पुरुषार्थ-40-काम-4
तपस्वी की कठोर तपस्या से
प्रसन्न होकर अंततः एक दिन परमात्मा प्रकट हो ही गए | प्रकट होते ही उन्होंने
तपस्वी से वर मांगने को कहा | परमात्मा ने तपस्वी से पूछा -‘कहो वत्स, तुम्हे
मोक्ष चाहिए अथवा मेरी भक्ति | क्या कामना है तुम्हारी ? तुम्हारे अति कठोर तप से
प्रसन्न होकर मैं आज तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा |’ तपस्वी हाथ जोड़कर
परमात्मा के समक्ष खड़ा हो गया और क्षुब्ध होकर कहने लगा -‘न तो मुझे आपकी भक्ति
चाहिए और न ही मोक्ष | अगर आपको मुझे कुछ देना ही है, तो गाँव की उस सुन्दर कन्या
को तत्काल यहाँ बुलाकर उसका विवाह मेरे साथ करा दीजिये |’ तपस्वी की यह बात सुनकर परमात्मा
ने उसकी यह कामना पूरी की अथवा नहीं, अपने को इससे कुछ भी लेना देना नहीं है | हमें
तो इस दृष्टान्त से एक ही बात ग्रहण करनी चाहिए कि मनुष्य की सांसारिक कामनाओं का
कहीं भी कोई अंत नहीं है | अतः हमें सांसारिक कामनाओं में उलझना नहीं है क्योंकि
वे अनन्त है और एक के पूरी होते ही दूसरी कामना का मन में जन्म हो जाता है |
हमें जीवन में अर्थ और काम, दोनों
की ही उपलब्धि पूर्व मानव जीवन के कर्मों और अधूरी रही कामनाओं के कारण बने
प्रारब्ध के अनुसार होती है और इस जीवन में मन में पैदा हुए काम के अनुसार भावी
जीवन में अर्थ और काम की प्राप्ति होगी | इस बात को सदैव ध्यान में रखें | अतः इस
जीवन में हमारे लिए काम एक ही होना चाहिए- अंतिम पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ को प्राप्त
करने का | जैसा कि मैंने इस श्रृंखला के प्रारम्भ में ही कह दिया था कि इस जीवन
में पुरुषार्थ कर नए जीवन में अर्थ और काम को पाया जा सकता है और इसी जीवन में उस
पुरुषार्थ से धर्म और मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है | मानव जीवन को प्राप्त
करने का एक ही लक्ष्य है, मोक्ष प्राप्त करना | ‘मोक्ष’ विषय बड़ा ही जटिल है | हम वर्तमान
जीवन में ‘मोक्ष’ को उपलब्ध होंगे अथवा नहीं, यह चिंतनीय नहीं है क्योंकि इसे
प्राप्त करना हमारे कर्म पर निर्भर है परन्तु ‘मोक्ष’ विषय पर चिंतन करने को हम स्वतन्त्र है
| चिंतन से ही प्रेरित हो हम ‘मोक्ष’ की और प्रस्थान कर सकते हैं | तो आइये ! कदम बढाते
हैं ‘मोक्ष’ द्वार की ओर |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
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