Sunday, June 7, 2015

मानव-श्रेणी |-15

विषयी-पुरुष -(स्पर्श)
         जब हम ठन्डे स्थान पर ही बार बार जाना चाहते हैं अर्थात ठंडा माहौल हमें प्रभवित करते हुए सुख प्रदान करता है और हम हर हालत में शरीर के लिए ठंडा वातावरण प्राप्त करना चाहते हैं ,तो यह इस विषय के प्रति आसक्त होना हुआ |इसी  प्रकार इस विषय से  सम्बंधित सभी कर्म जो हमें सुख अथवा दुःख प्रदान करते हैं,उनको प्राप्त करने के लिए जो भी और जैसे भी कर्म किये जाते हैं,वे सभी इस स्पर्श विषय के प्रति आपकी आसक्ति व्यक्त करते है | विषय को भागना कदापि अनुचित नहीं है परन्तु उस विषय को  बार  बार भोगने की इच्छा करना ही आसक्ति है |ऐसी आसक्ति अनुचित है |
             गीता के दूसरे अध्याय के अन्तिम श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण कहते भी  हैं कि इस विषय से काम  उत्पन्न होता है ,काम संपन्न न होने पर इससे क्रोध पैदा होता है,क्रोध से सम्मोह अर्थात मूढ़भाव, मूढ़ता से स्मृतिभ्रम तथा स्मृतिभ्रम  से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने पर व्यक्ति अपने स्तर से नीचे गिर जाता है अर्थात व्यक्ति स्तर हीन हो जाता है |अतः हे अर्जुन ! तुन इस काम रुपी शत्रु परे विजय प्राप्त कर |
                कितनी सुन्दर बात कही है परमात्मा ने |यह आज के सांसारिक व्यक्ति  के लिए मार्गदर्शन है |इस काम के कारण ही यह संसार है ,अगर काम न हो तो संसार भी नहीं हो |यह काम और हमारी कामनाएं हमारे किसी भी काम की नहीं है |यह ध्यान में रखते हुए ही इन्द्रिय भोगों  का आनंद ले |परन्तु काम और कामनाएं पूरी न हो तो समता में रहें |समता आपको अपने स्तर से नीचे नहीं गिरने देगी  |इन्द्रिय भोगों में आसक्त न होकर अनासक्त भाव से उन्हें भोगें ,  विरक्त होने की आवश्यकता नहीं है |विरक्ति का प्रयास  ही आसक्ति को और अधिक बढाता है जबकि अनासक्त रहते हुए विरक्ति तक अवश्य ही पहुंचा जा सकता है |
क्रमशः
                                       || हरिः शरणम् ||
               

No comments:

Post a Comment