Saturday, October 31, 2015

सनातन शास्त्र-5

                         हमारे शास्त्र हमारे लिए जीवन है | बिना शास्त्रों  के हम निर्जीव हैं |मनुष्य और पशु दोनों में एक मात्र अंतर यही है कि पशु किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं कर  सकता जबकि मनुष्य की बुद्धि इतनी विकसित है कि वह अध्ययन कर अपने भले बुरे को समझ सकता है | यह क्षमता उसके लिए अपना जीवन सुगमता और आनंदपूर्वक जीवन जीने के लिए परमात्मा का एक आशीर्वाद  है |दूसरा आशीर्वाद परमात्मा का हमारे ऊपर है कि उसने हमें इतने अच्छे शास्त्र प्रदान किये है |संसार में आज तक क्या हुआ है, भविष्य में क्या होने वाला है, आपको अपने जीवन में क्या करना या क्या नहीं करना चाहिए,संसार में जो और जैसे घटित हो रहा है उसका राज़ क्या है आदि सभी ज्ञान और विज्ञान हमारे सनातन शास्त्रों में छुपा हुआ है |आवश्यकता केवल हमारी रुचि और लगन की है |अगर हमारी लगन और आस्था इनमे हो तो फिर समुद्र मंथन से प्राप्त अमूल्य वस्तुओं की तरह हम भी इन शास्त्रों का मंथन कर बहुमूल्य ज्ञान परमात्मा के आशीर्वाद फलस्वरूप प्राप्त कर सकते हैं |
                     जिस प्रकार दही को मंथन प्रारम्भ करते ही कुछ पलों में मख्खन प्राप्त नहीं होता है उसी प्रकार सनातन शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ करते ही तुरंत ही इसके रहस्य प्रकट  नहीं होते हैं |मख्खन प्राप्त करने के लिए जैसे  धैर्य रखते हुए दही को तन्मयता के साथ मथना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार शास्त्रों का बार बार अध्ययन करते हुए ही उसमे  समाहित ज्ञान को प्राप्त कर आलोकित हुआ जा सकता है |   अतः प्रथमतः हमें इन शास्त्रों के प्रति आस्था और विश्वास रखना होगा | उसके बाद धैर्य के साथ उसका अध्ययन प्रारम्भ करना होगा | प्रथम बार अध्ययन करने पर वे नीरस प्रतीत होते हैं परन्तु सतत अध्ययन के फलस्वरूप जब आपकी रूचि इनमे बनने लगती है तब आपको इसके अध्ययन में एक प्रकार के अतुलनीय आनंद की अनुभूति होने लगती है |जब आपको इनमे आनंद आने लगे तब आप अपनी बुद्धि को सूक्ष्म करते हुए इन शास्त्रों के प्रत्येक श्लोक में गहरे झांकने का प्रयास करें, इनमे आपको विलक्षणता दिखाई देगी |
                         प्रत्येक बार आपको अध्ययन  करने से   नए ज्ञान की अनूभूति होगी | इस प्रकार सतत अध्ययन से आप इन सनातन शास्त्रों में समाहित ज्ञान और विज्ञान को समझ पाएंगे, यह मेरा विश्वास है | कल से हम विभिन्न शास्त्रों में समाहित ज्ञानयुक्त श्लोकों पर विवेचन प्रारम्भ करेंगे, जिससे आपको इन शास्त्रों को समझने में सहायता मिल सके | प्रारम्भ हम भगवान  श्रीकृष्ण की वाणी  श्रीमद्भागवतगीता से करेंगे |
                                                        || हरिः शरणम् ||

Tuesday, October 27, 2015

सनातन शास्त्र-4

            जब व्यक्ति को चारों और अन्धकार दिखाई देता है, कोई रास्ता नज़र नहीं आता तब एक मात्र मार्गदर्शन देने वाला हमारा सद् साहित्य ही होता है |  ऐसे में हमें सदैव ही इनका सम्मान करना चाहिए | इसी कारण से हमारे पूर्वजों ने साहित्य को सबसे बड़ा मित्र कहा है |आपके बुरे  समय में आपके परिवार जन,  मित्र आदि सभी साथ छोड़ सकते हैं परन्तु सद् ग्रन्थ कभी भी आपका साथ नहीं छोड़ सकते |अतःजीवन में इन शास्त्रोंका बहुत ही महत्त्व है | जीवन के प्रारम्भ से ही जिन्हें पुस्तकें आदि पढ़ने की आदत होती है, उन्हें आज तक मैंने अपने जीवन में विपत्तियों से घबराते हुए नहीं देखा है |उन्हें ये शास्त्र ही घोर अँधेरे में भी मार्ग दिखाते हैं | आज इस आपाधापी युक्त  एकाकी जीवन में जहाँ केवल अपना स्वार्थ ही मित्रता है, शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए हैं | इनका उपयोग जो भी कोई व्यक्ति करेगा ,उसका जीवन आनंदमय होगा |
                 इस प्रकार हम देखते हैं की हमारे जीवन को अवसाद से आनंद तक ले जाने वाले हमारे शास्त्र ही हैं |इनकी उपेक्षा करना जीवन की उपेक्षा करना है | आप श्रीमद्भागवत गीता को ही ले लीजिये | गीता का प्रथम अध्याय विषाद योग नाम का है | इस अध्याय में अर्जुन के अवसादग्रस्त हो जाने का उल्लेख है | इसमे व्यक्ति जब जब अवसादग्रस्त हो जाता है,तब तब वह कैसा व्यवहार और कैसी कैसी बातें करता है,सब का विवरण दिया गया है | दूसरे अध्याय  से जब भगवान श्री कृष्ण उससे बात करना प्रारम्भ करते हैं तब अठारहवें अध्याय तक आते आते अर्जुन अवसाद से बाहर निकल आता है | इसीलिए गीता को अवसाद से आनंद तक की यात्रा कहा गया है |
                    इसी प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण में श्रृंगी ऋषि के शाप से आहत राजा परीक्षित अवसादग्रस्त हो जाता है | उसे श्राप मिलता है कि आज से सात दिन बाद सर्पों का राजा तक्षक उसे डस लेगा जिस कारण से वह तत्काल ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा | परीक्षित इस श्राप से विचलित होकर अवसाद में आ जाता है | वह अपना राज पाट त्यागकर वन में आ जाता है |वहां गंगा किनारे उसे शुकदेव मुनि ज्ञान देकर संभावित मृत्यु के भय से उत्पन्न अवसाद से बाहर निकाल लाते हैं |
                                  अवसादग्रस्त होने का मूल कारण  कहीं भीतर गहरे में छुपा कोई भय होता है | जब उस भय को समाप्त कर दिया जाये तो व्यक्ति अवसाद से  बाहर निकल आता है |हमारे समस्त सनातन शास्त्र व्यक्ति को भय से मुक्त करने वालें  है | यही हमारे धर्म शास्त्रों की विशेषता है |अतः इनका समय समय पर अध्ययन करते रहना बड़ा ही लाभप्रद होता है | जीवन में सद् शास्त्र की बताई राह पकड़ें | यही Art of life है, जीवनको आनंदपूर्वक जीने की कला है |
क्रमशः
                                          || हरिः शरणम् ||

Thursday, October 22, 2015

सनातन शास्त्र-3

                  हमारे धर्म-शास्त्र हमें अपनी जीवन शैली को सुधारने और सही शैली अपनाने का मार्ग दिखाते हैं । मध्य काल, जब इस देश पर विधर्मियों ने आक्रमण करते हुए भारतीय सनातन संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने का असफल प्रयास किया था उस काल में हमारी सनातन संस्कृति भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी । उस अवधि में कथित ज्ञानियों ने हमारे धर्मग्रंथों की व्याख्या उन विधर्मियों के  प्रभाव में आकर अनुचित प्रकार से करना प्रारम्भ कर दिया था | यही कारण है कि हमारी आज की युवा पीढ़ी इस अनुचित व्याख्या को सही मान बैठी है |आज हमें इसी युवा पीढ़ी को हमारे सनातन शास्त्रों का सही रूप दिखाने की आवश्यकता है | शास्त्रों में वर्णित ज्ञान को अज्ञान कहकर प्रचारित किया जा रहा  है | अगर यही सब कुछ चलता रहा तो एक दिन हमारी इस भावी पीढ़ी का सनातन धर्म शास्त्रों की तरफ वापिस लौटना असंभव हो जायेगा | आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं,वह एक ऐसा दौर है जब अधर्म को धर्म कहते हुए प्रचारित किया जा रहा है |धर्म की सही व्याख्या, धर्म का सही दर्शन हमें हमारे धर्म शास्त्र ही करा सकते हैं | धर्म विज्ञानं का विषय नहीं है,यह तो केवल एक राह है जिस पर चलकर व्यक्ति अपने जीवन को सुखपूर्वक जी सकता है |
                     आज चारों ओर अभाव और अनिश्चितता का वातावरण बना हुआ है | नई पीढ़ी को अपना जीवन सुगमता पूर्वक जीने की राह दिखाई नहीं दे  रही है | उसमें आत्मबल का अभाव निरंतर बढ़ता ही जा रहा है |इस आत्मबल के अभाव के कारण वह भी अर्जुन की तरह ही विषाद ग्रस्त हो गया है | उसको भी एक कृष्ण की तलाश है, जो उसके जीवन में आकर गीता सा ज्ञान देकर जीवन को रस और उमंग से भर दे |परन्तु यहाँ इस संसार में प्रत्येक अवसादग्रस्त अर्जुन को श्री कृष्ण  जैसा सारथी उपलब्ध नहीं हो सकता , उन जैसा कोइ और  गुरु नहीं मिल सकता | आज के समय में उसे हमारे धर्म-ग्रन्थ ही सही राह दिखा सकते हैं |अतः उनकी धर्म ग्रंथों में रुचि पैदा करना और भी अधिक आवश्यक हो जाता है |
                       जीवन में अभाव किसको नहीं है ? आज तक कम से कम मुझे तो एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो कहदे कि मैं अपने जीवन से पूर्णतया संतुष्ट हूँ |यह असंतुष्टता आखिर है क्यों ? हमारी जीवन शैली इन आक्रमणकारी विधर्मियों ने ऐसी बना दी है कि हम जीवन भर संतुष्ट हो ही नहीं सकते | इस जीवन में अभावों ही अभावों का ही स्थान है क्योंकि हमारा स्वभाव ही ऐसा बन गया है कि संसार  की समस्त धन दौलत, रिद्धि  सिद्धियाँ और ऐशो आराम भी हमें संतुष्ट नहीं कर सकते | इसका एक बड़ा ही महत्वपूर्ण कारण है | हम संतुष्टि की खोज में भटकते हुए सारा संसार  छान रहे हैं |हमें वह वस्तु चाहिए जो हमें अभावग्रस्त नहीं रहने दे | भला वह इस संसार में कैसे मिल सकती है ? हमारे समस्त शास्त्र कहते हैं कि संसार से आप वह प्राप्त करने की कामना कर रहे हैं जिसकी पूर्ति करना संसार के बस में है ही नहीं | संसार स्वयं अभाव का दूसरा नाम है | भला संसार से आप अपना अभाव दूर करने की कामना कैसे कर सकते हैं ?यह तो वही बात हो गई कि  आप एक निर्धन व्यक्ति से धन देने की याचना करते हैं |
क्रमशः
                                || हरिः शरणम् ||

Saturday, October 17, 2015

सनातन-शास्त्र-2

                              सनातन धर्म के जितने भी शास्त्र हैं , वे किसी एक व्यक्ति के विचार मात्र नहीं है |आप चाहे कोई सा भी धर्मग्रन्थ उठा लीजिये | केवल वेद ही ऐसे है जिन्हें अपौरुषेय कहा जाता है | वेद परमात्मा के द्वारा कहे गए हैं | जबकि शेष अन्य शास्त्र किन्ही व्यक्तियों की आपस में हुई और की गई धर्मचर्चा पर आधारित हैं |कहने को भले ही कह दिया जाये कि भागवत महापुराण महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित है अथवा योगवासिष्ठ  महर्षि वसिष्ठ द्वारा लिखी गई है परन्तु इनका अध्ययन करने पर पता चलता है कि इनमें भी महापुरुषों के मध्य हुई चर्चाओं का संकलन है |अतः इन ग्रंथों की उपयोगिता कहीं अधिक है   | जब किसी एक व्यक्ति के विचार पर कोई ग्रन्थ आधारित होता है तब उस ग्रन्थ में मात्र उस व्यक्ति के अपने व्यक्तिगत विचार ही समाहित किये हुए होते हैं | परन्तु जब विभिन्न महात्माओं की आपस की चर्चा और विवेचन उस ग्रन्थ के लेखन का आधार होता है, तब उसकी उपयोगिता और स्वीकार्यता सर्वाधिक होती है |
                             संसार में जितने भी अन्य पंथ है ,वे सभी किसी न किसी एक व्यक्ति के विचारों और संदेशों को आगे बढाने और प्रचारित करने के लिए बनाये गए हैं |उस पंथ के पथ पर चलने वालों के लिए उस व्यक्ति के विचारों और संदेशों को मानना आवश्यक होता है | उस व्यक्ति के विचार भले ही आज के समय के अनुकूल नहीं हो और भले ही आपके विचार उस व्यक्ति के विचारों से मेल नहीं खाते हों , आपको कोई अधिकार नहीं होता है कि आप उन पुरातन विचारों का विरोध करें | सनातन धर्म शास्त्रों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता | समयानुसार इनमें और इनकी व्याख्या में परिवर्तन होता रहा है |आप इन ग्रंथों में समाहित प्रत्येक ज्ञान कण को मानने को विवश नहीं हैं | इन ग्रंथों को पढ़कर,इनका मनन करने के उपरांत आपका एक अलग ही प्रकार का चिंतन बनता है, जो आपके स्वयं के स्वभावानुसार होता है, न कि उस ग्रन्थ के रचनाकार के अनुसार | यही विशेषता सनातन धर्म शास्त्रों को सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है | आप उस चिन्तन के अनुसार उस धर्म ग्रन्थ की विवेचना कर सकते हैं | इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों के चिंतन के अनुसार उनके द्वारा की गई शास्त्रों की व्याख्याएं किसी नए व्यक्ति को अपना अलग ही चिन्तन विकसित करने में सहायक सिद्ध होती है |इस प्रकार हमरे शास्त्रों की की गयी विभिन्न व्याख्याएं इन्हें समझने में एक आधार प्रदान करती हैं | श्री मद्भागवत गीता जो कि श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में हुआ संवाद मात्र है परन्तु विभिन्न विद्वजनों द्वारा उनके अपने चिंतन के आधार पर की गयी व्याख्याओं ने इस ग्रन्थ की उपयोगिता को विशिष्ठ स्थान प्रदान किया है |
                       सनातन धर्म शास्त्रों की संख्याएं और प्रत्येक ग्रन्थ की विशालता अपने आप में एक अलग ही स्थान रखती हैं | हमारे यहाँ चार वेद हैं, 18 पुराण है ,छः शास्त्र हैं ,अनेकों उपनिषद् है , वे सभी प्राचीन माने गए हैं | श्री मद्भागवत गीता भी एक उपनिषद् है | इन सबके अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण, गोस्वामी तुलसीदास रचित श्री रामचरित मानस, अष्टावक्र गीता,अध्यात्म रामायण , योगवासिष्ठ आदि असंख्य ग्रन्थ है | इतना ही नहीं , इन विभिन्न ग्रंथो पर की गई टीकाएँ भी हमारे यहाँ प्रचुर मात्र में उपलब्ध हैं | इन सबका अध्ययन करना एक बहुत बड़ी बात है |
क्रमशः
                                    || हरिः शरणम् ||

