Sunday, December 23, 2018

अविरल जीवन(Life is continuous)-6

अविरल जीवन (Life is continuous)-6 
      गीता के ज्ञान कर्म संन्यास योग नामक चतुर्थ अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
बहूनि मे व्यतितानि जन्मानि तव चार्जुन |
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||5||
अर्थात हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं | उन सबको तुम नहीं जानते, किन्तु मैं जानता हूँ |
    यहाँ भगवान श्री कृष्ण का यह कहना सिद्ध करता है कि हमारे जन्म तो बहुत से हो सकते हैं परन्तु प्रत्येक जन्म में जीवन एक ही रहता है | श्री कृष्ण तभी तो कह रहे हैं कि मेरे और तेरे कई जन्म हो चुके हैं और प्रत्येक नए जन्म में मैं और तुम बने रहते हैं | मैं और तुम का बना रहना ही अविरल जीवन का द्योतक है | मैं और तुम ही तो इस भौतिक संसार के आधार हैं | जिस दिन मैं और तुम समाप्त हो जायेंगे, यह संसार भी समाप्त हो जायेगा परन्तु इस संसार की समाप्ति के लिए प्रत्येक के जीवन से मैं और तुम का समाप्त हो जाना आवश्यक है | लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि संसार में जीवन की निरन्तरता के लिए मैं और तुम का बने रहना आवश्यक है | इस संसार में बह रहा अविरल जीवन ही तो परमात्मा के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है |
             परमात्मा का होना अविरल जीवन पर निर्भर नहीं करता है बल्कि जीवन का अविरल होना परमात्मा पर निर्भर करता है | परमात्मा ने ही यह प्रकृति सृजित की है | प्रकृति का सृजन ही जीवन का सृजन है | इस प्रकार परोक्ष रूप से परमात्मा ही इस अविरल जीवन का सृजक हुआ | दृष्टान्त में एक शिशु का यह कहना कि मां हमें अपने भीतर समेटे हुए है इसलिए हमें वह दिखाई नहीं दे रही है, एकदम सत्य है | ठीक इसी प्रकार हमें भी परमात्मा अपने में समेटे हुए हैं और इस कारण से हम उन्हें देख नहीं पा रहे हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

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