम्भू के दिए गए उत्तर से काशी विश्वनाथ के नाम से यह स्थान प्रसिद्ध हुआ और इसी नाम से यहां शंकर विराजते हैं।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम् ।।
एक बार पार्वती किसी छोटी सी बात को लेकर शंकर भगवान से नाराज होकर कैलाश को छोड़कर चल दी। वह एक स्थान पर आकर रहने लगी जिसे आज हम काशी/वाराणसी/ बनारस कहते हैं। थोड़े दिन तो गुस्से में होने के कारण उसे शंकर के पास नहीं जाने की जिद्द रखी परंतु कुछ समय बाद उसे अपने पति की याद सताने लगी। नारी स्वभाव वश वह शंकर के द्वारा अनुनय विनय किये बिना उनके पास लौटना भी नहीं चाहती थी। मन को लगाने के लिए वह प्रतिदिन प्रातःकाल गरीबों को दान देने लगी और भोजन कराने लगी । इधर कैलाश में भी शंकरजी का हाल भी पार्वती से भिन्न नहीं था। पत्नी की याद में उनके दिन भी काटे नहीं कट रहे थे। दोनों के पुनःमिलन के मध्य केवल एक ही प्रश्न था - पहले कौन किसके पास जाए, मिलने की पहल कौन करे ? थक हार कर शंकरजी ने ही पहल की परंतु पुरुष स्वभाव के कारण वे मन में मिलन की भावना होते हुए भी उसे प्रदर्शित नहीं करना चाहते थे।
दीनानाथ ने दीन हीन का वेश बनाया और पहुंच गए अपनी प्रिया को देखने। प्रातःकाल वे भी दान लेने वालों की पंक्ति में जा बैठे। पार्वती आई, देखकर शम्भू सुध बुध खो बैठे। पार्वती ने देना चाहा परंतु शंकर तो हाथ फैलाने के बजाय बस उनके मुख मंडल की ओर ही देखे जा रहे थे। पार्वती झट से पहचान गई। यह कोई दीन हीन नहीं है, हो न हो ये वही है जिनसे मिलने को मैं भी इतने दिनों से व्याकुल हो रही हूं। फिर भी मन के भीतर एक संदेह, भला एक पुरुष पहल कैसे कर सकता है ? यह व्यक्ति यहां भिक्षा ग्रहण करने तो नहीं आया है फिर यहां क्या कर रहा है ? इतनी देर से केवल मुझे ही क्यों निहार रहा है ? आखिर पूछ ही बैठी -"कः असि" अर्थात कौन ? यह आप क्या कर रहे हैं? पार्वती के मुख से केवल ये दो शब्द सुनकर शिव मुस्कुरा दिए और बोले-"वरण असि" अर्थात जिसको आपने वरण किया है । सुनकर पार्वती को होश ही नहीं रहा । वे अपनी सुध बुध खो बैठी । उनके हाथ से वासन छूट गए, शरीर के वसन भी नियंत्रण में नहीं रहे, झट से शंकर के चरणों मे गिरकर अपनी गलती की क्षमा मांगने लगी।अंततः शिव का भी धीरज छूट गया, उठाकर प्रिया को हृदय से लगा लिया।पार्वती ने अश्रु भरे नेत्रों से शिव से केवल एक ही आग्रह किया-"मैं आपके विरह में इतने लंबे समय तक यहां व्याकुल रही,अतः इस स्थान को छोड़कर नहीं जाना चाहती । इस स्थान को भी हमें अपना निवास स्थान बना लेना चाहिए। इस प्रकार पार्वती के प्रश्न कः+असि से काशी और शंकर भगवान के उत्तर वरण+असि से वाराणसी, इस स्थान को ये दोनों नाम मिले । वाराणसी का धीरे धीरे अपभ्रंश होकर बनारस हो गया। पार्वती के प्रश्न से काशी का जन्म हुआ और शंकर के उत्तर से विश्वनाथ वाराणसी का। वाराणसी अर्थात जिसका पार्वती ने वरण किया यानी विश्वनाथ, इस प्रकार पार्वती के द्वारा पूछे गए प्रश्न और शम्भू के दिए गए उत्तर से काशी विश्वनाथ के नाम से यह स्थान प्रसिद्ध हुआ और इसी नाम से यहां शंकर विराजते हैं।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम् ।।
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