Tuesday, October 13, 2015

नवरात्रि उत्सव |

                           हमारी भारतीय संस्कृति बड़ी ही उत्सव मनाने वाली है | इस जीवन के प्रतिदिन को उत्सव में परिवर्तित कर देना ही इस संस्कृति  का मूल मन्त्र है | जीवन में अवसाद को  सदैव ही दूर रखें और आनन्द में बहते रहें ,यही हमारी संस्कृति और शास्त्रों की प्रेरणा है |अतः हमारे इस उत्सव को हम इसी प्रकार आनंद के साथ मनाएं  और आ रही कुरीतियों से अपने आप को दूर रखें |
                     आधुनिक जीवन में हमारे उत्सव मनाने की परम्परा भी प्रभावित हुई है | आनंद प्राप्त करने के अतिरेक में आज की युवा पीढ़ी भ्रमित हुई जा रही है | उसे भ्रमित होने से बचाने का प्रयास आज की महती आवश्यकता है |अतः हम सबका दायित्व है कि हम अपने उत्सवों की परम्परा के वास्तविक स्वरुप से नई पीढ़ी का परिचय कराएँ और उनको एक अनुशासन में रहने की प्रेरणा दें |
                     आप सभी को शारदीय नवरात्रि की शुभकामनाएं |
                                               || हरिः शरणम् ||

Wednesday, October 7, 2015

सनातन-शास्त्र-1

                     हमारा सौभाग्य है कि हम इस संसार में एक मनुष्य के रूप में पैदा हुए हैं |मनुष्य, अर्थात जिसके पास मन हो | मन, जिसके पास जीव के द्वारा किये जाने वाले कर्मों की सत्ता हो |बिना मन के इस संसार में रहने और कुछ कर पाने की कल्पना करना तक असंभव है |मन की  उपस्थिति से ही हम अपने आप को मनुष्य कहते हैं |बिना मन के शेष 84 लाख योनियां ही है | उन सबसे अलग केवल मात्र एक योनि ही है जिसके पास मन है,और वह है मनुष्य | जिस मनुष्य ने मन का किसी भी प्रकार उपयोग नहीं किया वह मनुष्य अपने आपको मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है |अतः गर्व कीजिये , स्वयं के मनुष्य होने का अन्यथा इस संसार में अन्य प्राणी भी शेष सभी वे कर्म करते ही हैं,जो मनुष्य भी करता है सिवाय अपने मन में सोचे गए कर्म के |मन ही मनुष्य को उन्नति अथवा अवनति तक ले जा सकता है |
               मनुष्य के रूप में इस संसार में आने के बाद हमारा दूसरा सौभाग्य यह है कि हम इस भारत भूमि में जन्में है | भारत भूमि, पृथ्वी का वह भाग जहाँ पर परमात्मा को जानने वाले और उसमे विश्वास करने वालों की संख्या सर्वाधिक है | जहाँ परमात्मा ने मनुष्य के रूप में अवतरित होकर लीलाएं की है | इस भूमि पर देवी स्वरूपा नदियाँ कलकल का नाद करती हैं |संसार के किसी भी भाग में छःऋतुएं नहीं होती, सिवाय भारत के, जिनसे प्राप्त होने वाले आनंद का वर्णन नहीं किया जा सकता | हरीतिमा से युक्त वन यहाँ की शोभा द्विगुणित कर देते हैं |हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं और उनकी गुफाओं में बैठे साधनारत महात्मा लोग यहाँ के आध्यात्मिक सौन्दर्य का वर्णन करते हैं |अतः यहाँ की धरती पर जन्म लेना सौभाग्य से कम कैसे हो सकता है ?भारत का अर्थ है-भा + रत | भा अर्थात प्रकाश, ज्ञान का प्रकाश और रत अर्थात प्राप्त करने को उद्द्यत | भारत, जहा प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान रूप प्रकाश को प्राप्त करने को उद्द्यत रहता है |
                   तीसरा हमारा सौभाग्य यह है कि इस पवन भूमि पर हम एक सनातन धर्मावलम्बी के परिवार में पैदा हुए हैं | सनातन धर्म अर्थात वह धर्म जो आदि काल  से चला आ रहा है , चल रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा | सनातन परमात्मा है और सनातन ही यह धर्म है |वह धर्म, जो मानव को मानव का सहयोगी बनाता है, हिंसा से कोसों दूर है , सत्य के मार्ग पर चलने की सदैव ही प्रेरणा देता है और सबसे बढकर तो यह बात है कि सनातन धर्म प्रत्येक जीव , जीव ही नहीं सर्वस्व में परमात्मा होने की बात कहता है | ऐसा धर्म ही सनातन हो सकता है | हमें गर्व होना चाहिए कि हम ऐसे धर्म में विश्वास करने वाले हैं और हम ऐसे उच्च कोटि के धर्म के मार्ग पर चलने वाले हैं |हमारे ऋषि मुनियों ने बिना किसी लोभ-लालच के अपनी सोच को, अपने दर्शन को लेखनी प्रदान की है, उन्हें सनातन शास्त्रों का रूप दिया है  |ये सनातन शास्त्र हमारी अमूल्य निधि है | उनका अध्ययन ही हमें इस सनातन धर्म के मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देते है |उनका अध्ययन हमें अँधेरे से प्रकाश की ओर ले जाने का मार्ग दिखता है |
क्रमशः
                                   || हरिः शरणम् ||
                

Sunday, October 4, 2015

पुनर्जन्म और विज्ञान

मेरे प्रिय पाठकों,
            आपको यह जानकर अति प्रसन्नता होगी कि मेरा स्वप्न , मेरी पुस्तक के  प्रकाशन के साथ पूरा हो चूका है | 'पुनर्जन्म और विज्ञान' का लोकार्पण मेरे ही शहर सुजानगढ़ में दिनांक 2/10/2015 को स्वामी संवत् सोमगिरी  जी महाराज, शिवबाड़ी,बीकानेर के  कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ | मुख्य अतिथि श्री मान राजकुमार रिणवा , वन एवं पर्यावरण मंत्री , राजस्थान सरकार थे | श्री कानपुरी महाराज की अध्यक्षता में  और स्वामी श्री हरिशरण जी महाराज के विशेष आतिथ्य में यह गरिमापूर्ण समारोह सुजानगढ़ और आसपास के क्षेत्रों के गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति से और अधिक आकर्षक बन गया |
                            जिस किसी भी महानुभाव को इस पुस्तक को प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो तो निःसंकोच मुझसे संपर्क कर सकते हैं | मेरे समपर्क सूत्र हैं-
                                  फ़ोन -+919414400276
                                 मेल - pckachhwal@gmail.com
                       कार्यक्रम को सानंद संपन्न करने के लिए मैं इन दिनों व्यस्त रहा था इस कारण से ब्लॉग नहीं लिख पाया | शीघ्र ही नए विषय के  साथ आपके समक्ष आऊंगा | पुस्तक लोकार्पण समारोह को सफल बनने के लिए सभी का आभार |
                            हरिः शरणम् |

Monday, September 28, 2015

मानव -श्रेणी |-40

परमात्मा-
               इस प्रकार हमने जाना कि परमात्मा और आत्मा ,दोनों में कहीं भी कोई अंतर नहीं है । इन दोनों को  मैं दो बता रहा हूँ,वह भी एक भ्रम ही है । वास्तव में ये दोनों दो न होकर एक ही है । उस परम पिता परमात्मा का ही विस्तार है यह सब  कुछ,जो भी हमें दृष्टि गोचर हो रहा है । यहाँ पर द्रष्टा और दृश्य अलग अलग नहीं है । जब द्रष्टा दृश्य को अपने से अलग मान लेता है तभी परमात्मा और जीवात्मा अलग अलग नज़र आने लगते हैं । वास्तव में दृश्य केवल द्रष्टा के मन का विस्तार है । यह मन ही दृश्य को द्रष्टा से अलग प्रतीत कराता है । यह एक भ्रम की स्थिति पैदा कर देता है । इसी भ्रम का नाम माया है । ज्योंही यह भ्रम आत्म-ज्ञान होने से समाप्त हो जाता है ,माया तिरोहित हो जाती है । माया के हटते ही द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं , जीवात्मा अपने आपको परमात्मा होना ही स्वीकार कर लेती है । यही परमात्मा की वास्तविक स्थिति है । परमात्मा के विस्तार को परमात्मा से अलग नहीं मानें जिस प्रकार हम लहरों को समुद्र से अलग नहीं मानते हैं ।
                  ऐसा और यह सब लिखने में आसान है,पढ़ने में भी आसान है और जितना यह आसान नज़र आता है वैसा आत्म-सात करना आसान नहीं है । कहने को तो हम कह देते है कि आत्मा सो ही परमात्मा । परन्तु सांसारिक कार्यों में वही परमात्मा हमें अलग नज़र आने  लगता है  । हम अपने आपको कर्ता समझने लगते है और यह भूल जाते हैं कि हम मात्र समुद्र की लहर ही है उससे अतिरिक्त कुछ भी नहीं । सत्य को स्वीकार कर लेना आसान नहीं होता है और जब हम सत्य को स्वीकार कर लेते हैं तब हमें लहरें नज़र आना स्वतः ही बंद हो जाती है ,केवल समुद्र ही रह जाता है । घटाकाश से हटकर महाकाश हो जाते हैं हम । यही परमात्मा का स्वरुप है । इसी श्रेणी में पहुंचे मनुष्य को प्रारम्भ में हम परमात्म स्वरुप और अंततः परमात्मा  होना ही स्वीकार कर लेते हैं ।परमात्मा होने का अर्थ है सबओर और सबमे परमात्मा को देखना ।
                            इस प्रकार 40 किश्तों में मैंने प्रयास किया है-मानव की पाँचों श्रेणियों के बारे में अल्प रूप से बताने का । मैं जानता हूँ कि एक मुमुक्षु के लिए इतना अपर्याप्त है । एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में जाने की प्रगति करते हुए परमात्मा की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए आवश्यक है सही प्रकार से परमात्मा के प्रति समर्पण की । परमात्मा आपके प्रयास को सफल करे,यही कामना है ।
                                                      ॥ हरिः शरणम् ॥   

Wednesday, September 23, 2015

मानव-श्रेणी |-39

परमात्मा-
                 गुरु और शास्त्र आपको मार्ग दिखा सकते हैं परन्तु चलना आपको स्वयं को ही होगा ।स्वयं के चले बिना परमात्मा तक पहुंचा नहीं जा सकता । शास्त्र और गुरु को भी एक  दिन छोड़ना पड़ेगा । वहां केवल और केवल अकेले ही जाया जा सकता है । इसी बात को याद रखना जरूरी है । आजकल के दौर में जो भक्ति-रस के नाम से सामूहिक कीर्तन आदि हो रहे हैं,वे केवल भक्ति के लिए अनुकूल माहौल ही तैयार कर सकते हैं ,परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकते । वहां तक भीड़ क्या दो भी साथ नहीं जा सकते । दो क्या,एक  भी नहीं जा सकता । एक को  भी अपने आप को समाप्त करना पड़ता है । जब आप अपने आपको भी गवां देते हैं तब जो शेष बचता  है,वही परमात्मा है । कहने का अर्थ है कि अपने आपको खोकर  ही परमात्मा को  पाया जा सकता है ।
                 योगवाशिष्ठ में इस बारे में बहुत ही आसान तरीके से समझाया गया है । मनुष्य को घटाकाश कहा गया है । परमात्मा को महाकाश कहा गया है । जैसे कुम्हार घड़े का निर्माण करता है तो उस मिट्टी के रीते घड़े में  भी आकाश  रहता है और उसके बाहर भी आकाश जिसे महाकाश कहा जाता है । जब घड़ा टूट जाता है तब घटाकाश,महाकाश में मिल जाता है । वास्तव में देखा जाये तो घटाकाश और महाकाश के आकाश भिन्न भिन्न नहीं है । जब तक घड़े यानि शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं तो हम स्वयं को शरीर होना मान लेते  है । जब इस घड़े को हम आपना मानना बंद कर देंगे तब इस घड़े रुपी शरीर की दीवार शरीर के रहते हुए ही समाप्त हो जाती है और घटाकाश महाकाश के साथ एकाकार हो जाता है । यही सिद्ध का परमात्मा हो जाना है,आत्मा का परमात्मा हो जाना है और यही मोक्ष यानि मुक्ति है । अगर हम गंभीरता से देखें तो घटाकाश और महाकाश के आकाश में कोई अंतर नहीं है, दोनों एक ही है । यह अंतर तो घड़े के प्रति आसक्ति का यानि अपने मन और इन्द्रियों के कारण पैदा किया हुआ है ।
                समुद्र से लहर अलग नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य की आत्मा परमात्मा से अलग नहीं है । यह बात एकदम से समझ में आते ही लहर समाप्त हो जाती है और वह समुद्र ही हो जाती है । शरीर को परमात्मा की ही देन  समझे,जैसे लहर समुद्र की देन है ।समुद्र नहीं होगा तो लहरें भी नहीं होगी और इसी तरह परमात्मा नहीं हैं तो फिर शरीर भी कहाँ से होंगे । जैसे हम समुद्र की लहरों का आनंद  लेते हैं उसी प्रकार मनुष्य के शरीर का आनंद ले । परन्तु लहरों के आनंद में समुद्र को न भूलें और शरीर के आनंद में परमात्मा को ।
क्रमशः
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥     

Saturday, September 19, 2015

मानव-श्रेणी |-38

परमात्मा-
                कबीर ने कह तो दिया कि  मुक्ति बिना गुरु के हो नहीं सकती परन्तु क्या गुरु आपके पास चल कर आएगा ? नहीं,गुरु  को ढूँढना पड़ता है । और गुरु को ढूंढना प्रारम्भ हम तभी करते हैं जब हमारे मन मे मुक्ति के भाव जगे,परमात्मा होने की आकांक्षा पैदा हो । यह आकांक्षा तभी पैदा होगी जब परमात्मा की आप पर कृपा होगी । संसार में कितने लोग आप देखते हो,जिनके मन में ऐसी इच्छा पैदा होती है ?क्यों नहीं होती ?कारण स्पष्ट है । बिना ईश्वरीय कृपा के कुछ भी होना संभव नहीं है । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं -
                 "सोइ  जानइ जेहि देहु  जनाई ।जानत तुम्हहि  तुम्हइ  होइ जाई  ॥ मानस 2 /127 /3 ॥
           परमात्मा को वही व्यक्ति जान सकता है, जिसको स्वयं परमात्मा जनाना चाहते हैं  । परमात्मा को जानते ही वह व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा हो  जाता है ।
         एक साधारण मनुष्य का परमात्मा हो जाना मात्र इतना सा ही खेल है । ईश्वरीय कृपा से ही व्यक्ति परमात्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसे यह ज्ञान  मिलता है-शास्त्रों के अध्ययन से और संतों के संग से । इन दोनों के बारे में हम पूर्व में साधक श्रेणी के अन्तर्गत चर्चा कर चुके हैं ।शेष दो साधन जो बताये गए हैं,वे हैं शम और  संतोष । इन दोनों को अपना कर ही मनुष्य आगे बढ़ सकता है और इन दोनों को अपने जीवन में उतारने में गुरु और शास्त्रों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण होती है । अतः व्यक्ति के जीवन में गुरु की महत्ता स्वीकार की गयी है । गुरु आपको वह रास्ता दिखाता  है जिस पर चलकर वह सिद्ध होकर परमात्मा तक पहुंचा है । आदर्श गुरु की यही पहचान होती है कि वह आपकी अंगुली पकड़कर थोड़ी दूर आपको परमात्मा के रास्ते पर चला दे और जब गुरु को विश्वास हो जाये कि अब आप आगे का रास्ता अकेले ही तय कर लेने में सक्षम हो गए है तो वह अपनी अंगुली को आपसे  छुड़ा ले । ध्यान रखें,जो गुरु आपको जीवन भर अंगुली पकडवाये रखवाना चाहता है,वह केवल अपने आप तक ही आपको सीमित रखना चाहता है ,  परमात्मा तक नहीं पहुँचने देना चाहता है । ऐसा गुरु आदर्श गुरु नहीं हो सकता ।
क्रमशः
                                       ॥  हरिः शरणम्  ॥ 

