Wednesday, September 23, 2015

मानव-श्रेणी |-39

परमात्मा-
                 गुरु और शास्त्र आपको मार्ग दिखा सकते हैं परन्तु चलना आपको स्वयं को ही होगा ।स्वयं के चले बिना परमात्मा तक पहुंचा नहीं जा सकता । शास्त्र और गुरु को भी एक  दिन छोड़ना पड़ेगा । वहां केवल और केवल अकेले ही जाया जा सकता है । इसी बात को याद रखना जरूरी है । आजकल के दौर में जो भक्ति-रस के नाम से सामूहिक कीर्तन आदि हो रहे हैं,वे केवल भक्ति के लिए अनुकूल माहौल ही तैयार कर सकते हैं ,परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकते । वहां तक भीड़ क्या दो भी साथ नहीं जा सकते । दो क्या,एक  भी नहीं जा सकता । एक को  भी अपने आप को समाप्त करना पड़ता है । जब आप अपने आपको भी गवां देते हैं तब जो शेष बचता  है,वही परमात्मा है । कहने का अर्थ है कि अपने आपको खोकर  ही परमात्मा को  पाया जा सकता है ।
                 योगवाशिष्ठ में इस बारे में बहुत ही आसान तरीके से समझाया गया है । मनुष्य को घटाकाश कहा गया है । परमात्मा को महाकाश कहा गया है । जैसे कुम्हार घड़े का निर्माण करता है तो उस मिट्टी के रीते घड़े में  भी आकाश  रहता है और उसके बाहर भी आकाश जिसे महाकाश कहा जाता है । जब घड़ा टूट जाता है तब घटाकाश,महाकाश में मिल जाता है । वास्तव में देखा जाये तो घटाकाश और महाकाश के आकाश भिन्न भिन्न नहीं है । जब तक घड़े यानि शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं तो हम स्वयं को शरीर होना मान लेते  है । जब इस घड़े को हम आपना मानना बंद कर देंगे तब इस घड़े रुपी शरीर की दीवार शरीर के रहते हुए ही समाप्त हो जाती है और घटाकाश महाकाश के साथ एकाकार हो जाता है । यही सिद्ध का परमात्मा हो जाना है,आत्मा का परमात्मा हो जाना है और यही मोक्ष यानि मुक्ति है । अगर हम गंभीरता से देखें तो घटाकाश और महाकाश के आकाश में कोई अंतर नहीं है, दोनों एक ही है । यह अंतर तो घड़े के प्रति आसक्ति का यानि अपने मन और इन्द्रियों के कारण पैदा किया हुआ है ।
                समुद्र से लहर अलग नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य की आत्मा परमात्मा से अलग नहीं है । यह बात एकदम से समझ में आते ही लहर समाप्त हो जाती है और वह समुद्र ही हो जाती है । शरीर को परमात्मा की ही देन  समझे,जैसे लहर समुद्र की देन है ।समुद्र नहीं होगा तो लहरें भी नहीं होगी और इसी तरह परमात्मा नहीं हैं तो फिर शरीर भी कहाँ से होंगे । जैसे हम समुद्र की लहरों का आनंद  लेते हैं उसी प्रकार मनुष्य के शरीर का आनंद ले । परन्तु लहरों के आनंद में समुद्र को न भूलें और शरीर के आनंद में परमात्मा को ।
क्रमशः
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥     

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