धर्म: स्वनुष्ठित:पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि समृत:।।
।।भागवत-1/2/8।।
धर्म का ठीक ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम ही श्रम है।
जैसा कि हम जानते हैं कि धर्म एक पुरुषार्थ है और उसको प्राप्त करने के लिए श्रम करना पड़ता है।अगर इस श्रम से हम अर्थ और काम प्राप्त कर केवल उनके उपभोग में ही लग जाते हैं,तो ऐसे धर्म को प्राप्त करके भी इस जीवन में कुछ भी लाभ नहीं होने वाला।धर्म परमात्मा के प्रति हमारी श्रद्धा और अनुराग पैदा करने में सहायक होता है । अगर ऐसा न हो पाता है तो फिर ऐसे धर्म को प्राप्त कर लेने से भी क्या लाभ । फिर तो यह निरा श्रम ही श्रम है अर्थात ऐसे धर्म उद्देश्यहीन होता है।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि समृत:।।
।।भागवत-1/2/8।।
धर्म का ठीक ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम ही श्रम है।
जैसा कि हम जानते हैं कि धर्म एक पुरुषार्थ है और उसको प्राप्त करने के लिए श्रम करना पड़ता है।अगर इस श्रम से हम अर्थ और काम प्राप्त कर केवल उनके उपभोग में ही लग जाते हैं,तो ऐसे धर्म को प्राप्त करके भी इस जीवन में कुछ भी लाभ नहीं होने वाला।धर्म परमात्मा के प्रति हमारी श्रद्धा और अनुराग पैदा करने में सहायक होता है । अगर ऐसा न हो पाता है तो फिर ऐसे धर्म को प्राप्त कर लेने से भी क्या लाभ । फिर तो यह निरा श्रम ही श्रम है अर्थात ऐसे धर्म उद्देश्यहीन होता है।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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