Saturday, November 3, 2018

पुरुषार्थ-39-काम-3


पुरुषार्थ-39-काम-3
                  कामनाएं चाहे परमात्मा को पाने की हो अथवा सांसारिक सुख की, दोनों ही प्रकार की कामनाओं का छूट जाना आवश्यक है | परमात्मा को पाने की कामना आध्यात्मिक कामना है जिसे धर्म के मार्ग पर चलते हुए सात्विक कर्म करके पाया जा सकता है और अंत में इस कामना का भी त्याग करना होता है | सांसारिक कामनाओं को पूरा करने के लिए सात्विक कर्म करें अर्थात धर्माचरण करते हुए शास्त्रोक्त कर्म करें | धर्माचरण करना और शास्त्रोक्त कर्म करना, दोनों एक ही बात है | धर्म कहता है कि प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को अहिंसा, सत्य,अस्तेय(चोरी न करना),अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए | ये पांचो समाज और संसार के हित के लिए पालनीय धर्म है | ब्रह्मचर्य के दो अर्थ हैं – चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना | साथ ही साथ शौच अर्थात बाहर भीतर की शुद्धि, संतोष, तप अर्थात स्वयं से अनुशासित रहना, स्वाध्याय अर्थात आत्मचिंतन करना और ईश्वर प्राणिधान अर्थात ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव का पालन करना चाहिए | यह सभी निजी धर्म है | अगर हम सांसारिक सुख के लिए धर्म का त्याग करते हैं तो हम अपने जीवन में आध्यात्मिक कभी हो ही नहीं सकते | 
                  हमारे जीवन में सांसारिक कामनाओं का अंत कभी भी नहीं आता है | इस बात को स्पष्ट करने के लिए  एक दृष्टान्त देना चाहूँगा | एक व्यक्ति मोक्ष की कामना के साथ घने जंगल में तप कर रहा था | उस व्यक्ति की कुटिया के पास ही एक मीठे जल का तालाब था | गाँव की महिलाएं तालाब से जल लेने आया करती थी | एक दिन एक सुन्दर बाला ने विचार किया कि तपस्वी को कुटिया में तालाब से जल ले जाने में असुविधा होती होगी, क्यों न इनकी कुटिया में प्रतिदिन मैं ही जल भर कर रख दिया करूँ ? अगले दिन से ही वह ऐसा करने लगी | एक दिन तपस्वी जब अपनी साधना से उठा ही था कि उसकी दृष्टि उस कन्या पर पड़ गयी | उसकी सुन्दरता देख कर वह मंत्रमुग्ध होकर उस कन्या पर मोहित हो गया | उसके मन में उस कन्या से विवाह करने की कामना जगी परन्तु एक तपस्वी की गरिमा को ध्यान में रखते हुए उसने यह बात अपने भीतर ही रखी | प्रतिदिन कन्या आती, उसकी कुटिया में जल भरकर रख देती | तपस्वी उसको निहारता रहता परन्तु उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका | कई दिनों बाद उस कन्या को एक लम्बी अवधि के लिए उस गाँव से दूर किसी नगर में जाना पड़ा जिससे उसका वन में आना न हो सका | इस प्रकार तपस्वी की कुटिया में जल भरकर रखने का क्रम भी टूट गया | तपस्वी को जल भरने की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी उस कन्या को लेकर चिंता थी कि आखिर वह कहाँ चली गयी ? उस कन्या को देखे बिना तो तपस्वी का हाल बेहाल हो गया | वह तप छोड़कर रात-दिन केवल उस कन्या का चिंतन करने लगा | एक दिन उसने गाँव की किसी अन्य महिला से उस कन्या के बारे में पूछा | महिला ने बताया कि वह तो यहाँ से बहुत दूर किसी नगर में चली गयी है और निकट भविष्य में उसका लौटना संभव नहीं है | थक हारकर आखिर तपस्वी ने उस कन्या की राह देखना छोड़ दिया और पुनः तप में लग गया |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

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