विषयी-पुरुष (तेज,रूप)-
नेत्र ही वह एक मात्र इन्द्रिय है,जिसके माध्यम से काम शरीर में सर्वप्रथम प्रवेश करता हैं । इसके इस कर्म में कान (शब्द) और नाक (गंध) सहयोगी की भूमिका निभाते हैं । त्वचा (स्पर्श) से व्यक्ति कामसुख प्राप्त करता है । अतः जब आप अपनी इस मुख्य इन्द्रिय नेत्र को नियंत्रित कर लेते हैं तो काम के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा सकते हैं । मैं इस इन्द्रिय के गुण का आलोचक कदापि नहीं हूँ परन्तु इस गुण के प्रति आसक्ति को पैदा कर लेने का अवश्य ही आलोचक हूँ । परमात्मा की ही रचना है -यह सब इन्द्रियां |इनमे किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है । दोष है ,हमारी बुद्धि का,हमारे मन का है,जो इस इन्द्रिय के गुण, रूप का हमें आसक्त बना देती है जिस कारण से हम हमारे पसंद के रूप को बार बार देखना और उसे हासिल करने के लिए कर्म करने को विवश हो जाते हैं ।अगर हम अपने मन और बुद्धि को नियंत्रित कर लें तो फिर हम इसी रूप का आनन्द भी ले सकेंगे और आसक्त भी नहीं होंगे ।
आसक्ति ही हमें उस स्थिति तक पहुंचा देती है,जहाँ पर अपनी पसंद के रूप को न देख पाने पर हम उद्वेलित हो जाते हैं । इस उद्वेग के कारण हमारी बुद्धि भ्रमित हो जाती है,हम क्रोध से उबल पड़ते हैं । क्रोध हमारी बुद्धि का नाश ही करता है और बुद्धि का नाश होना ही व्यक्ति का नाश होना है । अतः प्रकृति के इन इन्द्रिय गुणों को भोगते हुए आनन्दित हों ,आसक्त नहीं । इस इन्द्रिय को अपने ही प्रभाव में ले,उसके प्रभाव में कदापि नहीं आयें । बहुत ही महत्वपूर्ण एक इन्द्रिय है यह । जिसने अपनी दृष्टि पर विजय प्राप्त कर ली वह इस संसार के परिदृश्य तक को बदल सकता है अन्यथा तो मानव सिर्फ और सिर्फ बिना सींग और पूंछ का एक जानवर मात्र ही बनकर रह जाता है ।
आज यहाँ पर,इस राम-कृष्ण की भूमि पर रूप के साथ हो रहे बलात्कार का एक मात्र कारण हमारी दृष्टि ही है । हम रूप को मात्र एक भोग ही मानने लगे हैं और रूपवान को भोग्या । हमें अपनी दृष्टि को ही परिवर्तित करना होगा अन्यथा शासन और प्रशासन इसको किसी भी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते हैं । आज आवश्यकता है ,परमात्मा के इस सन्देश को जन जन तक पहुंचाएं और स्वयं के साथ साथ सभी की दृष्टि को परिवर्तित करने का प्रयास करें ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
नेत्र ही वह एक मात्र इन्द्रिय है,जिसके माध्यम से काम शरीर में सर्वप्रथम प्रवेश करता हैं । इसके इस कर्म में कान (शब्द) और नाक (गंध) सहयोगी की भूमिका निभाते हैं । त्वचा (स्पर्श) से व्यक्ति कामसुख प्राप्त करता है । अतः जब आप अपनी इस मुख्य इन्द्रिय नेत्र को नियंत्रित कर लेते हैं तो काम के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा सकते हैं । मैं इस इन्द्रिय के गुण का आलोचक कदापि नहीं हूँ परन्तु इस गुण के प्रति आसक्ति को पैदा कर लेने का अवश्य ही आलोचक हूँ । परमात्मा की ही रचना है -यह सब इन्द्रियां |इनमे किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है । दोष है ,हमारी बुद्धि का,हमारे मन का है,जो इस इन्द्रिय के गुण, रूप का हमें आसक्त बना देती है जिस कारण से हम हमारे पसंद के रूप को बार बार देखना और उसे हासिल करने के लिए कर्म करने को विवश हो जाते हैं ।अगर हम अपने मन और बुद्धि को नियंत्रित कर लें तो फिर हम इसी रूप का आनन्द भी ले सकेंगे और आसक्त भी नहीं होंगे ।
आसक्ति ही हमें उस स्थिति तक पहुंचा देती है,जहाँ पर अपनी पसंद के रूप को न देख पाने पर हम उद्वेलित हो जाते हैं । इस उद्वेग के कारण हमारी बुद्धि भ्रमित हो जाती है,हम क्रोध से उबल पड़ते हैं । क्रोध हमारी बुद्धि का नाश ही करता है और बुद्धि का नाश होना ही व्यक्ति का नाश होना है । अतः प्रकृति के इन इन्द्रिय गुणों को भोगते हुए आनन्दित हों ,आसक्त नहीं । इस इन्द्रिय को अपने ही प्रभाव में ले,उसके प्रभाव में कदापि नहीं आयें । बहुत ही महत्वपूर्ण एक इन्द्रिय है यह । जिसने अपनी दृष्टि पर विजय प्राप्त कर ली वह इस संसार के परिदृश्य तक को बदल सकता है अन्यथा तो मानव सिर्फ और सिर्फ बिना सींग और पूंछ का एक जानवर मात्र ही बनकर रह जाता है ।
आज यहाँ पर,इस राम-कृष्ण की भूमि पर रूप के साथ हो रहे बलात्कार का एक मात्र कारण हमारी दृष्टि ही है । हम रूप को मात्र एक भोग ही मानने लगे हैं और रूपवान को भोग्या । हमें अपनी दृष्टि को ही परिवर्तित करना होगा अन्यथा शासन और प्रशासन इसको किसी भी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते हैं । आज आवश्यकता है ,परमात्मा के इस सन्देश को जन जन तक पहुंचाएं और स्वयं के साथ साथ सभी की दृष्टि को परिवर्तित करने का प्रयास करें ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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