Monday, September 14, 2015

मानव-श्रेणी |-37

परमात्मा-
                जिस प्रकार मरुस्थल में भीषण गर्मी में मृग-मरीचिका दिखाई देती है और उसमे कहीं पर भी पानी का नामोनिशान नहीं होता,उसी प्रकार हमें आत्मा का होना दिखाई न देकर शरीर ही सब कुछ दिखाई देता है । हम शरीर नहीं है बल्कि आत्मा हैं । शरीर संसार बनाता है अतः यह संसार हमारे शरीर की तरह ही क्षण भंगुर है ।  हमें यह शरीर ही अपना क्यों दिखाई देता है,आत्मा का होना क्यों नहीं ? इसका कारण है हमारा मन यानि चित्त । हमारा मन आत्मा के साथ रहकर, दोनों एक होकर जीवात्मा  बन जाते हैं । यह जीवात्मा संसार को ही वास्तविकता समझने लगती है जिस कारण से आत्मा अपने स्वरुप को पहचान नहीं पाती । यह ठीक वैसे ही है,जैसे मरीचिका में मृग को जल दिखाई देता है जबकि वास्तविकता  में वहां जल नहीं होता है । मृग को तो यह बात समझ में नहीं आती परन्तु हम तो मनुष्य हैं ,हमें तो यह बात समझ में आनी ही चाहिए कि मरीचिका मात्र प्रकृति की माया है,जल और उसमे पड़ने वाली पेड़ों की छाया वास्तविक नहीं है । फिर भी  हम अपने मन के बनाये संसार को जो कि वास्तव में एक मरीचिका ही है, वास्तविकता समझ बैठे हैं । ऐसे में हमारे  मनुष्य होने में और उस मृग के जानवर होने में अंतर ही क्या रह जाता है ?
                 अँधेरे में रस्सी को हम सांप समझने की  प्रायः भूल कर बैठते हैं परन्तु जब  हम प्रकाश करके देखते हैं  तब पता चल जाता  है कि जिसे हम सांप समझ रहे थे,वास्तव में वह  तो एक रस्सी है । जब तक हमारे भीतर अन्धकार समाया हुआ है ,तब तक यह संसार और शरीर हमें वास्तविक नज़र आते हैं परन्तु जब हम प्रकाशित हो जाते हैं तब हमें पता चलता है कि यह संसार और शरीर तो माया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । इस प्रकार के प्रकाशित होने को महात्मा लोग "आत्म-ज्ञान" होना कहते हैं । आत्म-ज्ञान अर्थात स्वयं के आत्मा होने का ज्ञान ।
            आत्म-ज्ञान कैसे हो ?कबीर इसी आत्म-ज्ञान के बारे में कहते हैं-
                    "आतम ज्ञान बिना सब सूना,क्या मथुरा क्या कासी ।
                      कहत कबीर सुनो भाई साधो,गुरु बिना कटे न चौरासी ॥ "
         कबीर कहते हैं  कि बिना गुरु के आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के व्यक्ति बार बार हो रहे 84 लाख योनियों में  जन्मों से मुक्ति नहीं मिल सकती ।
क्रमशः
                             ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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