Tuesday, June 30, 2015

मानव-श्रेणी |-20

विषयी-पुरुष (रस)-
                  रस भी अपने शरीर और आत्मा के बीच एक सीधा  सम्बन्ध बना देता है । आत्मा को जो रस पसंद होता है उसको बार बार प्राप्त करने के लिए वह बुद्धि और मन को कहती है जिस कारण से मन कर्मेन्द्रियों के माध्यम से वही रस प्रदान करने के लिए कर्म करने को विवश करती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वाद प्राप्त करने के लिए कर्म का नियंत्रण हमारे मन के पास चला जाता है । जब कर्म मन के अनुसार होते है तब उनका प्रभाव हमारे चित्त पर पड़ना अवश्यम्भावी है । हमारा चित्त हमारे सभी कर्मों का अंकन करता रहता है जो हमारा भावी जीवन निश्चित करता है । अतः हमारा रस पर नियंत्रण करना आवश्यक हो जाता है जिससे हम कोई स्वाद प्राप्त करने के लिए शास्त्र विमुख न हो और सभी कर्म शास्त्र सम्मत ही करें ।
                      मीठा,नमकीन,खट्टा और कडवा,सब स्वाद हमारी जीभ के द्वारा ही लिए जाते है परन्तु किसी भी स्वाद के प्रति आसक्ति हम स्वयं पैदा करते है , हमारी जीभ कभी भी नहीं कहती कि हमें वही पदार्थ चाहिए जो अच्छा स्वाद प्रदान करते हों । हम स्वयं ही उस पदार्थ को फिर से प्राप्त करने की कामना करते हैं और दोषारोपण जीभ पर करना चाहते है । जीभ तो मात्र उस पदार्थ के स्वाद का परिचय हम  से करवाती है और स्वाद से  परिचय कराना उसका एक प्राकृतिक गुण है । हम स्वयं ही उसके  इस गुण के प्रति आसक्त होते हैं । इसमे भला उस जीभ,उसके गुण और विषय का क्या दोष है ? जिस दिन हम यह समझ लेंगे, हमारी आसक्ति स्वाद के प्रति, रस के प्रति अपने आप समाप्त हो जाएगी । अनासक्त होना ही परमात्मा हो जाना है । पदार्थ के रस का आनंद  लें  ,उसके स्वाद का आनंद ले,बस यही ध्यान रखें कि किसी भी स्वाद या रस के प्रति आसक्त न हो । जीवन  में स्वाद  का आनंद लेना हमारे हाथ में है ।  स्वाद के प्रति आसक्ति, हमसे आनंद को छीन कर  केवल  दुःख ही प्रदान कर सकती है । आइये ,संसार के सभी पदार्थों का आनन्द ले परन्तु कभी भी किसी  स्वाद के प्रति आसक्त न हो ।
क्रमशः
                                    ॥ हरिः शरणम् ॥     

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