पुरुषार्थ-38 – काम-2
सात्विक काम फल की कामना के बिना अर्थात किसी प्रत्याशा/अपेक्षा
(Expectancy)
के बिना और स्व-धर्मानुसार (विवेकानुसार)
संपन्न किया जाता है | सात्विक काम धर्म सम्मत होता है | राजसिक काम विषय, वासना
और इन्द्रिय संयोग से पैदा होने वाला अहंकारयुक्त और फल की इच्छा रखते हुए किया
जाने वाला काम है | इस प्रकार के काम को भोगते समय तो सुखकारी प्रतीत होता है
किन्तु इसका परिणाम दुखकारी होता है | तामसिक काम में मनुष्य मोह पाश में बंधा हुआ
होता है , वह न तो वर्तमान का और न ही भविष्य का कोई विचार करता है | आलस्य(Laziness), निद्रा (Lethargy) और प्रमाद(Negligence) इस काम के जनक कहे गए हैं | इस प्रकार का काम न तो भोगते समय सुख देता है
और न ही इसका परिणाम सुखकारी होता है | इन तीनों कामों में सात्विक काम श्रेष्ठ है
जो भोगते समय तो विषकारी हो सकता है लेकिन परिणाम सदैव आनंददायी और मुक्तिकारक
होता है | अन्य काम तो केवल बंधन ही पैदा
करते हैं | यही कारण है कि भारतीय
मनीषियों ने स्वीकार किया है कि यौन (Sexual) सम्बन्धी
इच्छाओं की तृप्ति (Satiety) जीवन का एक सहज (Effortless), स्वाभाविक (Natural) अथवा मूल प्रवृत्यात्मक अंग (Part)
है | इसकी संतुष्टि के लिए हमारी संस्कृति में विवाह (marriage)
का विधान है |
गीता में इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते
हुए काम को तृप्त करने के लिए कहा गया है | गीता के दूसरे अध्याय के 62 और 63 वें
श्लोक में कहा गया है कि विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की इन विषयों के साथ आसक्ति
(Attachment)
हो जाती है, आसक्ति से काम पैदा होता है और काम की तृप्ति न होने से
क्रोध (Anger) पैदा होता है | क्रोध से मोह (fascination)
पैदा होता है, मोह से स्मृति-भ्रम (Delusion) और
अविवेक (Indiscriminate) पैदा होता है | अविवेक से बुद्धि (Intelligence)
का नाश हो जाता है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का नष्ट हो
जाना निश्चित है अर्थात मनुष्य पुरुषार्थ के योग्य नहीं रह जाता है |
मनुष्य के जीवन में कामनाओं का कभी भी अंत नहीं होता क्योंकि
संसार के सभी प्राणियों का अस्तित्व ही मनुष्य की कामनाओं पर टिका हुआ है | मनुष्य की सांसारिक सुख प्राप्त करते रहने की
कामनाएं जीवन भर पूरा नहीं हो सकती इसीलिए उसे विभिन्न प्राणियों के रूप में जन्म
लेना पड़ता है | इससे सिद्ध होता है कि कामनाएं ही इस संसार के सतत (Continuous)
गतिमान रहने का आधार है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
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