Monday, September 14, 2015

मानव-श्रेणी |-37

परमात्मा-
                जिस प्रकार मरुस्थल में भीषण गर्मी में मृग-मरीचिका दिखाई देती है और उसमे कहीं पर भी पानी का नामोनिशान नहीं होता,उसी प्रकार हमें आत्मा का होना दिखाई न देकर शरीर ही सब कुछ दिखाई देता है । हम शरीर नहीं है बल्कि आत्मा हैं । शरीर संसार बनाता है अतः यह संसार हमारे शरीर की तरह ही क्षण भंगुर है ।  हमें यह शरीर ही अपना क्यों दिखाई देता है,आत्मा का होना क्यों नहीं ? इसका कारण है हमारा मन यानि चित्त । हमारा मन आत्मा के साथ रहकर, दोनों एक होकर जीवात्मा  बन जाते हैं । यह जीवात्मा संसार को ही वास्तविकता समझने लगती है जिस कारण से आत्मा अपने स्वरुप को पहचान नहीं पाती । यह ठीक वैसे ही है,जैसे मरीचिका में मृग को जल दिखाई देता है जबकि वास्तविकता  में वहां जल नहीं होता है । मृग को तो यह बात समझ में नहीं आती परन्तु हम तो मनुष्य हैं ,हमें तो यह बात समझ में आनी ही चाहिए कि मरीचिका मात्र प्रकृति की माया है,जल और उसमे पड़ने वाली पेड़ों की छाया वास्तविक नहीं है । फिर भी  हम अपने मन के बनाये संसार को जो कि वास्तव में एक मरीचिका ही है, वास्तविकता समझ बैठे हैं । ऐसे में हमारे  मनुष्य होने में और उस मृग के जानवर होने में अंतर ही क्या रह जाता है ?
                 अँधेरे में रस्सी को हम सांप समझने की  प्रायः भूल कर बैठते हैं परन्तु जब  हम प्रकाश करके देखते हैं  तब पता चल जाता  है कि जिसे हम सांप समझ रहे थे,वास्तव में वह  तो एक रस्सी है । जब तक हमारे भीतर अन्धकार समाया हुआ है ,तब तक यह संसार और शरीर हमें वास्तविक नज़र आते हैं परन्तु जब हम प्रकाशित हो जाते हैं तब हमें पता चलता है कि यह संसार और शरीर तो माया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । इस प्रकार के प्रकाशित होने को महात्मा लोग "आत्म-ज्ञान" होना कहते हैं । आत्म-ज्ञान अर्थात स्वयं के आत्मा होने का ज्ञान ।
            आत्म-ज्ञान कैसे हो ?कबीर इसी आत्म-ज्ञान के बारे में कहते हैं-
                    "आतम ज्ञान बिना सब सूना,क्या मथुरा क्या कासी ।
                      कहत कबीर सुनो भाई साधो,गुरु बिना कटे न चौरासी ॥ "
         कबीर कहते हैं  कि बिना गुरु के आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के व्यक्ति बार बार हो रहे 84 लाख योनियों में  जन्मों से मुक्ति नहीं मिल सकती ।
क्रमशः
                             ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, September 7, 2015

मानव-श्रेणी |-36

परमात्मा-
                  परमात्मा , देखने में एक चार अक्षरों से युक्त मात्र छोटा सा शब्द  परन्तु इसकी विशालता, अनुमान लगाने से भी बहुत परे है । परमात्मा अपरिमेय है । परमात्मा दो शब्दों से मिलकर बना एक शब्द है ,परम और आत्मा । परम मतलब उसके समकक्ष कोई नहीं । परमात्मा यानि समस्त आत्माओं की आत्मा ,परमपिता यानि समस्त पिताओं का भी पिता । परमात्मा और आत्मा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है । यह बात जिस दिन और जो व्यक्ति जान और समझ लेता है, उसी दिन वह वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । जीवन में जो ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है उसमे यह ज्ञान हो जाना ही सर्वोच्च ज्ञान है । इसी को तात्विक ज्ञान कहा गया है । केवल यह पढ़ लेना और याद कर लेना ही पर्याप्त नहीं है कि आत्मा ही परमात्मा का अंश है और संसार में सभी परमात्मा के ही विविध रूप है । यह बात कह भीतर तक उतार लेनी आवश्यक है और उसी अनुरूप अपना आचरण भी करना आवश्यक है । 
                    वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है-
                                             पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते |
                                             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
                        अर्थात्,वह भी पूर्ण है|यह भी पूर्ण है|पूर्ण में पूर्ण जोड़ने पर जो योग बनता है वह भी पूर्ण है|अगर पूर्ण में से पूर्ण दें, तो निकालने पर निकाला गया भी पूर्ण है और जो कुछ भी शेष बचता है ,वह भी पूर्ण है|
                 उपनिषद् के इस श्लोक से स्पष्ट है कि परमात्मा के कितने भी अंश कर लिए जाये,तो वह अंश भी पूर्ण होगा और परमात्मा की पूर्णता में भी कोई कमी नहीं होगी, चाहे कितनी ही पूर्ण आत्माएं परमात्मा में विलीन हो जाये फिर भी परमात्मा पूर्ण ही रहेगा । अतः सर्वप्रथम  हमें यह जान लेना आवश्यक है कि परमात्मा और आत्मा में  कहीं से भी किसी प्रकार का मूलभूत अंतर नहीं है । जो अंतर हमें दिखाई देता है वह केवल मरुस्थल की मरीचिका मात्र ही है ।
क्रमशः
                            ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, August 31, 2015

मानव-श्रेणी |-35

सिद्ध-
                 सिद्ध पुरुष जब जीवन मुक्त हो जाता है तब उसके लिये इस भौतिक शरीर का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है । विदेह की अवस्था को उपलब्ध हुए ऐसे व्यक्ति के मन में सभी वासनाएं आर कामनाएं निकल चुकी होती है । उसका मन इतना निर्मल हो जाता है कि उसको मन कहना ही अतिश्योक्ति होगी । मन तो उस अवस्था को कहते हैं जब किसी प्रकार  की कामना शेष रही हो । जब कोई कामना शेष रहती ही नहीं है तो मन की उपस्थिति हो ही नहीं सकती । बिना मन के इस देह की स्थिति भी बिना देह की सी हो जाती है । इसी अवस्था को विदेह होना कहते हैं ।
                  विदेह  की  स्थिति को प्राप्त करने के उपरांत भी भौतिक देह की अवस्था तो बनी ही रहती है । जब पूर्वजन्म के कर्मों का फल यह  देह पूर्ण रूप से भोग लेगी  सिद्ध पुरुष की यह भौतिक देह भी  समाप्त हो जाएगी । इस भौतिक देह के छूटते  ही सिद्ध पुरुष परमात्म अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । अतः सिद्ध अवस्था और परमात्म अवस्था में अंतर मात्र इस भौतिक देह की उपस्थिति का ही है । मन की समाप्ति हो जाना ही मुक्ति है । इस जीवितावस्था में मन की समाप्ति होने को कबीर ने मन का निर्मल होना कहा है । कबीर कहते हैं कि-
                      मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
                      पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ॥
            इस दोहे में कबीर कहते हैं कि जब मन से सभी कामनाएं,वासनाएं आदि विकार तिरोहित हो जाते है तब मन गंगा जल की तरह एक दम निर्मल हो जाता है । ऐसी अवस्था को उपलब्ध हुए व्यक्ति को परमात्मा को कही ढूंढने नहीं जाना होता है बल्कि स्वयं परमात्मा ही उसे ढूंढ लेंगे । इसका भावार्थ यही है कि मन के साफ होते ही व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । सिद्ध और परमात्मा में अंतर मात्र इस शरीर का ही तो है ।
               हमने आज तक मनुष्य की पांच अवस्थाओं में से पामर,विषयी,साधक और सिद्ध इन चार प्रकार के मनुष्यों की संक्षिप्त रूप से चर्चा की । अब अंतिम अवस्था या श्रेणी जो परमात्मा हो जाने की है उसके लिए कल से चर्चा करेंगे । हालाँकि परमात्म अवस्था की चर्चा की अधिक आवश्यकता नहीं है क्योंकि सिद्ध पुरुष हो जाना ही परमात्मा हो जाना है ।फिर भी दोनों की अवस्थाओं में कुछ मूलभूत अंतर की चर्चा करना आवश्यक समझता हूँ । 
क्रमशः
                                         ॥ हरिः शरणम् ॥
पुनश्चः - बहुत ही हर्ष के साथ सूचित कर रहा हूँ कि  मेरी चिर प्रतीक्षित पुस्तक "पुनर्जन्म और विज्ञान " आगामी जन्माष्टमी पर अर्थात 5 /09 /2015 को हरिःशरणम् आश्रम,हरिद्वार द्वारा प्रकाशित की जा रही है । मैं आप सभी को व्यक्तिगत रूप से पहुँचाने की व्यवस्था कर रहा हूँ  फिर भी जो भी पाठक इस  पुस्तक को प्राप्त करना चाहता है मुझे मेरे e-mail पर अपना पता  भेजें । मैं उन्हें डाक द्वारा प्रेषित करने की व्यवस्था कर रहा हूँ  । मेरा e-mail है- pckachhwal@gmail.com  

Wednesday, August 26, 2015

मानव-श्रेणी |-34

सिद्ध-
                जब सिद्ध अवस्था को मनुष्य उपलब्ध हो जाता है तब उसके परमात्म अवस्था को उपलब्ध होने में कुछ ही क़दमों की दूरी रह जाती है । गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
                              बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
                              वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ गीता 7/19॥
          अर्थात् बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष , सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझ को भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।
                          श्री कृष्ण ने यहाँ आकर एक दम से स्पष्ट कर दिया है कि सिद्ध महात्मा पुरुष इस संसार में बहुत ही दुर्लभ है क्योंकि वही एक मात्र ऐसा पुरुष है जो यह जानता कि यहाँ और वहां, सभी ओर जहाँ तक दृष्टि जाती हो या दृष्टि की पहुँच नहीं भी हो,सब कुछ वासुदेव ही है,वह परमब्रह्म ही है । वह सिद्ध उस परमब्रह्म को ही सदैव भजता है । कितना सत्य कहा है-श्री कृष्ण ने ? पहले तो यह स्वीकार करना ही बड़ा दुष्कर है कि सब कुछ वही  है और उसके बाद केवल उसे ही भजना तो बहुत ही मुश्किल है । दुष्कर इस लिए कि जब वही सब कुछ है तो फिर आप और मैं क्या हैं ? और जब यह पता चलता है कि आप और मैं भी वही हैं तो यह मुश्किल आ पड़ती है कि फिर हम भजे किसको ?जो व्यक्ति इस दुविधा से बाहर निकल जाता है,वही महात्मा कहलाता है,वही सिद्ध पुरुष हो जाता है । फिर उसको कोई परेशानी नहीं है कि वह किसको माने, किसको भजे ?उसके सामने सब कुछ वही और उसका ही होता है । जब सब कुछ वही और उसका तथा उसके ही कारण है तो फिर किसी अन्य को भजने का प्रश्न ही कहाँ से पैदा होगा ? यह सिद्ध पुरुष की सर्वोच्च अवस्था होती है । इस अवस्था को उपलब्ध हुआ व्यक्ति आवागमन से मुक्त हो जाता है ,उसका फिर जन्म नहीं होता । ऐसे सिद्ध पुरुष जीवन मुक्त पुरुष कहलाते है अर्थात इनकी मुक्ति अपने जीते जी इसी जीवन में हो जाती है ।
क्रमशः
                                              ॥ हरिः शरणम् ॥  

Thursday, August 20, 2015

मानव-श्रेणी |-33

सिद्ध-
                 गोरख ने ज्ञान को मक्खन और कहानियां-किस्सों को छाछ बताया है । मक्खन केवल सिद्ध पुरुष ही निकाल सकते हैं,अन्य तो छाछ को ही मक्खन समझकर रसास्वादन कर रहे हैं । परन्तु ध्यान रहे, छाछ से कुछ भी शरीर को प्राप्त नहीं होता है,शरीर की सेहत के लिए तो मक्खन ही फायदेमंद होता है । इसी प्रकार आध्यात्मिकता में कहानियां केवल मनोरंजन कर सकती है परन्तु इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए तो ज्ञान आवश्यक है । अतः शास्त्रों और संत समागम से आपको छाछ छोड़ कर मक्खन को पकड़ना होगा । तभी आप अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं ।
                   गोरख की इसी बात को कबीर और आगे बढ़ाते हुए कहते हैं -
                                       साधू  ऐसा  चाहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
                                       सार सार को गहि रहे,थोथा देई उडाय ॥
                 सत्संग और शास्त्र अध्ययन से सिद्ध पुरुष केवल सार को ही ग्रहण करता है,अन्य बातों को वह आत्मसात नहीं करता । यही सिद्ध मनुष्य की विशेषता होती है । अतः साधक और सिद्ध में मूलभूत अंतर  यही दृष्टिगोचर होता है । जब साधक तत्व की बात को पहचानने लगता है और अन्य बातों को एक तरफ कर देता है,तब वह एक सिद्ध की अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । साधक से सिद्ध होना इसी लिए कठिन है क्योंकि तत्व की बातों में वह रस उसे महसूस नहीं होता जो किस्से कहानियों को सुनकर होता है । धार्मिक शास्त्रों के प्रति रुचि पैदा करने के लिए उनमें किस्से कहानियां वर्णित की गयी है और इनके साथ ज्ञान को इस प्रकार समाहित किया गया है कि एक सिद्ध पुरुष ही इस सत्य बात को  समझ सकता है । अतः साधक को इन शास्त्रों का अध्ययन करते समय अपनी सोच इस प्रकार रखनी चाहिए कि वह इन कहानियों के पीछे छुपे हुए ज्ञान को मक्खन की तरह निकाल सके । तभी इन शास्त्रों की सार्थकता है । ऐसा कर पाना केवल एक सिद्ध पुरुष के लिए ही संभव है  अन्यथा किस्से कहानियां तो चलचित्रों में भी बहुत देखने को मिल जाएगी, फिर ज्ञान के लिए शास्त्रों की  आवश्यकता ही क्या रह जाएगी ? अतः एक दम स्पष्ट सन्देश है यह कि शास्त्र ज्ञान के लिए बने हैं केवल मात्र कथा कथन और श्रवण के लिए नहीं ।
क्रमशः
                                      ॥ हरिः शरणम् ॥  

