विषयी-पुरुष (रुप )-
श्रीमद्भागवत महापुराण के रचियता वेद व्यास के पुत्र शुकदेव थे |पैदा होने के बाद वे इस संसार को त्यागने के उद्देश्य से अपने घर से निकल गए |पुत्र मोह में वेद व्यास उनके पीछे पीछे 'पुत्र-पुत्र' पुकारते हुए दौड़े | रास्ते में पड़ने वाले सरोवर में कुछ स्त्रियाँ स्नान कर रही थी |शुकदेव के वहां से निकलने के दौरान स्त्रियाँ पूर्व की भांति ही स्नान करती रही, परन्तु वेद व्यास को देखते ही स्त्रियों ने अपने तन को कपड़ों से ढक लिया |वेद व्यास ने आश्चर्य से पूछा-'अभी मेरा युवा पुत्र इधर से गुजरा,तब तो तुम पहले की भांति ही स्नान करती रही परन्तु मुझ वृद्ध को देखकर तुम अपने तन को कपड़ों में समेट रही हो ,ऐसा क्यों?' उनमें से एक स्त्री ने उत्तर दिया-'शुकदेव की दृष्टि में सारा ब्रह्माण्ड ही परमात्मामय है,इस कारण से उनके अनुसार हमारा तन किसी स्त्री या पुरुष का न होकर एक साधारण मनुष्य का ही तन है परन्तु आपकी दृष्टि अभी भी पुरुष और स्त्री के तन में भेद करती है |आपकी इस भेदपूर्ण दृष्टि के कारण ही हम अपना तन इन कपड़ों से ढकने को विवश हुई है |'
यह एक वास्तविकता है-हमारी दृष्टि की |जब हम अपनी दृष्टि को जैसी रखेंगे, सामने वाले की दृष्टि उसे उसी अनुरूप पहचान लेगी |उस पहचान के अनुसार ही उस व्यक्ति का आपके प्रति वैसा ही व्यवहार होगा |अतः दृश्य चाहे कैसा भी हो, हम उस दृश्य पर किसी भी तरह से नियंत्रण नहीं रख सकते |हमारे हाथ में केवल अपनी अपनी दृष्टि पर नियंत्रण रखना ही है |जब हम दृष्टि पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेंगे ,दृश्य स्वतः ही हमारे नियंत्रण में होगा |
अब प्रश्न यह उठता है कि हम अपनी दृष्टि को नियंत्रित क्यों करें ? द्रश्य देखना आँख का गुण है |हम उसके इस गुण को तो बदल नहीं सकते |जब आप कोई मनभावन दृश्य देखते है,आपको वह कहीं भीतर तक प्रभावित करता है | उसका यह प्रभाव आपको उस दृश्य को बार बार देखने को विवश करता है,जिस कारण आप उस दृश्य को देखने के लिए कर्म करते है |यह आपकी उस दृश्य के प्रति आसक्ति हुई |अगर आपको वह दृश्य फिर से सुलभ नहीं हुआ तो आप अपनी कल्पना में भी उस दृश्य का बार बार निर्माण करते है |यह आसक्ति आपको कहीं का नहीं छोड़ती |आप उस दृश्य के न उपलब्ध होने से क्रोधित और पागल हो जाते है |यह आपके पतन का प्रारम्भ है | अतः दृश्य के प्रति आसक्ति की दृष्टि न रखे बल्कि उस दृश्य को प्रकृति के एक मूलभूत तत्व अग्नि का ही एक गुण समझते हुए उसका आनंद ले और वही दृश्य उपलब्ध न होने पर उद्वेलित न हो |
क्रमशः
||हरिः शरणम् ||
श्रीमद्भागवत महापुराण के रचियता वेद व्यास के पुत्र शुकदेव थे |पैदा होने के बाद वे इस संसार को त्यागने के उद्देश्य से अपने घर से निकल गए |पुत्र मोह में वेद व्यास उनके पीछे पीछे 'पुत्र-पुत्र' पुकारते हुए दौड़े | रास्ते में पड़ने वाले सरोवर में कुछ स्त्रियाँ स्नान कर रही थी |शुकदेव के वहां से निकलने के दौरान स्त्रियाँ पूर्व की भांति ही स्नान करती रही, परन्तु वेद व्यास को देखते ही स्त्रियों ने अपने तन को कपड़ों से ढक लिया |वेद व्यास ने आश्चर्य से पूछा-'अभी मेरा युवा पुत्र इधर से गुजरा,तब तो तुम पहले की भांति ही स्नान करती रही परन्तु मुझ वृद्ध को देखकर तुम अपने तन को कपड़ों में समेट रही हो ,ऐसा क्यों?' उनमें से एक स्त्री ने उत्तर दिया-'शुकदेव की दृष्टि में सारा ब्रह्माण्ड ही परमात्मामय है,इस कारण से उनके अनुसार हमारा तन किसी स्त्री या पुरुष का न होकर एक साधारण मनुष्य का ही तन है परन्तु आपकी दृष्टि अभी भी पुरुष और स्त्री के तन में भेद करती है |आपकी इस भेदपूर्ण दृष्टि के कारण ही हम अपना तन इन कपड़ों से ढकने को विवश हुई है |'
यह एक वास्तविकता है-हमारी दृष्टि की |जब हम अपनी दृष्टि को जैसी रखेंगे, सामने वाले की दृष्टि उसे उसी अनुरूप पहचान लेगी |उस पहचान के अनुसार ही उस व्यक्ति का आपके प्रति वैसा ही व्यवहार होगा |अतः दृश्य चाहे कैसा भी हो, हम उस दृश्य पर किसी भी तरह से नियंत्रण नहीं रख सकते |हमारे हाथ में केवल अपनी अपनी दृष्टि पर नियंत्रण रखना ही है |जब हम दृष्टि पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेंगे ,दृश्य स्वतः ही हमारे नियंत्रण में होगा |
अब प्रश्न यह उठता है कि हम अपनी दृष्टि को नियंत्रित क्यों करें ? द्रश्य देखना आँख का गुण है |हम उसके इस गुण को तो बदल नहीं सकते |जब आप कोई मनभावन दृश्य देखते है,आपको वह कहीं भीतर तक प्रभावित करता है | उसका यह प्रभाव आपको उस दृश्य को बार बार देखने को विवश करता है,जिस कारण आप उस दृश्य को देखने के लिए कर्म करते है |यह आपकी उस दृश्य के प्रति आसक्ति हुई |अगर आपको वह दृश्य फिर से सुलभ नहीं हुआ तो आप अपनी कल्पना में भी उस दृश्य का बार बार निर्माण करते है |यह आसक्ति आपको कहीं का नहीं छोड़ती |आप उस दृश्य के न उपलब्ध होने से क्रोधित और पागल हो जाते है |यह आपके पतन का प्रारम्भ है | अतः दृश्य के प्रति आसक्ति की दृष्टि न रखे बल्कि उस दृश्य को प्रकृति के एक मूलभूत तत्व अग्नि का ही एक गुण समझते हुए उसका आनंद ले और वही दृश्य उपलब्ध न होने पर उद्वेलित न हो |
क्रमशः
||हरिः शरणम् ||
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