Friday, December 14, 2018

इच्छाओं का त्याग

"इच्छा का त्याग करें" कहना जितना सरल है उतना ही करना कठिन है।संसार के गतिमान बने रहने के केंद्र में इच्छा ही महवपूर्ण भूमिका में है।मन में किसी भी प्रकार की इच्छा का नहीं रहना ही व्यक्ति को संसार से उदासीन कर देता है।दूसरे शब्दों में कहूँ तो कह सकता हूँ कि मन में इच्छा है तो संसार है और इच्छा नहीं है तो परमात्मा हैं। मन में इच्छा होना संसार में प्रवृत्त होना है और समस्त इच्छाओं का त्याग कर देना संसार से निवृत हो जाना है।
       इच्छा का जन्म स्थान मन है, इसीलिए सभी संतजन मन को नियंत्रण में रखने की बात करते हैं।मन सुगमता से वश में आने वाला नहीं है।मन के पास हज़ारों बहाने है, संसार के रस में डूबने के लिए।यह नहीं हो पा रहा है तो वह कर लूँ, यहां नहीं रह सकता तो वहां चला जाऊं, थोड़ा और धन कमा लूँ फिर भजन में लगूंगा, मेरी तो किस्मत ही खराब है आप तो बहुत भाग्यशाली हैं,अभी तो जीवन में बहुत समय मेरे पास हैं आदि अनेकों बहाने हैं, मन के पास बचने के लिए। सारा खेल मन का है, जिसमें इच्छाएं समुद्र में लहरों की भांति उठती मिटती रहती है।जब मन को वश में कर लेंगे तो धीरे धीरे उसमें इच्छाओं का जन्म लेना भी मिट जाएगा। मन को वश में करने के दो ही साधन गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताए हैं-अभ्यास और वैराग्य।इन दो साधनों को जीवन में उतार लें तो मन वश में आ जायेगा।मन वश में होगा तो सांसारिक इच्छाएं मन में जन्म ही नहीं लेगी।हमारी इच्छाएं केवल जीवन में सुख प्राप्त करने की ही होती हैं।सुख की चाहत ही दुःख को जन्म देती है।सुख की इच्छा समाप्त हो जाए तो जीवन से दुःख स्वतः ही दूर हो जाएगा।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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