Sunday, August 16, 2015

मानव-श्रेणी |32

सिद्ध-
               जब व्यक्ति शम,विचार ,संतोष और संत-संगम को पूर्णतया धारण कर लेता है तब वह साधक से सिद्ध की अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । सिद्ध पुरुष के लिए सब कुछ परमात्मा ही होता है,परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं । वह इस भौतिक संसार में रहते  हुए भी परमात्मा में तल्लीन रहता है । सिद्ध व्यक्ति शास्त्र-अध्ययन में भी अपने काम के विषय को ही आत्म साथ करता है ,अन्य कुछ भी नहीं है । नाथ सम्प्रदाय के संस्थापक गोरख का एक दोहा मुझे याद आ रहा है-
           गगन मण्डल में गाय बियाई,कागद दही जमाया ।
          छाछ छाछ तो पंडिता पिवी,सिद्धां माखण खाया ॥
                        गोरख कहते हैं कि इस अन्तरिक्ष में परमपिता द्वारा ब्रह्माण्ड निर्माण का संकल्प हुआ जिसके कारण यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है (गाय बियाई)  । इस घटना के बाद गाय से  मिले दूध (ब्रह्माण्ड का ज्ञान) को  ऋषियों ने शास्त्रों में अपने शब्दों में वर्णित किया है (कागद दही जमाया ) । जब इन शास्त्रों का अध्ययन किया गया (दही को मथा गया) तो इसमे से कई प्रकार की कहानियां किस्से (छाछ-छाछ) पढ़ने में  आये ,उन सब को कथित प्रवचन कर्ता पंडितों ने पकड़ लिए (छाछ छाछ तो पंडिता पीवी) परन्तु जो सिद्ध है, उन्होंने केवल परमात्मा से  सम्बंधित ज्ञान को  ही प्राप्त किया  (सिद्धां  माखन खाया )।
                 यही सिद्ध पुरुष की विशेषता होती है । शास्त्रों में महत्वपूर्ण है-ज्ञान । ज्ञान को व्यक्ति सरलता और सुगमता से मन लगाकर पढ़ समझकर आत्मसात कर ले, इसके लिए हमारे पूर्वजों ने उनको कथा कहानियों के रूप में लिपिबद्ध किया है । अगर हम केवल कहानी को याद रखेंगे और उसमें निहित भावार्थ पर ध्यान नहीं देंगे तो कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाएंगे क्योंकि महत्वपूर्ण कहानी नहीं बल्कि उसमे समाहित ज्ञान है । कहानी तो दही के मंथन उपरांत निकली केवल मात्र छाछ है ,मक्खन तो उस कहानी  में समाहित ज्ञान है जो हमें परमात्मा की ओर ले जाता है । आज के कथित धार्मिक प्रवचनकर्ता केवल कथा कहानियां सुनाकर छाछ ही बाँट रहे हैं और दुर्भाग्य तो यह है कि वे इस छाछ को मक्खन बताकर बाँट रहे हैं ।
क्रमशः
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥  

Tuesday, August 11, 2015

मानव-श्रेणी |-31

सिद्ध-
         मनुष्यों की चौथी और अत्यंत दुर्लभ श्रेणी के बारे में चर्चा का प्रारम्भ करते हैं । इस श्रेणी के मनुष्य देखने में अतिदुर्लभ हैं । प्रायः मनुष्य साधक श्रेणी की भी प्रारम्भिक अवस्था तक ही पहुंचकर वहीँ पर अटक कर रह जाता है अथवा पुनः विषयी श्रेणी  में लौट जाता है । यही कारण है कि सिद्ध श्रेणी के मनुष्य लुप्तप्रायः हो चुके हैं । साधक का साधना पथ इतना कठिन होता है कि वह किसी भी एक रास्ते पर चलने में भी अपने आप को दुविधा में पाता हैं । सबसे बड़ी दुविधा पैदा होती है,शम और संतोष को धारण करने में । जबकि शम और संतोष की सिद्ध होने में सबसे बड़ी भूमिका होती है । अगर कोई मनुष्य शम और संतोष को धारण नहीं कर सकता तो इसके पीछे महत्त्व है उसके विचारों का , परमात्म विषयक विचारों का । विचार भी बहुधा सांसारिक ही चलते रहते हैं ,परमात्म विषयक विचार तो कभी  कभी विपरीत परिस्थितियों में  ही बनते हैं । संत समागम तो फिर भी हो सकता है परन्तु आज के इस भौतिक युग में संत ,वास्तविकता में संत न होकर प्रायः विषयी ही  होते हैं । संत के आवरण में विषयी मनुष्य ही  छद्म रूप से घूमते रहते हैं,जिन्हें देखकर विषयी पुरुष धोखे से उन्हें सिद्ध पुरुष समझ लेता है । ऐसे कथित संत न तो स्वयं का भला कर सकते हैं और न ही उनका सानिध्य प्राप्त करने वाले अपना भला। यही कारण है कि आजकल साधक भी कम रह गए हैं और सिद्ध तो विलुप्त से ही हो गए हैं ।
                             साधक जब चारों क्षेत्रों-शम,विचार,संतोष और संत-संगम में निरंतर प्रगति  करता है,तब एक दिन वह सिद्ध हो जाता है । उसकी यह सिद्धता  स्वयं के पुरुषार्थ से ही संभव होती है । इस उपलब्धि को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं है । प्रतीकात्मक रूप से किये जाने वाले कर्म कांड,पूजा-पाठ और तीर्थांटन का सिद्ध पुरुष बनने में किसी भी प्रकार का योगदान नहीं होता है । ऐसे कार्य केवल  आपको एक साधक बनने के लिए उत्प्रेरक का कार्य कर सकते हैं । अतः ऐसे कर्मकांडों में उलझना मनुष्य को  साधना पथ पर आगे बढ़ने नहीं देगा और मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि ये सब साधना पथ में बाधा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । साधना पथ पर अग्रसर होने के लिए ऐसे सभी कर्मकांडों को कही पीछे छोड़ देना पड़ता है ।
क्रमशः
                                  ॥ हरिः शरणम् ॥   

Friday, August 7, 2015

मानव-श्रेणी |-30

साधक-
                        शास्त्रों के अध्ययन में बढती हुई रुचि और परमात्मा विषयक विचार मनुष्य को ज्ञानार्जन के लिए अनुकूल वातावरण तैयार कर देते हैं  |यह अर्जित किया जाने वाला ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है |शेष जो भी ज्ञान हम संसार के लिए प्राप्त करते हैं वह सब अविद्या ही है | असली विद्या तो परमात्मा का ज्ञान हो जाना ही है |केवल शास्त्र से ही परमात्मिक ज्ञान संभव नहीं है अतः साधना में चौथा प्रकार साधू संगम को  बताया गया है |
             जब व्यक्ति साधुओं के साथ बैठेगा  तो यह निश्चित है कि वहां चर्चा संसार की तो होगी नहीं |संत संगम में चर्चा केवल  परमात्मा के सम्बन्ध में ही होती है | संत संगम में व्यक्ति शास्त्रों के अध्ययन में उठी शंकाओं का समाधान कर सकता है |इसीलिए साधना के लिए संत समागम या गुरु मिलन आवश्यक बताया गया है |गुरु और संत व साधू एक ही श्रेणी के होते हैं |ये वही व्यक्ति होते हैं जो आज मनुष्यों की श्रेणी 'सिद्ध' को प्राप्त कर चुके हैं  |इनका साधना अनुभव हमारा मार्गदर्शन करता है जिससे साधना पथ से भटक जाने की सम्भावना समाप्त हो जाती है |एक अनुभव प्राप्त व्यक्ति ही रास्ते की सभी प्रकार की बाधाओं से हमे अवगत करा सकता है |संत मिलन के लिए  कहा गया है कि-
                                संत समागम,हरिकथा,जग में दुर्लभ दोय  |
                                सुत, दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय ||
        किसी भी  गृहस्थ के धर्मपत्नी,पुत्र और सांसारिक वैभव और धन  दौलत हो सकते हैं |ये सब पुण्यात्मा या पापी होने का आधार नहीं हो सकते क्योंकि ये सब तो किसी  के पास भी हो सकते हैं |यह सब होना कोई दुर्लभ नहीं है |इस संसार में अगर कुछ  दुर्लभ है तो दो ही बातें होना है |एक तो संतों से मिलन और दूसरा परमात्मा की चर्चा |
                   इस प्रकार हमने एक साधक होने की प्रक्रिया को संक्षेप में जाना | कल से हम सिद्ध के बारे में चर्चा प्रारम्भ करेंगे |
क्रमशः
                                           || हरिः शरणम् ||

Monday, August 3, 2015

मानव-श्रेणी |29

साधक-
              साधक जब शम,विचार(परमात्मा विषयक और शास्त्र अध्ययन),संतोष और संत संगम के बारे में दिन प्रतिदिन प्रगति करता जाता है तब वह शीघ्र ही साधनापथ पर अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होता है । जितने और भी साधन इस शरीर से किये जा सकते हैं,व्यक्ति को करने चाहिए । हालाँकि सभी तरीके उपरोक्त  वर्णित चार तरीकों में आकर ही समाप्त होते हैं । साधक को चाहिए कि उसे उपर्युक्त चार तरीकों में से  में जो भी अपनाने में सुगम लगे, उसी तरीके को अपने शरीर के माध्यम से साधने का प्रयास करना चाहिए । ज्योंही एक तरीके में आप पारंगत होंगे ,दूसरे तरीके को इस्तेमाल करना स्वतः ही प्रारम्भ कर देंगे ।
              परमात्मा को जानने और पाने का प्रयास ही  पुरुषार्थ  कहलाता है |वैसे प्रत्येक तरीके का विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है परन्तु आप स्वयं इस पथ पर अग्रसर है,  अतः ज्यादा विवेचना की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | हाँ, विचार के समबन्ध में थोडा गहराई में अवश्य जाना चाहिए | एक तरफ हम ध्यान केलिए विचारशून्यता की बात करते हैं और इधर साधक के लिए विचार आवश्यक बताया जा रहा है | ये दोनों बातें विरोधाभासी प्रतीत होती है |"योगवासिष्ठ"में वसिष्ठ मुनि विचार को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति में जब तक विचार प्रारम्भ नहीं होते तब तक उसका परमात्मा की तरफ उन्मुख होना संभव ही नहीं है |यूँ तो सांसारिक विषयी व्यक्ति दिनभर विचारों के जाल में उलझा हुआ  रहता है । वसिष्ठ ऐसे विचारों का अनुमोदन नहीं कर रहे हैं | वे कहते हैं कि विचार परमात्मा विषयक होने चाहिए |जब विचार अन्य सांसारिक विषयों से हटकर परमात्मा के बारे में मनुष्य के मस्तिष्क में उठने प्रारम्भ हो जाते हैं,तब उसे परमात्मा को और अधिक जानने की जिज्ञाषा मन में उठने लगती है | उसकी यह जिज्ञाषा प्रारम्भ में उसे शास्त्रों की तरफ ले जाती है |परमात्मा विषयक विचार जब शास्त्र पढ़ने को प्रेरित करते हैं तब एक बार तो मनुष्य को इनके अध्ययन में आनंद नहीं आता है परन्तु परमात्मा को जानने की उत्सुकता उसे शास्त्र अध्यन से विमुख नहीं कर पाएगी | सतत अध्ययन के कारण उसकी रुचि इन शास्त्रों में निरंतर बढती जाती है |
क्रमशः
                                          || हरिः शरणम् ||

Friday, July 31, 2015

मानव-श्रेणी |-28

साधक-
            प्रायः यही देखा गया है कि मनुष्य साधना में केवल नियमित कर्मकांडों को ही महत्त्व देता है, जबकि उससे आगे की  प्रगति के लिए परमात्मा विषयक विचार ही योगदान देते हैं । इन सबके लिए साधक को संत संगम और शास्त्र अध्ययन की आवश्यकता होती है । इन दोनों ही पुरुषार्थों के लिए साधक के पास  पर्याप्त समय और धैर्य का होना आवश्यक है ।आज के इस भौतिक युग में व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताएं इतनी अधिक बढ़ गयी है कि उसका सारा समय उदरपूर्ति और दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धनार्जन करने में ही नष्ट हो जाता है । ऐसे में भला वह संत वार्ता और शास्त्र अध्ययन के लिए कहाँ उपलब्ध होगा  ।
                          परन्तु ऐसा सोचना और कहना मात्र एक बहाना ही है ।जिस परमात्मा ने इस संसार में छोटे से छोटे जीव को भी पैदा किया है,उसके लिए उसने  प्रयाप्त भोजन का इंतजाम पैदा होने से पहले ही कर दिया है । हाँ,इसके लिए प्रत्येक जीव को प्रयास तो अपने स्तर पर करना ही होता है । इस प्रयास से ही वह भोजन पाने में सफल होता है । समय पर भोजन उपलब्ध हो जाने के बाद भी व्यक्ति के  पास इतना समय तो पर्याप्त बच ही सकता है,जिसमे वह परमात्मा के सम्बन्ध में विचार कर सकता है और शास्त्र-अध्ययन कर सकता है । रही बात संत-चर्चा की । जब परमात्मा के विषय में विचार अपनी जड़ें गहरी जमा लेते है और शास्त्र अध्ययन उसको  अधिक पोषण देते हैं तो फिर साधू-संगम के लिए भी समय मिल ही जाता है ।
                       अल्प समय  होने का रोना केवल वे ही  साधक रोते हैं,जिनके विषय अभी भी नियंत्रित नहीं किये जा सके हैं । जिस समय वह अपने सभी विषय-वासनाओं से मुक्त हो जायेगा तभी उसके जीवन में संतोष का पदार्पण होगा । जिस दिन व्यक्ति संतोष धारण कर लेता है,तब समय  का अभाव स्वतः ही  समाप्त  हो जाता है । तब उस साधक की साधना के लिए उसके पास चारों बातें उसके पक्ष में  होगी-शम,संतोष,परमात्मा विषयक विचारऔर साधू-संगम ।
क्रमशः
                                           ॥ हरिः शरणम् ॥   

Tuesday, July 28, 2015

मानव-श्रेणी |-27

साधक-
      जब साधक की इच्छा शक्ति प्रबल होती है और साधन के रूप में यह भौतिक शरीर सभी क्षेत्रों में  स्वस्थ रहता है तब साधना का फलीभूत होना सहज हो जाता है | अब प्रश्न यह उठता है कि साधना कैसे और किस प्रकार की जानी चाहिए ? साधना कोई एक ऐसा कर्म नहीं है जिसमे कर्मेन्द्रियों का उपयोग करना आवश्यक ही हो ?  हालाँकि हमारे शास्त्र, साधना को भी एक पुरुषार्थ  की श्रेणी रखते हैं परन्तु पुरुषार्थ के लिए मात्र कर्म करने ही आवश्यक नहीं है । पूजा पाठ .कर्मकांड और तीर्थ यात्रा आदि निम्नस्तर की साधना मानी जाती है |परमात्मा की ओर प्रवृति पैदा होने के बाद प्रारम्भिक अवस्था  में  यह सब किया जासकता है |परन्तु यह सब करके अटक जाना सफलता से वंचित कर सकता है | साधना के लिए इन  सबको पीछे  छोड़ते हुए, बाहर निकलना होगा । तभी इस पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है क्योंकि साधना के पथ पर सदैव ही आगे बढ़ते रहना  आवश्यक है |
              'योगवासिष्ठ' में मुनि वसिष्ठ ने भगवान रामको ऐसी साधना के बारे में बड़ा ही उत्तम ज्ञान दिया है |मुनि कहते हैं कि साधना हेतु चार बातें आवश्यक है-शम,विचार,संतोष और संतसमागम अथवा साधू संगम |वे कहते हैं कि इन चारों में से किसी एक का भी उपयोग अगर मनुष्य कर लेता है तो उसे शेष तीनों की उपलब्धि भी शीघ्र ही हो जाती है |शम कहतेहैं-शांत होने को , वासनाओं के  शमन को जिससे व्यक्ति  शांति को उपलब्ध होता है । |व्यक्ति के मन  में उठ रही वासनाओं को नियंत्रित करने का नाम  ही शमन है |इस प्रकार  वासना के शमन से  ही व्यक्ति को शांति उपलब्ध होती है |शांतचित्त व्यक्ति ही साधना पथ पर निर्बाध  गति से आगे बढ़ सकता  है |अतः साधक को चाहिए कि सबसे पहले वह अपनी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रखते हुए विषयों के प्रति आसक्ति न रखे और इच्छाओं और कामनाओं को बढ़ने न दे |बढ़ी हुई कामनाएं ही वासना है और इन कामनाओं को पूरा करने पर फिर से नई कामनाओं का पैदा हो जाना ही तृष्णा है |तृष्णा ,मतलब कभी भी न बुझने वाली प्यास | यहाँ पर साधक को सबसे बड़ी बाधा पार करनी होती है |यह सबसे बड़ी बाधा है क्योंकि इन इन्द्रियों को जीतना असंभव नहीं तो अति कठिन अवश्य ही है |जो साधक इस बाधा को पार नहीं कर सकता वह या तो पूर्व की भांति विषयी हो जाता है अथवा फिर साधना में केवल पूजा पाठ,कर्म कांड व माला फेरते रहने तक की स्थिति में ही रहते हुए स्थिर हो जाता है |
क्रमशः
                                    || हरिः शरणम् ||

