विषयी-पुरुष (तेज,रुप )-
आकाश भूत का प्रतिनिधित्व कान इन्द्रिय है जिसका विषय शब्द है । इस आकाश में जब वैकारिक विभाजन हुआ तब वायु पैदा हुई ,जिसका इस भौतिक शरीर में त्वचा नामक इन्द्रिय प्रतिनिधित्व करती है जिसका विषय है स्पर्श । वायु के वैकारिक होने पर अग्नि की उत्पति होती है,जिसका प्रतिनिधि इस शरीर में आँख या नेत्र है और इसका विषय है तेज या रूप। नेत्र इस भौतिक शरीर की अतिमहत्वपूर्ण इन्द्रिय है । सुख और दुःख का मूल इसी को कहा जा सकता है । जब शिशु जन्म लेता है और उसकी दृष्टि चाहे जिस किसी ओर ही जाती हो,वह सब को देखकर केवल मुस्कुराता है । उसके चहरे पर किसी भी प्रकार का तनाव नहीं होता ,चाहे वह किसी भी बुरे अथवा भले इन्सान को देख रहा हो । यहाँ तक कि किसी जहरीले नाग को देखकर भी वह मुस्कुरा देता है । यह इस विषय की प्रारम्भिक अवस्था होती है । इसीलिए शिशु को परमात्मा स्वरुप कहा जाता है । दृष्टि में समता का भाव रखना ही इन्सान को परमात्मा के समकक्ष खड़ा कर सकता है ।
हमारी यह आँखे क्या देखती है अथवा क्या नहीं देख पाती ,यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि दृश्य को देखने के उपरांत हम उस दृश्य के बारे में क्या सोचते हैं ? हमारी यह सोच ही हमारी दृष्टि (Vision) कहलाती है ।प्रायः हम सभी के नेत्र दिन भर कुछ न कुछ देखते ही रहते हैं और उस दृश्य (Sight) के प्रति हमारे क्या विचार होते हैं,उस दृश्य को देखकर हम क्या अनुभव करते हैं वह हमारी दृष्टि (Vision) होती है । सबके नेत्र दृश्य तो एक समान देखते हैं परन्तु उस दृश्य का आकलन प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न भिन्न होता है। यह दृश्य का आकलन वह अपनी दृष्टि के अनुसार ही करता है | अतः महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हमारी आँखे क्या देख रही है परन्तु महत्वपूर्ण यह है की हमारी दृष्टि कैसी है ?
दृश्य को दिखाना आपकी नेत्र इन्द्रिय का कार्य है ,उसका एक गुण है और उसके इस कार्य का विश्लेष्ण करना आपकी बुद्धि का कार्य है |देखती आपकी आँखे हैं परन्तु आपकी बुद्धि उस दृश्य को एक दृष्टि प्रदान करती है | देखने से अधिक महत्वपूर्ण है आपकी दृष्टि |यह दृष्टि ही आपका चरित्र है आपका स्वभाव है |अतः किसी भी दृश्य का सही अथवा गलत बताने के स्थान पर अपनी दृष्टि को सही करें |आपकी दृष्टि जब सही होगी आपके द्वारा देखे जाने वाले सभी दृश्य भी सही नज़र आयेंगे |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
आकाश भूत का प्रतिनिधित्व कान इन्द्रिय है जिसका विषय शब्द है । इस आकाश में जब वैकारिक विभाजन हुआ तब वायु पैदा हुई ,जिसका इस भौतिक शरीर में त्वचा नामक इन्द्रिय प्रतिनिधित्व करती है जिसका विषय है स्पर्श । वायु के वैकारिक होने पर अग्नि की उत्पति होती है,जिसका प्रतिनिधि इस शरीर में आँख या नेत्र है और इसका विषय है तेज या रूप। नेत्र इस भौतिक शरीर की अतिमहत्वपूर्ण इन्द्रिय है । सुख और दुःख का मूल इसी को कहा जा सकता है । जब शिशु जन्म लेता है और उसकी दृष्टि चाहे जिस किसी ओर ही जाती हो,वह सब को देखकर केवल मुस्कुराता है । उसके चहरे पर किसी भी प्रकार का तनाव नहीं होता ,चाहे वह किसी भी बुरे अथवा भले इन्सान को देख रहा हो । यहाँ तक कि किसी जहरीले नाग को देखकर भी वह मुस्कुरा देता है । यह इस विषय की प्रारम्भिक अवस्था होती है । इसीलिए शिशु को परमात्मा स्वरुप कहा जाता है । दृष्टि में समता का भाव रखना ही इन्सान को परमात्मा के समकक्ष खड़ा कर सकता है ।
हमारी यह आँखे क्या देखती है अथवा क्या नहीं देख पाती ,यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि दृश्य को देखने के उपरांत हम उस दृश्य के बारे में क्या सोचते हैं ? हमारी यह सोच ही हमारी दृष्टि (Vision) कहलाती है ।प्रायः हम सभी के नेत्र दिन भर कुछ न कुछ देखते ही रहते हैं और उस दृश्य (Sight) के प्रति हमारे क्या विचार होते हैं,उस दृश्य को देखकर हम क्या अनुभव करते हैं वह हमारी दृष्टि (Vision) होती है । सबके नेत्र दृश्य तो एक समान देखते हैं परन्तु उस दृश्य का आकलन प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न भिन्न होता है। यह दृश्य का आकलन वह अपनी दृष्टि के अनुसार ही करता है | अतः महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हमारी आँखे क्या देख रही है परन्तु महत्वपूर्ण यह है की हमारी दृष्टि कैसी है ?
दृश्य को दिखाना आपकी नेत्र इन्द्रिय का कार्य है ,उसका एक गुण है और उसके इस कार्य का विश्लेष्ण करना आपकी बुद्धि का कार्य है |देखती आपकी आँखे हैं परन्तु आपकी बुद्धि उस दृश्य को एक दृष्टि प्रदान करती है | देखने से अधिक महत्वपूर्ण है आपकी दृष्टि |यह दृष्टि ही आपका चरित्र है आपका स्वभाव है |अतः किसी भी दृश्य का सही अथवा गलत बताने के स्थान पर अपनी दृष्टि को सही करें |आपकी दृष्टि जब सही होगी आपके द्वारा देखे जाने वाले सभी दृश्य भी सही नज़र आयेंगे |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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