Monday, September 7, 2015

मानव-श्रेणी |-36

परमात्मा-
                  परमात्मा , देखने में एक चार अक्षरों से युक्त मात्र छोटा सा शब्द  परन्तु इसकी विशालता, अनुमान लगाने से भी बहुत परे है । परमात्मा अपरिमेय है । परमात्मा दो शब्दों से मिलकर बना एक शब्द है ,परम और आत्मा । परम मतलब उसके समकक्ष कोई नहीं । परमात्मा यानि समस्त आत्माओं की आत्मा ,परमपिता यानि समस्त पिताओं का भी पिता । परमात्मा और आत्मा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है । यह बात जिस दिन और जो व्यक्ति जान और समझ लेता है, उसी दिन वह वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । जीवन में जो ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है उसमे यह ज्ञान हो जाना ही सर्वोच्च ज्ञान है । इसी को तात्विक ज्ञान कहा गया है । केवल यह पढ़ लेना और याद कर लेना ही पर्याप्त नहीं है कि आत्मा ही परमात्मा का अंश है और संसार में सभी परमात्मा के ही विविध रूप है । यह बात कह भीतर तक उतार लेनी आवश्यक है और उसी अनुरूप अपना आचरण भी करना आवश्यक है । 
                    वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है-
                                             पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते |
                                             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
                        अर्थात्,वह भी पूर्ण है|यह भी पूर्ण है|पूर्ण में पूर्ण जोड़ने पर जो योग बनता है वह भी पूर्ण है|अगर पूर्ण में से पूर्ण दें, तो निकालने पर निकाला गया भी पूर्ण है और जो कुछ भी शेष बचता है ,वह भी पूर्ण है|
                 उपनिषद् के इस श्लोक से स्पष्ट है कि परमात्मा के कितने भी अंश कर लिए जाये,तो वह अंश भी पूर्ण होगा और परमात्मा की पूर्णता में भी कोई कमी नहीं होगी, चाहे कितनी ही पूर्ण आत्माएं परमात्मा में विलीन हो जाये फिर भी परमात्मा पूर्ण ही रहेगा । अतः सर्वप्रथम  हमें यह जान लेना आवश्यक है कि परमात्मा और आत्मा में  कहीं से भी किसी प्रकार का मूलभूत अंतर नहीं है । जो अंतर हमें दिखाई देता है वह केवल मरुस्थल की मरीचिका मात्र ही है ।
क्रमशः
                            ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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