Saturday, July 25, 2015

मानव-श्रेणी |-26

साधक-
          जब विषयों से पूर्णतया निवृति हो जाती है तब व्यक्ति परमात्मा को पाने का प्रयास प्रारम्भ करता है |इस प्रयास को साधना और प्रयासरत व्यक्ति को साधक कहा जाता है |इस साधना के लिए साधक का शरीर एक साधन होता है और परमात्मा साध्य |साधक,साधना और साधन जब समुचित तालमेल से कार्य करते हैं,तभी साध्य की उपलब्धि हो सकती है |सबसे आवश्यक है साधक की इच्छा शक्ति |अगर साधक के विचार अच्छे हों तो वह अपने साधना पथ से कभी  भी विमुख नहीं हो सकता |साधक की साधना में सहयोगी की भूमिका होती है साधन की | एक साधक की साधना को साध्य  तक पहुँचाने के लिए साधन का स्वस्थ और कर्मशील होना आवश्यक है |यह भौतिक शरीर ही साधक का वह महत्वपूर्ण साधन है जिससे साधना कर वह अपने साध्य को सिद्ध कर सकता है |अतः व्यक्ति का शरीर जब भौतिक,मानसिक,सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ होगा तभी उसे अपनी साधना को अच्छी तरह संचालित कर सकता है |
           आजकल के आध्यात्मिक प्रवचनकर्ता प्रायः इस स्थूल शरीर की निंदा करते रहते हैं और कहते रहते हैं कि  यह शरीर मिथ्या है |परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस शरीर के अभाव में क्या कोई व्यक्ति कभी मुक्ति को प्राप्त हुआ है,परमात्मा को उपलब्ध हुआ है ? मेरा दावा है कि बिना इस शरीर के आज तक कोई भी व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध नहीं हुआ है |अगर क्षण भर के लिए यह मान भी लें कि प्रवचन कर्ता परमात्मा को उपलब्ध हुआ एक व्यक्तित्व है तो ऐसे में मेरा उनसे भी यही प्रश्न है कि क्या उन्होंने अपने शरीर को मिथ्या समझते हुए उसे त्यागकर ही परमात्मा को प्राप्त किया है ? उनका उत्तर नहीं में होगा,मैं जानता हूँ |फिर ऐसे में इस भौतिक शरीर को मिथ्या बताते हुए इसकी आलोचना अथवा निंदा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है |निंदा की जानी चाहिए इस शरीर में स्थित इन्द्रियों के विषयों  के भोगों के प्रति आसक्ति की , न कि इस शरीर की |ज्योंहि विषयों के भोगों के प्रति व्यक्ति की आसक्ति समाप्त हो जाएगी,यह शरीर बिलकुल भी मिथ्या और आलोच्य नहीं रहेगा |
क्रमशः
                                        || हरिः शरणम् ||

Monday, July 20, 2015

मानव-श्रेणी |-25

साधक-
                 प्रवृति  होना - साधक होकर साधना पथ पर आगे बढ़ना है |ऐसे साधक के साधना पथ पर अनेकों विविध प्रकार की बाधाएं आती है जो उसको पथच्युत करने का प्रयास करती है |हमारे शास्त्रों में ही ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे | शिव की साधना भंग करने के लिए कामदेव को भेजा गया था |इसी प्रकार विश्वामित्र की साधना भंग करने के लिए मेनका को भेजा गया था |दोनों की ही साधना में इनके कारण व्यवधान पैदा हुआ था | जब ऐसी महान विभूतियाँ  साधनारत होते हुए भी विषय के प्रति आसक्त हो सकते हैं तो फिर साधारण  मनुष्य की  तो औकात ही क्या है ? इसीलिए गीता में भगवान ने कहा है कि हजारों में कोई एक मुझे पाने का प्रयास  करता है और ऐसा प्रयास करने वाले हजारों मनुष्यों में भी कोई एक मुझे तत्व से जान पाता है | हजारों साधकों में से ज्यादातर तो पुनः विषयों में लौट जाते हैं और नाम मात्र के जो साधना पथ में आगे बढ़कर साधक बन जाते है, उनमे से भी कोई एक विरला ही परमात्मा को जानकर सिद्ध होने की अवस्था को उपलब्ध होता है |
                          साधक के साधना पथ पर सभी विषय उसे  प्रभावित करने का प्रयास करते हैं |सब कुछ साधक की इच्छाशक्ति पर निर्भर  करता है कि वह इन सभी प्रलोभनों का उल्लंघन करते हुए साधना पथ पर निरंतर प्रगति करता रहे |अगर आप केवल साधक बने बैठे रहे और आगे प्रगति नहीं कर पाए तो परमात्मा को जानना असंभव होगा |प्रायः लोग साधक बनकर ही संतुष्ट हो जाते हैं ,केवल परमात्मा की ओर प्रवृति पैदा कर ही संतुष्ट हो जाते हैं और उससे आगे बढ़ना नहीं चाहते | ऐसे व्यक्ति विषयी होने से भी अधिक ख़राब है |विषयी व्यक्ति विषयों को तो प्राप्त करता रहता है, चाहे उसका परिणाम  कुछ भी हो, जबकि ऐसा स्थिर साधक अपने जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं कर  पाता है |उसके ऊपर "माया मिली न राम" वाली कहावत सटीक बैठती है |साधना में प्रगति करते रहना आवश्यक है ,एक नदी की तरह | गंगा पूजी ही इसीलिए जाती है क्योंकि वह सतत प्रगतिशील रहती है अन्यथा बिना प्रगति  के तो नदी का नाम तक समाप्त हो जाता है |अतः साधक को साधना पथ पर सदैव ही आगे बढ़ते रहना होगा तभी वह भविष्य में एक सिद्ध हो सकता है |
क्रमशः
                                        || हरिः शरणम् ||

Wednesday, July 15, 2015

मानव-श्रेणी |24

साधक-
              गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं-
                        मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
                       यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः || गीता 7/3 ||
               हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और ऐसे कई यत्न करने वाले योगियों में से भी कोई  एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से जानता है अर्थात कोई एक ही मुझे यथार्थ रूप से जानने वाली स्थिति को उपलब्ध होता है |
                  प्रथमतः तो इस संसार में विषयासक्त मनुष्य का ध्यान इस तरफ जाता ही नहीं है कि विषयों के अतिरिक्त प्राप्त करने के लिए यहाँ और कुछ भी है | इसी  लिए भगवान कहते हैं कि हजारों मनुष्यों में से किसी एक के ही ध्यान में यह बात आती है कि विषयों के अतिरिक्त भी यहाँ प्राप्त करने को कुछ अन्य भी उपलब्ध  है,जो विषयों से अधिक सुख और आनंद देने वाला है |परन्तु इस अन्य कुछ को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को साधना करनी पड़ती है |विषयों को प्राप्त करने के लिए किये गए प्रयास को कर्म कहते हैं और परमात्मा को प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले प्रयास को साधना कहते हैं |कर्म बंधन  पैदा करता है जबकि साधना व्यक्ति को मुक्त करती है | इसी प्रकार विषयों को प्राप्त करने के प्रयास करने वाले मनुष्य को विषयी तथा परमात्मा को पाने के लिए प्रयासरत मनुष्य को साधक कहा जाता है |
                     साधक होने के लिए इन्द्रियों के विषयों से निवृत होना आवश्यक है | बिना निवृति के प्रवृति नहीं हो सकती |एक साथ दो घोड़ों पर सवार होनेवाला प्रायः गिरता हुआ ही देखा गया है |संसार में रहते हुए भी विषयों से निवृत हुआ जा सकता है |परमात्मा की और प्रवृत होने के लिए संसार,घरबार और परिवार छोड़ना कदापि आवश्यक नहीं है |प्रवृति के लिए आवश्यक है कि आप संसार,घरबार और परिवार में आसक्ति त्याग दें |संसार से आसक्ति त्यागने का नाम  निवृति है और परमात्मा के प्रति आसक्ति का पैदा हो जाना प्रवृति है |अतः यह स्पष्ट है कि बिना निवृति के प्रवृति होना असंभव है |
क्रमशः
                                      || हरिः शरणम् ||
                                

Friday, July 10, 2015

मानव-श्रेणी |-23

साधक-
               जब किसी मनुष्य की विषयों के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है,तब वह परमात्मा को पाने को उत्सुक हो जाता है | हालाँकि इस आसक्ति का समाप्त हो जाना बहुत ही मुश्किल है |कई बार  विषयों के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाने का भ्रम मात्र होता है |  भौतिक रूप से विषय प्राप्त करने को व्यक्ति चाहे तो बलपूर्वक रोक सकता है परंतु मन ही मन वह उस विषय का रसास्वादन करता रहता है |इसको आसक्ति समाप्त होना नहीं कहा जा सकता |आसक्ति तभी समाप्त होना मानी जाती है जब मन में भी उस विषय को पाने अथवा भोगने का विचार तक पैदा न  हो |केवल इस अवस्था को उपलब्ध हुआ व्यक्ति ही विषय-निवृत माना जा सकता है |जब विषय-निवृति हो जाती है तभी परमत्मा को पाने की प्रवृति का प्रारम्भ होता है | यह वह स्थिति है,जब मनुष्य विषयी से साधक होने की राह पकड़ने जा रहा होता है |
                       परन्तु इस साधना का मार्ग ,इस साधना का पथ इतना विकट और उलझनों से भरा है कि प्रायः व्यक्ति इस साधना पथ  को शीघ्र ही त्याग कर पुनः भौतिक संसार में आकर विषयों को पाने में रत हो जाता है |अतः विषयों से अघाया व्यक्ति प्रायः साधक होने का भ्रम पैदा अवश्य ही करता है परन्तु वास्तविकता  में वह विषयी ही होता है क्योंकि विषय प्राप्ति से कोई भी व्यक्ति कभी भी संतुष्ट नहीं होता है ,अघाना तो बहुत दूर की बात है |हम भारतीय लोग दिखावे को ज्यादा पसंद करते हैं और इस कारण बहुधा हम ऐसे किसी भी भ्रमजाल में आसानी से उलझ जाते हैं |जब हमें साधक या सिद्ध की वास्तविकता पता चलती है,तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | अतः प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे मामलों में उतावलापन दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | साधक होते हुए भी सिद्ध बनना बहुत ही कठिन है |प्राय: लोग साधना से पदच्युत होकर विषयों की तरफ ही पुनः लौट जाते हैं | सिद्ध की परख करके ही साधक को उसकी राह पकड़नी चाहिए अन्यथा हम भी उसी  की तरह भ्रमित होकर पुनः इस विषयी संसार में लौट आयेंगे |
क्रमशः
                                     || हरिः शरणम् || 

Tuesday, July 7, 2015

मानव-श्रेणी |-22

विषयी-पुरुष (गंध)-
                      जब हम किसी बेहतरीन गंध का अनुभव करते है,तब वह गंध हमें कहीं भीतर तक प्रभावित कर देती है । ऐसी सुगंध को हम बार बार अनुभव करना चाहते हैं । यह हमारी उस गंध के प्रति आसक्ति होना प्रकट करती है । यह आसक्ति ही उस मनुष्य  को गंध के प्रति विषयी बना देती है । वह बार बार उसी गंध को सूंघना चाहता है और उसी में उसे सुख मिलता है । इसी प्रकार जब वह  दुर्गन्ध का अनुभव करता है तब ऐसी गंध से वह सदैव के लिए दूर रहना चाहता है । हमें यह समझना होगा कि ऐसा सब कुछ  प्रकृति के गुणों के कारण ही होना संभव हुआ है, अन्य  कोई कारण नहीं है । अतः ऐसी किसी भी गंध को , चाहे वह सुगंध हो अथवा दुर्गन्ध,प्रकृति के गुण  मानते हुए ही यथारूप स्वीकार करना चाहिए । जब हमारी समझ  में यह बात कही भीतर तक पैठ कर  जाएगी तो फिर  हम न तो दुर्गन्ध से दूर भागेंगे और न ही सुगंध के पीछे दौड़ेंगे ।
                            हमने विषयों में आसक्त व्यक्तियों के बारे में जो भी जाना है,उसको सार स्वरुप
में ऐसे समझा जा सकता है कि  इन्द्रियों के सभी विषय,केवल विषतुल्य ही नहीं बल्कि विष से भी अधिक  दुखदाई है । विष ग्रहण करने पर केवल उस एक शरीर का ही नाश होता है परन्तु विषय को ग्रहण करके मनुष्य अनेकों शरीरों में से  गुजरते हुए उनका नाश करता रहता है । विषयों के प्रति आसक्ति ही व्यक्ति के आवागमन का कारण  है । प्रत्येक मृत्यु के बाद एक नए शरीर को प्राप्त होकर उसका नाश कर देने का एक मात्र कारण विषय का संग करना ही है ।                                                  
                                  विषयी पुरुष के बारे में हमने इन्द्रियों के गुणों  की चर्चा करते हुए संक्षेप में जाना । हालाँकि यह एक विस्तृत विषय है परन्तु आज के इस भागदौड़ के युग में हम इतने को भी आत्मसात कर लें तो यह हम सब के लिए कल्याणकारी होगा । इस संसार में ज्ञान की कोई भी कमी नहीं है परन्तु सब कुछ जानकर ,संसार का सारा ज्ञान प्राप्त करके भी हम उसको नहीं जान पाएंगे क्योंकि वह हमारे इस सांसारिक ज्ञान से भी परे हैं । हमें सांसारिक ज्ञान प्राप्त करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जहाँ सब कुछ जानने की सीमा समाप्त हो जाती है,वहां पहुँच कर ही हम जिज्ञासु लोग उस सांसारिक ज्ञान को विस्मृत कर सकते हैं, उससे पहले नहीं । प्राप्त किये समस्त ज्ञान को भूलकर  ही हम उस अपरिमेय को जान पाएंगे । ज्ञान की सीमा है, वह परिमेय है जबकि परमात्मा अनंत है,अपरिमेय है। भला अपरिमेय को परिमेय से कैसे जान  सकते हैं ? वह जैसे समस्त ज्ञान से परे हैं,उसी प्रकार सब विषय उसके कारण होने के बावजूद भी वह सब विषयों से परे हैं । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह विषयों में आसक्त होने की बजाय उनका आनन्द लेते हुए विषयों से परे चला जाये और जिस  स्थिति को विषयों से परे जाने के लिए वह तत्पर होता है, वह एक साधक बनने की स्थिति होती है । कल से हम साधक पुरुष पर चर्चा प्रारम्भ करेंगे ।
क्रमशः
                             ॥ हरिः शरणम् ॥  

