साधक-
जब साधक की इच्छा शक्ति प्रबल होती है और साधन के रूप में यह भौतिक शरीर सभी क्षेत्रों में स्वस्थ रहता है तब साधना का फलीभूत होना सहज हो जाता है | अब प्रश्न यह उठता है कि साधना कैसे और किस प्रकार की जानी चाहिए ? साधना कोई एक ऐसा कर्म नहीं है जिसमे कर्मेन्द्रियों का उपयोग करना आवश्यक ही हो ? हालाँकि हमारे शास्त्र, साधना को भी एक पुरुषार्थ की श्रेणी रखते हैं परन्तु पुरुषार्थ के लिए मात्र कर्म करने ही आवश्यक नहीं है । पूजा पाठ .कर्मकांड और तीर्थ यात्रा आदि निम्नस्तर की साधना मानी जाती है |परमात्मा की ओर प्रवृति पैदा होने के बाद प्रारम्भिक अवस्था में यह सब किया जासकता है |परन्तु यह सब करके अटक जाना सफलता से वंचित कर सकता है | साधना के लिए इन सबको पीछे छोड़ते हुए, बाहर निकलना होगा । तभी इस पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है क्योंकि साधना के पथ पर सदैव ही आगे बढ़ते रहना आवश्यक है |
'योगवासिष्ठ' में मुनि वसिष्ठ ने भगवान रामको ऐसी साधना के बारे में बड़ा ही उत्तम ज्ञान दिया है |मुनि कहते हैं कि साधना हेतु चार बातें आवश्यक है-शम,विचार,संतोष और संतसमागम अथवा साधू संगम |वे कहते हैं कि इन चारों में से किसी एक का भी उपयोग अगर मनुष्य कर लेता है तो उसे शेष तीनों की उपलब्धि भी शीघ्र ही हो जाती है |शम कहतेहैं-शांत होने को , वासनाओं के शमन को जिससे व्यक्ति शांति को उपलब्ध होता है । |व्यक्ति के मन में उठ रही वासनाओं को नियंत्रित करने का नाम ही शमन है |इस प्रकार वासना के शमन से ही व्यक्ति को शांति उपलब्ध होती है |शांतचित्त व्यक्ति ही साधना पथ पर निर्बाध गति से आगे बढ़ सकता है |अतः साधक को चाहिए कि सबसे पहले वह अपनी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रखते हुए विषयों के प्रति आसक्ति न रखे और इच्छाओं और कामनाओं को बढ़ने न दे |बढ़ी हुई कामनाएं ही वासना है और इन कामनाओं को पूरा करने पर फिर से नई कामनाओं का पैदा हो जाना ही तृष्णा है |तृष्णा ,मतलब कभी भी न बुझने वाली प्यास | यहाँ पर साधक को सबसे बड़ी बाधा पार करनी होती है |यह सबसे बड़ी बाधा है क्योंकि इन इन्द्रियों को जीतना असंभव नहीं तो अति कठिन अवश्य ही है |जो साधक इस बाधा को पार नहीं कर सकता वह या तो पूर्व की भांति विषयी हो जाता है अथवा फिर साधना में केवल पूजा पाठ,कर्म कांड व माला फेरते रहने तक की स्थिति में ही रहते हुए स्थिर हो जाता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
जब साधक की इच्छा शक्ति प्रबल होती है और साधन के रूप में यह भौतिक शरीर सभी क्षेत्रों में स्वस्थ रहता है तब साधना का फलीभूत होना सहज हो जाता है | अब प्रश्न यह उठता है कि साधना कैसे और किस प्रकार की जानी चाहिए ? साधना कोई एक ऐसा कर्म नहीं है जिसमे कर्मेन्द्रियों का उपयोग करना आवश्यक ही हो ? हालाँकि हमारे शास्त्र, साधना को भी एक पुरुषार्थ की श्रेणी रखते हैं परन्तु पुरुषार्थ के लिए मात्र कर्म करने ही आवश्यक नहीं है । पूजा पाठ .कर्मकांड और तीर्थ यात्रा आदि निम्नस्तर की साधना मानी जाती है |परमात्मा की ओर प्रवृति पैदा होने के बाद प्रारम्भिक अवस्था में यह सब किया जासकता है |परन्तु यह सब करके अटक जाना सफलता से वंचित कर सकता है | साधना के लिए इन सबको पीछे छोड़ते हुए, बाहर निकलना होगा । तभी इस पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है क्योंकि साधना के पथ पर सदैव ही आगे बढ़ते रहना आवश्यक है |
'योगवासिष्ठ' में मुनि वसिष्ठ ने भगवान रामको ऐसी साधना के बारे में बड़ा ही उत्तम ज्ञान दिया है |मुनि कहते हैं कि साधना हेतु चार बातें आवश्यक है-शम,विचार,संतोष और संतसमागम अथवा साधू संगम |वे कहते हैं कि इन चारों में से किसी एक का भी उपयोग अगर मनुष्य कर लेता है तो उसे शेष तीनों की उपलब्धि भी शीघ्र ही हो जाती है |शम कहतेहैं-शांत होने को , वासनाओं के शमन को जिससे व्यक्ति शांति को उपलब्ध होता है । |व्यक्ति के मन में उठ रही वासनाओं को नियंत्रित करने का नाम ही शमन है |इस प्रकार वासना के शमन से ही व्यक्ति को शांति उपलब्ध होती है |शांतचित्त व्यक्ति ही साधना पथ पर निर्बाध गति से आगे बढ़ सकता है |अतः साधक को चाहिए कि सबसे पहले वह अपनी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रखते हुए विषयों के प्रति आसक्ति न रखे और इच्छाओं और कामनाओं को बढ़ने न दे |बढ़ी हुई कामनाएं ही वासना है और इन कामनाओं को पूरा करने पर फिर से नई कामनाओं का पैदा हो जाना ही तृष्णा है |तृष्णा ,मतलब कभी भी न बुझने वाली प्यास | यहाँ पर साधक को सबसे बड़ी बाधा पार करनी होती है |यह सबसे बड़ी बाधा है क्योंकि इन इन्द्रियों को जीतना असंभव नहीं तो अति कठिन अवश्य ही है |जो साधक इस बाधा को पार नहीं कर सकता वह या तो पूर्व की भांति विषयी हो जाता है अथवा फिर साधना में केवल पूजा पाठ,कर्म कांड व माला फेरते रहने तक की स्थिति में ही रहते हुए स्थिर हो जाता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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