पुरुषार्थ - 43 -मोक्ष-3
जैन दर्शन के अनुसार मुक्त
होने के क्रम में दो स्थितियां आती हैं | पहले नवीन कर्मों का प्रवाह निरुद्ध होता
है, जिसे ‘संवर’ कहा जाता है | दूसरी स्थिति में पूर्व जन्म के संचित कर्मों का भी
विनाश हो जाता है जिसे ‘निर्जरा’ कहा जाता है | इन दोनों के बाद की स्थिति को
मोक्ष कहा जाता है | यह जीवन मुक्ति की स्थिति है | शारीरिक मृत्यु के बाद ईश्वर
और ब्रह्म की सत्ता जैन धर्म में स्वीकार्य नहीं है | हाँ, जैन दर्शन में
पुनर्जन्म को अवश्य माना गया है | जीवनमुक्ति की अवस्था में अनंत ज्ञान, अनंत
शांति और अनंत ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है |
सांख्य दर्शन में ‘कैवल्य’ को जीवन का परम
लक्ष्य माना गया है, जो मोक्ष के समकक्ष ही है | सांख्य दर्शन के अनुसार जिससे
मुक्त होना होता है वह प्रकृति है और जो मुक्त होता है, वह पुरुष है | कैवल्य
पुरुष का स्वभाव है परन्तु प्रकृति का संग पाकर वह अपना स्वभाव भूल जाता है | अहम्
बुद्धि के कारण वह संसार को ही सत्य मान लेता है | इस संसार से आसक्ति को दूर करने के लये
अष्टांग-योग है | महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग के आठ अंग हैं-यम,
नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि | अष्टांग योग की साधना
से वह अर्थात पुरुष प्रकृति से मुक्त हो जाता है | मुक्त होने का अर्थ ब्रह्म के
साथ योग होना नहीं है बल्कि संसार से वियोग होना है | इस अवस्था में व्यक्ति ‘जीवन-मुक्त’
हो जाता है | सांख्य ईश्वर में विश्वास नहीं करता परन्तु योग ईश्वर प्रणिधान और
भक्ति को मोक्ष का साधन मानता है किन्तु यह केवल श्रद्धालुओं और अज्ञानियों के लिए
ही स्वीकृत किया गया है, जो योगादि कठिन साधना नहीं कर सकते | यहाँ अज्ञानी से अर्थ
मूर्ख होने से नहीं है बल्कि उनसे है जो ज्ञान मार्ग पर चलने में असमर्थ हैं |
न्याय और वैशेषिक दर्शन में मोक्ष
को आनंददायक नहीं मानते क्योंकि सुख और दुःख दोनों आत्मा के विशेष गुण हैं, इसलिए
दोनों सत्य हैं परन्तु ये दोनों आत्मा के मूलभूत गुण नहीं हैं | इसलिए वे मोक्ष की
कल्पना अलग प्रकार से करते हैं | सुख दुःख से परे हो जाना ही मुक्त हो जाना है |
इस प्रकार मोक्ष की स्थिति में आत्मा सुख-दुःख दोनों से ही मुक्त हो जाती है |
दुःख से मुक्ति के लिए हमें सुख की आशा नहीं करनी चाहिए | दुःख तो हमारा जीवन भर
पीछा नहीं छोड़ता परन्तु हम तो दुःख का अतिक्रमण कर ही सकते हैं | देह मुक्ति के
बाद आत्मा अपने सुख-दुःख के विशेष गुणों से भी मुक्त हो जाती है | इसमें जीवन मुक्ति
को स्वीकार नहीं किया गया है बल्कि उसके स्थान पर ‘दिव्य-विभूति’ कहा जाता है,
जिसकी आत्मा में उसके दोनों विशेष गुण सुख-दुःख उपस्थित रहते हैं |
आप सभी पाठक गण को दीपोत्सव की हार्दिक
शुभकामनाएं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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