Saturday, July 4, 2015

मानव-श्रेणी |-21

विषयी-पुरुष (गंध )-
                  जल में विकार पैदा होने से पृथ्वी अस्तित्व में आयी और पृथ्वी का प्रतिनिधित्व हमारे शरीर में घ्रानेंद्रिय करती है और उसका नाम है-नाक । नाक  से हम किसी भी पदार्थ की गंध प्राप्त  करते हैं । हमारे नाक  में सूंघने के लिए कई कलिकाएँ होती है जो वायु के साथ आ रहे गंध कणों को जल के साथ मिलाकर इन कलिकाओं को उद्वेलित करती है । यह गंध संकेत के रूप में हमारे मस्तिष्क तक पहुंचती है जहाँ पर इनका विश्लेषण होता है । इस विश्लेषण के आधार पर ही हम सुगंध अथवा दुर्गंध का अनुभव करते हैं ।इस इन्द्रिय में अग्नि को छोड़कर शेष सभी चारों तत्वों की भूमिका होती है ।मुख्य भूमिका पृथ्वी की होती है और आकश,वायु और जल सहायक की भूमिका में होते हैं । गंध कण पृथ्वी से उठकर  वायु के साथ आकाश से होते हुए नाक में जाकर जल में घुलते है तभी हम किसी भी गंध का अनुभव कर सकते है । इनमें से किसी भी एक भौतिक तत्व की अनुपस्थिति में गंध का अनुभव करना असंभव होता है ।
                        किसी भी  वायु रहित स्थान पर अवस्थित होने पर हमें गंध का अनुभव नहीं हो सकता । नाक की संरचना में विकृति आ जाने पर भी हमें गंध का आभास नहीं हो पाता क्योंकि इस विकृति में  नाक की गंध कलिकाओं में जल लगभग अनुपस्थित हो जाता है । कभी कभी गंध तन्त्रिकाओं के रोगजनित हो जाने पर संकेत मस्तिष्क तक अलग रूप में पहुंचते हैं जिससे गंध का विश्लेषण सही नहीं हो पाता । भोजन करते हुए हमें भोजन की गंध अनुभव होती है उसका कारण यह है कि भोजन को छूकर जो वायु हमारे फेंफडों  में जाती है वह वायु नाक की गंध कलिकाओं में जा वहां जल में घुल कर हमें उस भोजन की  गंध का भी अनुभव करा देती है । ऐसी स्थिति में हमें भोजन के स्वाद के साथ साथ उसकी गंध का भी अनुभव हो जाता है । यही कारण है कि कडवे स्वाद वाली दवा को लोग प्रायः नाक बंद करके ही निगलना चाहते हैं जिससे उन्हें न तो दवा का स्वाद पता चले और न ही उसकी गंध का अनुभव हो ।
क्रमशः
                          ॥ हरिः शरणम् ॥    

Tuesday, June 30, 2015

मानव-श्रेणी |-20

विषयी-पुरुष (रस)-
                  रस भी अपने शरीर और आत्मा के बीच एक सीधा  सम्बन्ध बना देता है । आत्मा को जो रस पसंद होता है उसको बार बार प्राप्त करने के लिए वह बुद्धि और मन को कहती है जिस कारण से मन कर्मेन्द्रियों के माध्यम से वही रस प्रदान करने के लिए कर्म करने को विवश करती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वाद प्राप्त करने के लिए कर्म का नियंत्रण हमारे मन के पास चला जाता है । जब कर्म मन के अनुसार होते है तब उनका प्रभाव हमारे चित्त पर पड़ना अवश्यम्भावी है । हमारा चित्त हमारे सभी कर्मों का अंकन करता रहता है जो हमारा भावी जीवन निश्चित करता है । अतः हमारा रस पर नियंत्रण करना आवश्यक हो जाता है जिससे हम कोई स्वाद प्राप्त करने के लिए शास्त्र विमुख न हो और सभी कर्म शास्त्र सम्मत ही करें ।
                      मीठा,नमकीन,खट्टा और कडवा,सब स्वाद हमारी जीभ के द्वारा ही लिए जाते है परन्तु किसी भी स्वाद के प्रति आसक्ति हम स्वयं पैदा करते है , हमारी जीभ कभी भी नहीं कहती कि हमें वही पदार्थ चाहिए जो अच्छा स्वाद प्रदान करते हों । हम स्वयं ही उस पदार्थ को फिर से प्राप्त करने की कामना करते हैं और दोषारोपण जीभ पर करना चाहते है । जीभ तो मात्र उस पदार्थ के स्वाद का परिचय हम  से करवाती है और स्वाद से  परिचय कराना उसका एक प्राकृतिक गुण है । हम स्वयं ही उसके  इस गुण के प्रति आसक्त होते हैं । इसमे भला उस जीभ,उसके गुण और विषय का क्या दोष है ? जिस दिन हम यह समझ लेंगे, हमारी आसक्ति स्वाद के प्रति, रस के प्रति अपने आप समाप्त हो जाएगी । अनासक्त होना ही परमात्मा हो जाना है । पदार्थ के रस का आनंद  लें  ,उसके स्वाद का आनंद ले,बस यही ध्यान रखें कि किसी भी स्वाद या रस के प्रति आसक्त न हो । जीवन  में स्वाद  का आनंद लेना हमारे हाथ में है ।  स्वाद के प्रति आसक्ति, हमसे आनंद को छीन कर  केवल  दुःख ही प्रदान कर सकती है । आइये ,संसार के सभी पदार्थों का आनन्द ले परन्तु कभी भी किसी  स्वाद के प्रति आसक्त न हो ।
क्रमशः
                                    ॥ हरिः शरणम् ॥     

Saturday, June 27, 2015

मानव-श्रेणी |-19

विषयी-पुरुष (रस)-
                   इन्द्रिय के विकास के क्रम में जब अग्नि में विकार पैदा हुआ तब जल का प्रादुर्भाव हुआ । जल का इस भौतिक मानव तन में प्रतिनिधित्व करने  वाली इन्द्रिय का नाम है-जिव्हा अर्थात जीभ । जीभ से हम किसी भी पदार्थ  का स्वाद ग्रहण करते हैं और स्वाद का विषय है रस । विज्ञान के अनुसार किसी भी पदार्थ को हम जब अपनी जीभ पर रखते है,तब उसका स्वाद कैसा है ,तब तक पता नहीं चलता जब तक उस  पदार्थ का ठोस स्वरूप परिवर्तित होकर एक द्रव का रूप न ले ले ।यही कारण है कि हम जीभ से स्वाद तभी प्राप्त कर सकते हैं जब पदार्थ जल में घुलनशील हो । बिना  जल में घुले किसी भी पदार्थ का स्वाद प्राप्त करना असंभव है । यही कारण है कि जल के  कारण ही स्वादेन्द्रिय का प्रकट होना संभव हुआ है । मनुष्य को छोड़कर इस संसार में जितने भी प्राणी ठोस पदार्थ को भोजन के रूप में लेते हैं ,उनको ऐसे भोजन को निगलना ही पड़ता है । उनमे जीभ होते हुए भी वे भोजन के स्वाद से पूर्णतया वंचित रहते हैं । जब वे भोजन को निगलते हैं तो उनकी स्वाद के प्रति किसी भी प्रकार की आसक्ति भी पैदा नहीं होती  । उनका इस प्रकार भोजन को लेना मात्र एक उदरपूर्ति है ।
                          परन्तु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है । उसको अपने भोजन को चबाते हुए अपनी लार जिसमें  जल ही  होता है,में भोजन को घुलना पड़ता है । ऐसे में उसका भोजन ठोस से द्रव अवस्था प्राप्त कर लेता है । जीभ की संरचना में स्वाद कलिकाएँ होती है,जो इस द्रवित भोजन के रस से संकेत  बनाकर मस्तिष्क को भेजती है,जहाँ पर हमारी बुद्धि उस भोजन के स्वाद का अनुभव करती है । जब हमारी आत्मा इस स्वाद को ग्रहण करती है तब वह या तो उसे स्वीकार्य होता है या फिर अस्वीकार्य । स्वीकार स्वाद को बुद्धि और मन के माध्यम से आत्मा बार बार प्राप्त करना चाहती है और अस्वीकार स्वाद से दूर रहना चाहती है । स्वाद की यह स्वीकार्यता अथवा अस्वीकार्यता ही उस रस विषय के प्रति आसक्ति है । आसक्त होने का अर्थ है -प्रकृति जनित स्वाद के इस गुण का अपने अनुसार विश्लेषण करना । मैं पहले ही कई बार स्पष्ट कर चूका हूँ कि इस संसार में कुछ भी असत्य नहीं है, यहाँ सब कुछ सत्य है । परमात्मा  की कोई भी रचना आखिर असत्य हो भी कैसे सकती है ?इसी प्रकार स्वाद  सत्य है परन्तु इसके विषय में आसक्ति और स्वाद के प्रति वासना पैदा होना असत्य है ,ऐसी परिस्थिति में यह स्वादेंद्रिय,उससे अनुभव होनेवाला स्वाद तथा  इसका विषय सब असत की  श्रेणी में आ जाते हैं । अतः इस स्वादेंद्रिय से स्वाद का आनंद अवश्य लें  परन्तु इसमें आसक्तिभाव त्याग दें ।
क्रमशः
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥  

Wednesday, June 24, 2015

मानव-श्रेणी |-18

विषयी-पुरुष (तेज,रूप)-
                    नेत्र ही वह एक मात्र इन्द्रिय है,जिसके माध्यम से काम शरीर में सर्वप्रथम प्रवेश करता हैं । इसके इस कर्म में कान (शब्द) और नाक (गंध) सहयोगी की भूमिका निभाते हैं । त्वचा (स्पर्श) से व्यक्ति कामसुख प्राप्त करता है । अतः जब आप अपनी इस मुख्य इन्द्रिय नेत्र को नियंत्रित कर लेते हैं तो काम के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा सकते हैं । मैं इस इन्द्रिय के गुण का आलोचक कदापि नहीं हूँ परन्तु इस गुण के प्रति आसक्ति को पैदा कर लेने का अवश्य ही आलोचक हूँ । परमात्मा की ही रचना है -यह सब  इन्द्रियां |इनमे किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है । दोष है ,हमारी  बुद्धि का,हमारे मन का है,जो इस इन्द्रिय के गुण, रूप का हमें आसक्त बना देती है जिस कारण से हम हमारे पसंद के रूप को बार बार देखना और उसे हासिल करने के लिए कर्म करने को विवश हो जाते हैं ।अगर  हम अपने मन और बुद्धि को नियंत्रित कर लें  तो फिर हम इसी रूप का आनन्द  भी ले सकेंगे और आसक्त भी नहीं होंगे ।
                          आसक्ति ही हमें उस स्थिति तक पहुंचा देती है,जहाँ पर अपनी पसंद के रूप को न देख पाने पर हम उद्वेलित हो जाते हैं । इस उद्वेग के कारण हमारी बुद्धि भ्रमित हो जाती है,हम क्रोध से उबल पड़ते  हैं । क्रोध हमारी बुद्धि का नाश ही करता है और बुद्धि का नाश होना ही व्यक्ति का नाश होना है  । अतः प्रकृति के इन इन्द्रिय गुणों को भोगते हुए आनन्दित हों ,आसक्त नहीं । इस इन्द्रिय को अपने ही प्रभाव में ले,उसके प्रभाव में कदापि नहीं आयें । बहुत ही महत्वपूर्ण एक इन्द्रिय है यह । जिसने अपनी दृष्टि पर विजय प्राप्त कर ली वह इस संसार के परिदृश्य तक को बदल सकता है अन्यथा तो मानव सिर्फ और सिर्फ बिना सींग और पूंछ का एक जानवर मात्र ही बनकर रह जाता है ।
                    आज यहाँ पर,इस राम-कृष्ण की भूमि पर रूप के साथ हो रहे बलात्कार का  एक मात्र कारण हमारी दृष्टि ही है । हम रूप को मात्र एक भोग ही मानने लगे हैं और रूपवान  को भोग्या । हमें अपनी दृष्टि को ही परिवर्तित करना होगा अन्यथा शासन और प्रशासन इसको किसी भी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते हैं । आज आवश्यकता है ,परमात्मा के इस सन्देश को जन जन तक पहुंचाएं और स्वयं के साथ साथ सभी की दृष्टि को परिवर्तित करने का प्रयास करें ।
क्रमशः
                                          ॥ हरिः शरणम् ॥  

Saturday, June 20, 2015

मानव-श्रेणी |17

विषयी-पुरुष (रुप )-
          श्रीमद्भागवत  महापुराण के रचियता वेद व्यास के पुत्र शुकदेव थे |पैदा होने के बाद वे इस संसार को त्यागने  के उद्देश्य से अपने घर से निकल गए |पुत्र मोह में वेद व्यास  उनके पीछे  पीछे 'पुत्र-पुत्र' पुकारते हुए दौड़े | रास्ते में पड़ने वाले सरोवर में कुछ स्त्रियाँ स्नान  कर रही थी |शुकदेव के वहां से निकलने के दौरान स्त्रियाँ पूर्व की भांति ही स्नान करती रही, परन्तु वेद व्यास को देखते ही स्त्रियों ने अपने तन को कपड़ों से ढक लिया |वेद व्यास ने आश्चर्य से पूछा-'अभी मेरा युवा पुत्र इधर से गुजरा,तब तो तुम पहले  की भांति ही स्नान करती रही परन्तु मुझ वृद्ध को देखकर तुम अपने तन को कपड़ों में समेट रही हो ,ऐसा क्यों?' उनमें से एक स्त्री ने उत्तर दिया-'शुकदेव की दृष्टि  में सारा ब्रह्माण्ड ही परमात्मामय  है,इस कारण से उनके अनुसार हमारा तन किसी स्त्री या पुरुष का न होकर एक साधारण मनुष्य का ही तन है परन्तु आपकी दृष्टि अभी भी पुरुष और स्त्री के तन में भेद करती है |आपकी इस भेदपूर्ण दृष्टि के कारण ही हम अपना तन इन कपड़ों से ढकने को विवश हुई है |'
                   यह एक वास्तविकता है-हमारी दृष्टि की |जब हम अपनी दृष्टि को जैसी रखेंगे, सामने वाले की दृष्टि उसे उसी अनुरूप पहचान लेगी |उस पहचान के अनुसार ही उस  व्यक्ति का आपके प्रति वैसा ही व्यवहार होगा |अतः दृश्य चाहे कैसा भी हो, हम उस दृश्य पर किसी भी तरह से नियंत्रण नहीं रख सकते |हमारे हाथ में केवल अपनी अपनी दृष्टि पर नियंत्रण रखना ही है |जब हम दृष्टि पर अपना  नियंत्रण स्थापित कर लेंगे ,दृश्य स्वतः ही हमारे नियंत्रण  में होगा |
                   अब प्रश्न यह उठता है कि हम अपनी दृष्टि को नियंत्रित  क्यों करें ? द्रश्य देखना आँख का गुण है |हम उसके इस गुण को तो बदल नहीं सकते |जब आप कोई मनभावन दृश्य देखते है,आपको वह कहीं भीतर तक प्रभावित करता है | उसका यह प्रभाव आपको उस दृश्य को बार बार देखने को विवश करता है,जिस कारण आप उस दृश्य को देखने के लिए कर्म करते है |यह आपकी उस दृश्य के प्रति आसक्ति हुई |अगर आपको वह दृश्य फिर से सुलभ नहीं हुआ तो आप अपनी कल्पना में भी उस दृश्य का बार बार निर्माण करते है |यह आसक्ति आपको कहीं का नहीं छोड़ती |आप उस दृश्य के न उपलब्ध होने से क्रोधित और पागल हो जाते है |यह आपके पतन का प्रारम्भ है | अतः दृश्य के प्रति आसक्ति की दृष्टि न रखे बल्कि उस दृश्य को प्रकृति के एक मूलभूत तत्व अग्नि का ही एक गुण समझते हुए उसका आनंद ले  और वही दृश्य उपलब्ध न होने पर उद्वेलित न हो |
क्रमशः
                                           ||हरिः शरणम् ||

