Saturday, November 24, 2018

सकाम भक्ति/निष्काम भक्ति .....कल से आगे -

सकाम भक्ति/निष्काम भक्ति...कल से आगे-
     परीसा भागवत और कमला अपने जीवन में कहां संतुष्ट थे ? संतुष्ट होते तो पारस पत्थर को सिर पर उठाए न फिरते। असंतुष्टि के कारण ही तो नामदेव द्वारा पारस को नदी में फैंके जाने पर परीसा व्यथित हो गया था, मन में संतोष रहता तो उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। नामदेव जीवन में संतुष्ट थे परंतु राजाई नहीं थी। राजाई नामदेव की पत्नी, विवाह उपरांत इतने वर्षों तक सदैव नामदेव के साथ रही, वह भी उनकी निष्काम भक्ति को समझ नहीं सकी तो केवल परीसा ही क्यूँ, आप और मैं भी भला कैसे समझ सकेंगे ? दैवी से परीसा ने पारस पत्थर मांगा, कमला ने उससे स्वर्ण बनाया, फिर कमला ने वही पारस राजाई को दिया, 8न सब के मध्य सकाम भाव ही प्रवाहित होता रहा, निष्काम भाव कहीं पर भी नहीं था। परंतु जब नामदेव ने नदी में गोता लगाकर कई पारस पत्थर परीसा के सामने ला फैंके थे तब उनके मन में रत्ती भर भी सकाम भाव नहीं था।सकाम भाव की अनुपस्थिति ही निष्काम भाव है, यहां तक कि मन मे किसी विशेष प्रयोजन के लिए कुछ करने के भाव का न होना अर्थात कुछ करने के भाव का अभाव। निष्काम भाव ही निष्काम भक्ति की ओर ले जाता है।
       परीसा भागवत का सकाम भाव निष्काम भाव में तभी परिवर्तित हुआ जब उसको अपनी सकाम भक्ति नामदेव की निष्काम भक्ति के सामने बौनी प्रतीत हुई । इधर वह सामने पड़े असंख्य पारस पत्थरों को देख रहा था और उधर नामदेव को निर्विकार भाव से परमात्मा का ध्यान करते।वह समझ गया था कि सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति तक की यात्रा में अटकाव कहीं पर भी नहीं होना चाहिए। वह तत्काल ही सकाम भाव से मुक्त होकर निष्काम भक्ति की ओर अग्रसर हो गया और नामदेव के चरणों में गिर पड़ा।
           सारांश यह निकलता है भक्ति के अभाव से सकाम भक्ति अच्छी है। भक्ति का प्रारम्भ ही कामना पूर्ति से होता है । अतः सकाम भक्ति करना कहीं से भी अनुचित नहीं है। अनुचित है, सकाम भक्ति पर ही बने रहना अथवा वहीं पर अटक जाना । परमात्मा की कृपा हो तो संतों का सानिध्य पाकर नास्तिक भी आस्तिक हो सकता है और सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की ओर भी अग्रसर हुआ जा सकता है। इसीलिए संत मिलन को ही संसार का सर्वोत्तम सुख कहा गया है ।
प्रस्तुति -डॉ.प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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