Thursday, November 1, 2018

पुरुषार्थ-37-काम-1


पुरुषार्थ-37-काम-1  
काम (Pleasure/Business/Action) – Psychological values
                मनुष्य जीवन का तीसरा पुरुषार्थ है काम | काम का शाब्दिक अर्थ है ‘इच्छा’ अथवा ‘कामना’ | सामान्य रूप से कामना का मंतव्य होता है - शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करना | पुरुषार्थ के रूप में काम से अभिप्रायः मनुष्य की उन सभी शारीरिक, मानसिक आदि कामनाओं की पूर्ति से से है, जो उसके सम्पूर्ण विकास और जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक है | इच्छा सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति (Motivational power) है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रत्येक कार्य के पीछे काम का होना एक आवश्यक शर्त है |
                 मनुष्य के जीवन में कामनाओं का महत्वपूर्ण स्थान है | अगर मन में कामना ही न उठे तो फिर अर्थ कैसे प्राप्त होगा ? अर्थ धर्म के एक आवश्यक अंग, ‘दान’ के लिए आवश्यक है | अतः जीवन में काम का होना धर्म और अर्थ की तरह ही महत्वपूर्ण है | बिना काम के हमारा जीवन एक भार ढोने वाले प्राणी से बिलकुल भी भिन्न नहीं होगा | जीवन बोझ तभी बन जाता है, जब कामनाएं पूरी न हो | अतः कामनाओं का जीवन में उठना, उनको पूरा करने का प्रयास करना और फिर सुख प्राप्त करना ही जीवन की गति के लिए आवश्यक है |
                  जीवन में कामनाएं होना / रखना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि जीवन में कामनाएं किस प्रकार की रखनी चाहिये ? सांसारिक सुख एक क्षण के सुख से अधिक कुछ भी नहीं है जबकि परमात्मा का सुख अखंड और अनन्त (Infinity) है | हमारे जीवन में कामनाएं प्रायः सांसारिक सुख की होती है | सांसारिक सुख अस्थाई (Temporary) और अंततः दुःख में परिवर्तित होने वाला होता है | जीवन में ऐसे काम को हमें महत्त्व (Importance) देना चाहिए जो हमें स्थाई सुख दे सके | स्थाई सुख परमात्मा में ही मिल सकता है, संसार में नहीं | अतः हमारी कामना परमात्मा का प्रेम पाने के लिए होनी चाहिए, संसार से प्रेम पाने की नहीं | परमात्मा से प्रेम करने पर हमें प्रेम ही प्रत्युतर में मिलता है जबकि संसार से प्रेम करने पर अंततः दुःख की प्राप्ति होती है |
काम को भारतीय मनीषियों ने तीन श्रेणियों में रखा है, सात्विक, राजसिक और तामसिक | गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
 बलं बलवंता चाहं कामरागविवर्जितम् |
धर्मविरुद्धो भूतेषु कामोSस्मि भरतर्षभ ||गीता-7/11||
अर्थात हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना और आसक्ति रहित बल यानि सामर्थ्य हूँ तथा सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम हूँ |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

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