Sunday, June 14, 2015

मानव-श्रेणी |-16

विषयी-पुरुष (तेज,रुप )-
                     आकाश भूत का प्रतिनिधित्व कान इन्द्रिय है जिसका विषय शब्द है । इस आकाश में जब वैकारिक विभाजन हुआ तब वायु पैदा हुई ,जिसका इस भौतिक शरीर में त्वचा नामक इन्द्रिय प्रतिनिधित्व करती है जिसका विषय है स्पर्श । वायु के वैकारिक होने पर अग्नि की उत्पति होती है,जिसका प्रतिनिधि इस शरीर में आँख या नेत्र है और इसका विषय है तेज या रूप। नेत्र इस  भौतिक शरीर की अतिमहत्वपूर्ण इन्द्रिय है । सुख और दुःख का मूल इसी को कहा जा सकता है । जब शिशु जन्म लेता है और उसकी दृष्टि चाहे जिस किसी ओर ही जाती हो,वह सब को देखकर केवल मुस्कुराता है । उसके चहरे पर किसी भी प्रकार का तनाव नहीं होता ,चाहे वह किसी भी बुरे  अथवा भले इन्सान को देख रहा हो । यहाँ तक कि किसी जहरीले नाग को देखकर भी वह मुस्कुरा देता है । यह इस विषय की प्रारम्भिक अवस्था होती है । इसीलिए शिशु को परमात्मा स्वरुप कहा जाता है । दृष्टि में समता का भाव रखना ही इन्सान को परमात्मा के समकक्ष खड़ा कर सकता है ।
                    हमारी यह आँखे क्या देखती है अथवा क्या नहीं देख पाती ,यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि दृश्य को देखने के उपरांत हम उस दृश्य  के बारे में क्या सोचते हैं ? हमारी यह सोच ही हमारी दृष्टि (Vision) कहलाती है ।प्रायः हम सभी के नेत्र दिन भर कुछ न कुछ देखते ही रहते  हैं और उस दृश्य (Sight) के प्रति हमारे क्या विचार होते हैं,उस दृश्य को देखकर हम क्या अनुभव करते हैं वह हमारी दृष्टि (Vision) होती है ।  सबके नेत्र दृश्य तो एक समान देखते हैं परन्तु उस दृश्य  का आकलन प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न भिन्न होता है। यह दृश्य का आकलन वह अपनी दृष्टि के अनुसार ही करता है | अतः महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हमारी आँखे क्या देख रही है परन्तु महत्वपूर्ण यह है की हमारी दृष्टि कैसी है ?
                       दृश्य को दिखाना आपकी नेत्र इन्द्रिय का कार्य है ,उसका एक गुण  है और उसके इस कार्य का विश्लेष्ण करना आपकी बुद्धि का कार्य है |देखती आपकी आँखे हैं परन्तु आपकी बुद्धि उस दृश्य को एक दृष्टि प्रदान करती है | देखने से अधिक महत्वपूर्ण  है आपकी दृष्टि |यह दृष्टि ही आपका चरित्र है आपका स्वभाव है |अतः किसी भी दृश्य का  सही अथवा गलत बताने के स्थान पर अपनी दृष्टि को सही करें |आपकी दृष्टि जब सही होगी आपके द्वारा देखे जाने वाले सभी दृश्य भी सही नज़र आयेंगे |
क्रमशः
                                                    || हरिः शरणम् ||

Sunday, June 7, 2015

मानव-श्रेणी |-15

विषयी-पुरुष -(स्पर्श)
         जब हम ठन्डे स्थान पर ही बार बार जाना चाहते हैं अर्थात ठंडा माहौल हमें प्रभवित करते हुए सुख प्रदान करता है और हम हर हालत में शरीर के लिए ठंडा वातावरण प्राप्त करना चाहते हैं ,तो यह इस विषय के प्रति आसक्त होना हुआ |इसी  प्रकार इस विषय से  सम्बंधित सभी कर्म जो हमें सुख अथवा दुःख प्रदान करते हैं,उनको प्राप्त करने के लिए जो भी और जैसे भी कर्म किये जाते हैं,वे सभी इस स्पर्श विषय के प्रति आपकी आसक्ति व्यक्त करते है | विषय को भागना कदापि अनुचित नहीं है परन्तु उस विषय को  बार  बार भोगने की इच्छा करना ही आसक्ति है |ऐसी आसक्ति अनुचित है |
             गीता के दूसरे अध्याय के अन्तिम श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण कहते भी  हैं कि इस विषय से काम  उत्पन्न होता है ,काम संपन्न न होने पर इससे क्रोध पैदा होता है,क्रोध से सम्मोह अर्थात मूढ़भाव, मूढ़ता से स्मृतिभ्रम तथा स्मृतिभ्रम  से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने पर व्यक्ति अपने स्तर से नीचे गिर जाता है अर्थात व्यक्ति स्तर हीन हो जाता है |अतः हे अर्जुन ! तुन इस काम रुपी शत्रु परे विजय प्राप्त कर |
                कितनी सुन्दर बात कही है परमात्मा ने |यह आज के सांसारिक व्यक्ति  के लिए मार्गदर्शन है |इस काम के कारण ही यह संसार है ,अगर काम न हो तो संसार भी नहीं हो |यह काम और हमारी कामनाएं हमारे किसी भी काम की नहीं है |यह ध्यान में रखते हुए ही इन्द्रिय भोगों  का आनंद ले |परन्तु काम और कामनाएं पूरी न हो तो समता में रहें |समता आपको अपने स्तर से नीचे नहीं गिरने देगी  |इन्द्रिय भोगों में आसक्त न होकर अनासक्त भाव से उन्हें भोगें ,  विरक्त होने की आवश्यकता नहीं है |विरक्ति का प्रयास  ही आसक्ति को और अधिक बढाता है जबकि अनासक्त रहते हुए विरक्ति तक अवश्य ही पहुंचा जा सकता है |
क्रमशः
                                       || हरिः शरणम् ||
               

Sunday, May 31, 2015

मानव-श्रेणी |14

विषयी-पुरुष -(स्पर्श)
                    सर्दी में हमें ठण्ड लगती है और  इस ठण्ड से हम दुखका अनुभव करते  हैं |इसी प्रकार गर्मी में हमें बढता हुआ ताप प्रभावित करता है और हम इस गर्मी से परेशान हो उठते हैं |सर्दी में हमें गर्म पानी से नहाना  अच्छा लगता है जबकि यही पानी हमें गर्मी में मिले तो हम दुखी हो जाते हैं |भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि इस स्पर्श के प्रति आसक्ति को कम करने के लिए व्यक्ति  को सर्दी और गर्मी को सहने की आदत डालनी चाहिए |यह  एक तरीका है जिससे इस  इन्द्रिय को नियंत्रण में  रखा जा सकता है |बौध भिक्षु इस इन्द्रिय को नियंत्रण में रखने के लिए एक प्रकार का ध्यान-योग भी उपयोग में लेते है |इस योग में किसी बर्फीले और अत्यधिक ठन्डे स्थान पर बैठ कर वे अत्यधिक गर्म स्थान पर बैठे होने का ध्यान करते हैं |इस ध्यान में उतरने के बाद धीरे धीरे उन्हें सर्दी का अहसास कम होता जाता है | इस ध्यान की उच्चत्तम अवस्था में तो भिक्षु के अत्यधिक ठन्डे स्थान पर भी पसीना तक  आने लगता है |इसी प्रकार की साधना किसी अत्यधिक  गर्म स्थान पर बैठ कर बहुत ही ठन्डे  स्थान की कल्पना करते हुए भी की जा सकती है |
            इसी प्रकार किसी कील या कांटे के शरीर में चुभने पर पैदा होने वाले दर्द का अनुभव कम किया जा सकता है |मैंने ऐसे एक साधू की शल्य चिकित्सा होते देखी है,जिसने अपने ऊपर किसी भी प्रकार की निश्चेतन करने की विधि को प्रयोग में  लाने से  स्पष्ट इंकार  कर दिया था |बिना निश्चेतन के उस महात्मा ने अपनी मध्यम दर्जे की शल्य चिकित्स करवाई और पूरी शल्य चिकित्सा के दौरान उनके मुंह से जरा सी  भी आह तक नहीं निकली |इसको कहते हैं -स्पर्श  से अनासक्त होना |
क्रमशः
                                             || हरिः शरणम् ||

Sunday, May 24, 2015

मानव-श्रेणी |-13

विषयी-पुरुष -
 त्वचा-
       मनुष्य  की इस ज्ञानेन्द्रिय का विषय है-स्पर्श |त्वचा, सभी इन्द्रियों में इस  भौतिक शरीर में  विशालतम इन्द्रिय है |इस से प्राणी का सारा शरीर ढका हुआ रहता  है |इसको स्पर्श करने से ही प्राणी को सुख या दुःख का अनुभव होता है |शेष सभी चारों इन्द्रियों को आप अपने विवेकानुसार उपयोग में ले सकते हैं परन्तु  इस इन्द्रिय को नियंत्रण में रखना बड़ा ही मुश्किल है |स्पर्श तो कभी भी और कहीं पर भी मिल सकता है |इस स्पर्श से व्यक्ति प्रभवित हुए बिना नहीं रह सकता |
          स्पर्श से हमें ठन्डे-गर्म का भान होता है |इसी कारण से हमें  सर्दी-और गर्मी का अहसास होता है |दर्द का अनुभव भी इसी इन्द्रिय के माध्यम से होता है |स्पर्श से ही यौन  और कामेच्छा पैदा होती है और सुख अथवा दुःख मिलता है |अतः कहा जा सकता है  कि इस इन्द्रिय से जितना व्यक्ति प्रभावित हो सकता है,उतना अन्य किसी इन्द्रिय से नहीं | स्पर्श विषय में आसक्ति होना ही सबसे अधिक घातक माना गया  है |हालाँकि  सभी इन्द्रियां आपस में एक प्रकार का तालमेल बनाकर ही कार्य सम्पादित करती है,परन्तु त्वचा इन्द्रिय द्वारा ही व्यक्ति को सबसे  अधिक सुख और दुःख की अनुभूति होती है |अतः इस इन्द्रिय  को नियंत्रण में कर के उसे जीतनेवाला ही वास्तव में जितेंद्रिय कहलाने का अधिकारी होता है |
            हालाँकि व्यक्ति के शरीर में काम का प्रवेश आँखों के माध्यम से होता है और नाक तथा कान इस काम की भावना को बढाने में सहायक होते है परन्तु इस काम का सुख अथवा दुःख त्वचा ही प्रदान कर सकती है | इसीलिए इस इन्द्रिय के विषय स्पर्श के प्रति आसक्त रहने की सम्भावना सबसे अधिक होती है |
क्रमशः
                                || हरिः शरणम्  ||   

Sunday, May 17, 2015

मानव-श्रेणी |-12

विषयी-पुरुष-
                                       जब आप शब्दों में आसक्त हो जाते हैं,तब आप केवल वे ही शब्द सुनना चाहेंगे,जो आपको प्रिय लगते हों |यही आसक्ति आपको शब्दों के प्रति विषयी बना देती है |जैसे  आपको फ़िल्मी गाने अधिक पसंद है ,तो आप वही गाने बार बार सुनना पसंद करेंगे |ऐसे ही कुछ अन्य  व्यक्ति भजन सुनकर प्रसन्नता अनुभव करते हैं | दोनों ही परिस्थितियां विषयी होने के अंतर्गत आती है |परन्तु भजनों में आसक्त होना आपकी उन्नति में सहायक है | धीरे धीरे भजनों की आसक्ति भी नियंत्रित होकर प्रेमाभक्ति में परिवर्तित हो जाती है , जबकि सांसारिक शब्दों के प्रति आसक्ति दिन प्रतिदिन बढाती ही जाती है |विषयी न होने का अर्थ यही है कि आप शब्दों के प्रति  आसक्त् न हो , चाहे वे शब्द गाली हो, आपकी प्रशंसा के हो,भजन हो या फिर फ़िल्मी  धुनें | जिस प्रकार के भी शब्द आपके कानों में पड़कर सुनाई दे रहे हों, सबको इन्द्रियों का गुण मानते हुए स्वीकार करें और अपने आपको सम अवस्था में रखें | यही इस इन्द्रिय के प्रति विषयी न होना है |सम अवस्था से अर्थ है,शब्दों को भलीभांति सुनकर और समझकर भी समता मे रहना - न तो प्रसन्नता,न ही उद्विग्नता और न ही उदासीनता |यही शब्दों के प्रति विषयी न होना है |
                जब विषय के प्रति आसक्ति पैदा होती है,तब मन बार बार उस विषय को भोगना चाहता है | यह बार बार भोगने की कामना ही विषयी की पहचान है |अतः शब्दों के प्रति आसक्ति न रखते हुए उनका अवलोकन करे और अपने मन में उन शब्दों को लेकर संतुलन बनाये रखें |शब्द जब इन्द्रिय तक पहुंचेंगे,तो प्रकृति के गुणों के कारण उन्हें सुनने के लिए आप बाध्य हैं परन्तु सुनकर उसकी प्रतिक्रिया देने में आप स्वतन्त्र है |जब आप शब्दों को सुनकर भी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं, निश्चित मानिये फिर आप उन शब्दों के प्रति विषयी नहीं है |
       कान ही एक इन्द्रिय है, जिससे शेष चारों ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ है | कान आकाश का प्रतिनिधित्व करती है | आकाश में विकृति आने पर वायु का प्रादुर्भाव होता है ,जिससे त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय का विकास हुआ | त्वचा का विषय है-स्पर्श |स्पर्श विषय के प्रति आसक्ति क्या कर सकती है?-अगली कड़ी में |
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् ||

Sunday, May 10, 2015

मानव-श्रेणी |-11

विषयी-पुरुष-
                    कान  इन्द्रिय का कार्य है,सुनना |इसका विषय है-शब्द| शब्द जब आपके कानों में पड़ते हैं,तब कुछ शब्द आपको अच्छे लगते हैं और कुछ बुरे |कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं,जो आपको न  तो अच्छे लगते हैं और न ही बुरे | अच्छे शब्दों को सुनकर आप प्रसन्न होते हैं,जबकि बुरे शब्दों को सुनकर आपको क्रोध आता है |जिन शब्दों को सुनकर आपको न तो ख़ुशी मिलती है और न ही क्रोध आता है,ऐसे शब्दों का आप या आप से सम्बंधित किसी अन्य का भी कोई मतलब नहीं होता है | ऐसे शब्दों को सुनकर आप न तो हर्षित होते हैं और न ही व्यथित |इस अवस्था को उदासीन अवस्था कहते हैं | तीनों ही अवस्थाएं,शब्दों को सुनने के उपरांत पैदा हुई है | इन शब्दों  को सुनकर आपकी जो जो अवस्था बनती है,उसी से  साबित होता है कि आप विषयी हैं |
                                    विषयी होने का अर्थ है,सम्बंधित  विषय के प्रति आसक्त होना |शब्दों पर ध्यान न देना भी विषयी नहीं होना, नहीं है | शब्दों को ध्यान लगाकर सुनना और फिर उन शब्दों से प्रभावित हुए बिना रह जाना ही विषयी न होने की पहचान है |विषयासक्त न होना, तभी संभव हो पाता है,जब आप इन्द्रियों और  उनके विषयों के प्रति सम्पूर्ण ज्ञान रखते हो | उच्चारित शब्द आपके कानों तक हर परिस्थिति में पहुंचेंगे ही | वे शब्द कान में पड़ते ही उनको सुनना भी होगा |इन दोनों को ही  रोक पाना आपकी पहुँच से बाहर है |आपके वश में है तो केवल मात्र यही कि  उन शब्दों को सुनकर भी आप उद्वेलित न हो,प्रसन्न न हो और न ही उदासीन रहे |
क्रमशः
                                     || हरिः शरणम् ||
                        

