परमात्मा-
कबीर ने कह तो दिया कि मुक्ति बिना गुरु के हो नहीं सकती परन्तु क्या गुरु आपके पास चल कर आएगा ? नहीं,गुरु को ढूँढना पड़ता है । और गुरु को ढूंढना प्रारम्भ हम तभी करते हैं जब हमारे मन मे मुक्ति के भाव जगे,परमात्मा होने की आकांक्षा पैदा हो । यह आकांक्षा तभी पैदा होगी जब परमात्मा की आप पर कृपा होगी । संसार में कितने लोग आप देखते हो,जिनके मन में ऐसी इच्छा पैदा होती है ?क्यों नहीं होती ?कारण स्पष्ट है । बिना ईश्वरीय कृपा के कुछ भी होना संभव नहीं है । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं -
"सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ॥ मानस 2 /127 /3 ॥
परमात्मा को वही व्यक्ति जान सकता है, जिसको स्वयं परमात्मा जनाना चाहते हैं । परमात्मा को जानते ही वह व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा हो जाता है ।
एक साधारण मनुष्य का परमात्मा हो जाना मात्र इतना सा ही खेल है । ईश्वरीय कृपा से ही व्यक्ति परमात्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसे यह ज्ञान मिलता है-शास्त्रों के अध्ययन से और संतों के संग से । इन दोनों के बारे में हम पूर्व में साधक श्रेणी के अन्तर्गत चर्चा कर चुके हैं ।शेष दो साधन जो बताये गए हैं,वे हैं शम और संतोष । इन दोनों को अपना कर ही मनुष्य आगे बढ़ सकता है और इन दोनों को अपने जीवन में उतारने में गुरु और शास्त्रों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण होती है । अतः व्यक्ति के जीवन में गुरु की महत्ता स्वीकार की गयी है । गुरु आपको वह रास्ता दिखाता है जिस पर चलकर वह सिद्ध होकर परमात्मा तक पहुंचा है । आदर्श गुरु की यही पहचान होती है कि वह आपकी अंगुली पकड़कर थोड़ी दूर आपको परमात्मा के रास्ते पर चला दे और जब गुरु को विश्वास हो जाये कि अब आप आगे का रास्ता अकेले ही तय कर लेने में सक्षम हो गए है तो वह अपनी अंगुली को आपसे छुड़ा ले । ध्यान रखें,जो गुरु आपको जीवन भर अंगुली पकडवाये रखवाना चाहता है,वह केवल अपने आप तक ही आपको सीमित रखना चाहता है , परमात्मा तक नहीं पहुँचने देना चाहता है । ऐसा गुरु आदर्श गुरु नहीं हो सकता ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
कबीर ने कह तो दिया कि मुक्ति बिना गुरु के हो नहीं सकती परन्तु क्या गुरु आपके पास चल कर आएगा ? नहीं,गुरु को ढूँढना पड़ता है । और गुरु को ढूंढना प्रारम्भ हम तभी करते हैं जब हमारे मन मे मुक्ति के भाव जगे,परमात्मा होने की आकांक्षा पैदा हो । यह आकांक्षा तभी पैदा होगी जब परमात्मा की आप पर कृपा होगी । संसार में कितने लोग आप देखते हो,जिनके मन में ऐसी इच्छा पैदा होती है ?क्यों नहीं होती ?कारण स्पष्ट है । बिना ईश्वरीय कृपा के कुछ भी होना संभव नहीं है । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं -
"सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ॥ मानस 2 /127 /3 ॥
परमात्मा को वही व्यक्ति जान सकता है, जिसको स्वयं परमात्मा जनाना चाहते हैं । परमात्मा को जानते ही वह व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा हो जाता है ।
एक साधारण मनुष्य का परमात्मा हो जाना मात्र इतना सा ही खेल है । ईश्वरीय कृपा से ही व्यक्ति परमात्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसे यह ज्ञान मिलता है-शास्त्रों के अध्ययन से और संतों के संग से । इन दोनों के बारे में हम पूर्व में साधक श्रेणी के अन्तर्गत चर्चा कर चुके हैं ।शेष दो साधन जो बताये गए हैं,वे हैं शम और संतोष । इन दोनों को अपना कर ही मनुष्य आगे बढ़ सकता है और इन दोनों को अपने जीवन में उतारने में गुरु और शास्त्रों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण होती है । अतः व्यक्ति के जीवन में गुरु की महत्ता स्वीकार की गयी है । गुरु आपको वह रास्ता दिखाता है जिस पर चलकर वह सिद्ध होकर परमात्मा तक पहुंचा है । आदर्श गुरु की यही पहचान होती है कि वह आपकी अंगुली पकड़कर थोड़ी दूर आपको परमात्मा के रास्ते पर चला दे और जब गुरु को विश्वास हो जाये कि अब आप आगे का रास्ता अकेले ही तय कर लेने में सक्षम हो गए है तो वह अपनी अंगुली को आपसे छुड़ा ले । ध्यान रखें,जो गुरु आपको जीवन भर अंगुली पकडवाये रखवाना चाहता है,वह केवल अपने आप तक ही आपको सीमित रखना चाहता है , परमात्मा तक नहीं पहुँचने देना चाहता है । ऐसा गुरु आदर्श गुरु नहीं हो सकता ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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