Tuesday, April 14, 2015

मानव-श्रेणी |-7

पामर-पुरुष(लगातार)-
                  स्वार्थ,पर-उत्पीड़न और अकारण क्रोध पामर-श्रेणी के मनुष्यों के तीन प्रमुख लक्षण है । वैसे जो लक्षण संत महापुरुषों के हैं ;उनके ठीक विपरीत लक्षण इन पामर-श्रेणी के मनुष्यों के होते हैं  । इनको पहचान लेना बहुत ही आसान है । संसार के सभी ऐसे कृत्य जो शास्त्रोक्त नहीं है और नियम विरुद्ध है,वे सभी इन मनुष्यों के द्वारा सम्पादित किये जाते हैं। ऐसे व्यक्ति दिखावे के तौर पर बहुत ही शक्तिशाली होते हैं  परन्तु भीतर से सदैव ही भय ग्रस्त रहते हैं । इनको अपने शरीर के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में किसी भी प्रकार की सोच नहीं होती है । सत्य,अहिंसा,दया और धर्म से इनका दूर दूर तक किसी भी  प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता है । बाहरी और आंतरिक शुद्धि का कोई महत्त्व नहीं होता है । अगर  दूसरे शब्दों में कहा जाये तो यह कहा जा सकता हैं कि एक पशु और पामर-व्यक्ति में सिवाय शारीरिक रचना के कोई मूलभूत अंतर नहीं होता है ।
                        पामर श्रेणी के व्यक्ति इस संसार,समाज और परिवार के लिए एक बोझ के अतिरिक्तं कुछ भी नहीं होते हैं । ऐसे व्यक्तियों से संतुष्ट  इस संसार में कोई भी व्यक्ति नहीं होता है । यहाँ तक कि एक पामर व्यक्ति से दूसरा पामर प्रकृति का व्यक्ति भी संतुष्ट नहीं हो सकता । इतिहास पामर-मनुष्यों के मध्य  हुई शत्रुता का गवाह है । राक्षसी प्रवृतियों के दो समूहों के मध्य सदैव ही युद्ध होते रहे हैं । इन युद्धों का उद्देश्य कभी भी नीति और धर्म नहीं रहा है बल्कि अपना प्रभुत्व स्थापित करना ही रहा है ।अजामिल,अंगुलिमाल,रावण और कंस आदि इनके उदाहरण है ।  अजामिल और अंगुलिमाल ने सत्पुरुषों का सानिध्य पाकर अपने आप को परिवर्तित कर लिया जबकि रावण और कंस सत्पुरुषों का साथ मिलने के बावजूद भी अपने आपको अहंकारवश परिवर्तित नहीं कर सके । अगर इन्होने भी अपने स्व का,अपने अहं का  त्याग कर दिया होता तो इतिहास में एक संत के रूप में स्थापित हो गए होते ।
                          पामर-श्रेणी के व्यक्तियों के बारे में संक्षेप में हमने विचार किया । लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु ऐसे पुरुषों की प्रकृति जानने के लिए मात्र इतना ही पर्याप्त होना चाहिए । कल से हम दूसरी श्रेणी अर्थात विषयी मनुष्यों के बारे में चर्चा प्रारम्भ करेंगे ।
क्रमशः
                                                             ॥ हरिः शरणम् ॥       

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