Saturday, May 2, 2015

मानव-श्रेणी |-10

विषयी-पुरुष-
                 इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति रखना ही विषयी पुरुष का प्रमुख लक्षण है |कान एक ऐसी इन्द्रिय है जिसके माध्यम से व्यक्ति शब्दों का श्रवन करता है |यह इन्द्रिय पांचो  इन्द्रियों में एक मुख्य इन्द्रिय है |यह इन्द्रिय  जीवन में सबसे पहले सक्रिय होती है और प्रायः जीवन के अंत तक सक्रिय बनी रहती है |जिस शिशु में इस इन्द्रिय का विकास नहीं होता उसकी शेष  बची चार इन्द्रियों का विकास भी प्रभावित होता है |
 श्रवनेंद्रिय-                        
            इस इन्द्रिय का विषय है-शब्द |यह पांच भौतिक तत्वों में से, एक आकाश का प्रतिनिधित्व करती है |सुनना इस इन्द्रिय का प्रमुख कार्य है |यह इन्द्रिय जिस शिशु में विकसित नहीं होती,उसका  जीवन में शब्दों को सुनना तथा साथ ही साथ उनका उच्चारण करना संभव नहीं हो पाता |व्यक्ति अपनी इस इन्द्रिय के माध्यम से शाव्ब्दों का श्रवण कर उनकी स्मृति बना लेता है,फिर उस स्मृति के आधार पर उसकी एक  कर्मेन्द्रिय जिव्हा ,उन शब्दों को उच्चारित करती है |
                शब्दों को  सुनना भी महत्वपूर्ण है |व्यक्ति को  परमात्मा का नाम सुनने में रुचि काम और किसी अन्य व्यक्ति की आलोचना सुनना ज्यादा पसंद होता है |व्यक्ति  धार्मिक आयोजनों में भक्ति-संगीत सुनने से ज्यादा रुचि किसी पार्टी में बज रहे कामुक और फ़िल्मी गानों को सुनना ज्यादा पसंद करता है | शास्त्रीय संगीत की बजाय उसे तडक भड़क वाले  ,शोर पैदा करने वाले वाद्य  यंत्रों का संगीत सुनने में ज्यादा रस मिलता है |यह उस व्यक्ति की  इस इन्द्रिय के विषय के प्रति आसक्ति होना प्रदर्शित करता है |विषयी व्यक्ति अपना सबकुछ कार्य छोड़ कर इस विषय के प्रति आसक्त होकर वैसे शब्दों को सुनना अधिक पसंद करता है ,जो शास्त्रोक्त तो है ही नहीं बल्कि उसे  अपनी स्थिति से गिराने वाला भी है |अतः इस इन्द्रिय पर नियंत्रण रखना उसके भविष्य निर्माण के लिए आवश्यक है |
क्रमशः
                                  || हरिः शरणम् ||

Saturday, April 25, 2015

मानव-श्रेणी |-9

विषयी-पुरुष (लगातार)--
                       विषयी और पामर पुरुष,दोनों ही अपने अपने स्वार्थ पूर्ति में लगे रहते है |दोनों का उद्देश्य भी एक ही होता है- जैसे भी हो अपना स्वार्थ पूरा करना |पामर-पुरुष अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी भी सीमा का अतिक्रमण कर सकता है जबकि विषयी व्यक्ति अपनी सीमा का काफी हद तक ख्याल रखता है |पामर-पुरुष संसार के अन्य प्राणियों को दुःख देने में अपना सुख समझता है जबकि विषयी व्यक्ति किसी  अन्य प्राणी को तब तक दुःख नहीं पहुंचाता है,जब तक कि वह उसकी स्वार्थ पूर्ति में बाधक न  बनता हो |बाधक  बनने पर वह भी किसी भी प्राणी को नुकसान पहुंचा सकता है |यूँ तो इन दोनों ही श्रेणियों के व्यक्तियों को आप आसानी से  पहचान सकते हैं,फिर भी दोनों में कुछ मूलभूत जो अंतर होते हैं ,उन्हें संक्षेप में स्पष्ट किया गया है |बिना किसी विचार और कामना के पामर व्यक्ति कर्म करता रहता है जबकि विषयी व्यक्ति किसी न किसी कामना के वशीभूत होकर ही कर्म करता है |
                  विषयी व्यक्ति में कामनाएं कहाँ से पैदा होती है ? कामनाओं का श्रोत है -इन्द्रियों के विषय |पांच ज्ञानेन्द्रियाँ होती है-त्वचा,आँख,नाक,कान और जीभ |इन पांच इन्द्रियों के विषय होते हैं-स्पर्श,रूप ,गंध,शब्द और रस |इन पांचों विषयों के भोग से ही कामनाओं का जन्म होता है |इन विषयों से सम्बंधित पाँच इन्द्रियां ही  व्यक्ति को सम्बंधित विषयों के भोग उपलब्ध करवाती है |इन्द्रियां सीधे ही यह भोग व्यक्ति को उपलब्ध नहीं करवा सकती बल्कि पांच कर्मेन्द्रियों के  द्वारा ही भोग उपलब्ध करवाना  संभव होता है | पाँचों कर्मेन्द्रियों द्वारा किये जाने वाले कार्यों को ही कर्म कहा जाता है |जिस विषय को भोगने में व्यक्ति को सुख की अनुभूति होती है ,उस विषय को पुनः भोगने की इच्छा पैदा होती है |इस इच्छा को ही कामना कहा जाता है |
क्रमशः
                                                || हरिः शरणम् ||

Saturday, April 18, 2015

मानव-श्रेणी |-8

 विषयी-पुरुष-
                             इस संसार में अधिकतम आबादी विषयी व्यक्तियों की है |इस श्रेणी के व्यक्ति सदैव ही स्वार्थ में रत रहते हैं |हालाँकि कभी कभी ऐसे व्यक्ति भी नियमों और शास्त्रों का उल्लंघन कर जाते हैं परन्तु तुरंत ही इसका परिमार्जन करने का विचार भी कर लेते हैं |हालाँकि किये गए कर्म ,चाहे वे नियमानुसार हो अथवा नियम विरुद्ध,सबका कर्म-फल तो भावी जीवन में मिलना तय है  |कर्म और कर्म-फल कभी भी नष्ट नहीं होते हैं ,चाहे इन कर्मों का फल भोगने के लिए कितने ही जन्म लेने पड़े |नियम विरुद्ध तो कर्म पामर व्यक्ति भी करते हैं और विषयी भी |परन्तु दोनों में बहुत ही बड़ा मूलभूत अंतर होता है |पामर श्रेणी के व्यक्तियों द्वारा किये गए शास्त्र और नियम विरुद्ध कर्मों को वे शास्त्रोक्त और नियम के अनुसार किये गए मानते हैं जबकि विषयी व्यक्ति ऐसे कर्मों को  करने के समय ही यह जनते भी है कि किये जा रहे कर्म शास्त्र और नियम विरुद्ध ही है |पामर-व्यक्ति इन कर्मों को अनवरत चालू रखता है जबकि विषयी व्यक्ति ऐसे कर्म यदा कदा ही करता है | पामर व्यक्ति शास्त्र विरुद्ध कर्म जानबूझकर और शास्त्र सम्मत मानते हुए करता  है जबकि एक विषयी पुरुष ऐसे कर्मों को यह जानते हुए भी कि ये कर्म  शास्त्र विरुद्ध है फिर भी अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए , अपनी कामनाओं के वशीभूत होकर करने को विवश होता है |
                                 पामर-व्यक्ति कभी भी विषयी की तरह व्यवहार  नहीं कर सकता  क्योंकि वह सदैव ही क्रोध से उबलता रहता है,जबकि विषयी व्यक्ति को क्रोध कभी कभी और प्रायः दिखावे के  तौर पर आता है |विषयी व्यक्ति को क्रोध प्रायः अपनी कामनाओं की पूर्ति न  हो पाने के कारण आता है ,शेष परिस्थितियों में वह केवल अपनी कामनाओं की पूर्ति करने हेतु कर्म करने में ही लगा रहता है |जबकि पामर मनुष्य का क्रोध करते रहना  एक स्वभाव बन जाता है |
क्रमशः
                                                      || हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 14, 2015

मानव-श्रेणी |-7

पामर-पुरुष(लगातार)-
                  स्वार्थ,पर-उत्पीड़न और अकारण क्रोध पामर-श्रेणी के मनुष्यों के तीन प्रमुख लक्षण है । वैसे जो लक्षण संत महापुरुषों के हैं ;उनके ठीक विपरीत लक्षण इन पामर-श्रेणी के मनुष्यों के होते हैं  । इनको पहचान लेना बहुत ही आसान है । संसार के सभी ऐसे कृत्य जो शास्त्रोक्त नहीं है और नियम विरुद्ध है,वे सभी इन मनुष्यों के द्वारा सम्पादित किये जाते हैं। ऐसे व्यक्ति दिखावे के तौर पर बहुत ही शक्तिशाली होते हैं  परन्तु भीतर से सदैव ही भय ग्रस्त रहते हैं । इनको अपने शरीर के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में किसी भी प्रकार की सोच नहीं होती है । सत्य,अहिंसा,दया और धर्म से इनका दूर दूर तक किसी भी  प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता है । बाहरी और आंतरिक शुद्धि का कोई महत्त्व नहीं होता है । अगर  दूसरे शब्दों में कहा जाये तो यह कहा जा सकता हैं कि एक पशु और पामर-व्यक्ति में सिवाय शारीरिक रचना के कोई मूलभूत अंतर नहीं होता है ।
                        पामर श्रेणी के व्यक्ति इस संसार,समाज और परिवार के लिए एक बोझ के अतिरिक्तं कुछ भी नहीं होते हैं । ऐसे व्यक्तियों से संतुष्ट  इस संसार में कोई भी व्यक्ति नहीं होता है । यहाँ तक कि एक पामर व्यक्ति से दूसरा पामर प्रकृति का व्यक्ति भी संतुष्ट नहीं हो सकता । इतिहास पामर-मनुष्यों के मध्य  हुई शत्रुता का गवाह है । राक्षसी प्रवृतियों के दो समूहों के मध्य सदैव ही युद्ध होते रहे हैं । इन युद्धों का उद्देश्य कभी भी नीति और धर्म नहीं रहा है बल्कि अपना प्रभुत्व स्थापित करना ही रहा है ।अजामिल,अंगुलिमाल,रावण और कंस आदि इनके उदाहरण है ।  अजामिल और अंगुलिमाल ने सत्पुरुषों का सानिध्य पाकर अपने आप को परिवर्तित कर लिया जबकि रावण और कंस सत्पुरुषों का साथ मिलने के बावजूद भी अपने आपको अहंकारवश परिवर्तित नहीं कर सके । अगर इन्होने भी अपने स्व का,अपने अहं का  त्याग कर दिया होता तो इतिहास में एक संत के रूप में स्थापित हो गए होते ।
                          पामर-श्रेणी के व्यक्तियों के बारे में संक्षेप में हमने विचार किया । लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु ऐसे पुरुषों की प्रकृति जानने के लिए मात्र इतना ही पर्याप्त होना चाहिए । कल से हम दूसरी श्रेणी अर्थात विषयी मनुष्यों के बारे में चर्चा प्रारम्भ करेंगे ।
क्रमशः
                                                             ॥ हरिः शरणम् ॥       

Saturday, April 11, 2015

मानव-श्रेणी |-6

पामर-पुरुष -(लगातार)
                  राम और रावण के कृत्यों को भूतकाल के परिपेक्ष्य में विश्लेषित करने पर ही अनुभव होता है कि रावण का कृत्य अनुचित था । परन्तु पामर श्रेणी के मनुष्यों को इससे कोई मतलब नहीं होता कि इन व्यक्तियों के पूर्व-कर्म क्या कहते हैं?उन्हें तो अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी घटना का विश्लेषण करना होता है । उसी सुविधा को दृष्टिगत वे अनुचित या उचित का निर्णय करते हैं । इसमे वे  न तो किसी शास्त्र का  सहारा लेते हैं और न ही किसी नियम और कानून का । उनके लिए तो अपना व्यक्तिगत स्वार्थ ही सर्वोपरि होता है ।
                 अपने स्वार्थ के वशीभूत होना पामर श्रेणी के पुरुष का प्रथम लक्षण है । दूसरा लक्षण है -पर-उत्पीड़न । पामर श्रेणी के मनुष्य दूसरे को पीड़ित कर आनंद  का अनुभव करते हैं ।दूसरे व्यक्ति अपना जीवन आराम से न बिता सके,यही उनका एक मात्र उद्देश्य होता है । उसे अपने जीवन की कतई चिंता नहीं होती परन्तु वे किसी भी अन्य व्यक्ति को सुखी नहीं देख सकते । पडौसी का सुख भी उन्हें दुखी कर देता है  । राह चलते मनुष्य  को भी परेशान करना उसकी आदत बन जाता है ।ऐसे पामर मनुष्य न तो इस लोक में आराम से रह सकते हैं और न ही अन्य लोकों में ।
                 तीसरा लक्षण पामर-श्रेणी के  मनुष्यों का है-अकारण क्रोध । इस श्रेणी के व्यक्ति किसी भी व्यक्ति या जीव पर छोटी छोटी बातों को लेकर बहुत ही क्रोधित  हो जाते हैं और अनेकों बार  तो बिना किसी कारण के भी वे क्रोधित होकर उबल पड़ते हैं । पामर-श्रेणी के मनुष्यों से की गई मित्रता इसी कारण से घातक कही गई है ।  न जाने वे कब आपसे खुश होकर प्रशंसा करने लगे और कब आप पाकर क्रोधित हो जाये । अतः ऐसे मनुष्यों से न तो मित्रता अच्छी है और न ही शत्रुता । इनको तो दूर से ही प्रणाम करना अच्छा है ।
क्रमशः
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥  

Wednesday, April 8, 2015

मानव-श्रेणी |-5

पामर-पुरुष-
             पामर श्रेणी उन मनुष्यों की मानी गई है ,जो वास्तविकता को एकदम से विपरीत समझते हैं । इस संसार में जो कुछ भी शास्त्रोक्त  है,जिसे हम नियम के अनुसार समझते हैं ,जिस कार्य को इस भौतिक संसार में  निम्नतम श्रेणी का माना गया है  साधारण पुरुष जिस कार्य को अनुचित मानते हैं ,इस श्रेणी के व्यक्ति उसे उचित  मानते हैं । आपको एक महत्वपूर्ण बात बताता हूँ ,उचित और अनुचित में विभाजन केवल मात्र एक महीन रेखा,बहुत ही हल्की  खिंची गयी रेखा करती है । इस अति बारीक रूप से हुए विभाजन के कारण ही पामर मनुष्य अनुचित को उचित बताने में सफल हो  जाते  हैं । उनका यह तर्क एक साधारण मनुष्य को कई बार ही नहीं बल्कि प्रायः ही  अनुचित को उचित मानाने को विवश कर देता है ।
                   इस विभाजन का अनुचित फायदा उठाने का एक उदाहरण भी बताता  हूँ । राम ने अपनी वनवास अवधि में सूपनखा का मानसिक तौर पर एक प्रकार का उत्पीडन किया था ।  इस दौरान लक्ष्मण ने उसके नाक और कान काट डाले थे । जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप सूपनखा के भाई ने प्रतिशोध लेते हुए राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया था । इस  प्रकरण का जब पामर श्रेणी का व्यक्ति विश्लेषण करता है तो उसे रावण का यह कृत्य उचित लगता है । परन्तु क्या उसका ऐसे विश्लेषण करना सही  है?आँख मूँद कर राम की भक्ति करने वाले व्यक्ति रावण  के इस कृत्य को अनुचित बताएँगे और बुद्धिमान व्यक्ति जो  राम को भगवान नहीं एक साधारण व्यक्ति समझते हैं वे रावण के इस कृत्य को , समस्त जानकारी प्राप्त करने के बाद  ही अनुचित बताएँगे । पामर  श्रेणी के मनुष्य इस घटना की एक balance sheet बनाते हुए लेना-देना बराबर हुआ मानकर रावण के इस कृत्य को सही ठहराएंगे ।
क्रमशः
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