Tuesday, July 7, 2015

मानव-श्रेणी |-22

विषयी-पुरुष (गंध)-
                      जब हम किसी बेहतरीन गंध का अनुभव करते है,तब वह गंध हमें कहीं भीतर तक प्रभावित कर देती है । ऐसी सुगंध को हम बार बार अनुभव करना चाहते हैं । यह हमारी उस गंध के प्रति आसक्ति होना प्रकट करती है । यह आसक्ति ही उस मनुष्य  को गंध के प्रति विषयी बना देती है । वह बार बार उसी गंध को सूंघना चाहता है और उसी में उसे सुख मिलता है । इसी प्रकार जब वह  दुर्गन्ध का अनुभव करता है तब ऐसी गंध से वह सदैव के लिए दूर रहना चाहता है । हमें यह समझना होगा कि ऐसा सब कुछ  प्रकृति के गुणों के कारण ही होना संभव हुआ है, अन्य  कोई कारण नहीं है । अतः ऐसी किसी भी गंध को , चाहे वह सुगंध हो अथवा दुर्गन्ध,प्रकृति के गुण  मानते हुए ही यथारूप स्वीकार करना चाहिए । जब हमारी समझ  में यह बात कही भीतर तक पैठ कर  जाएगी तो फिर  हम न तो दुर्गन्ध से दूर भागेंगे और न ही सुगंध के पीछे दौड़ेंगे ।
                            हमने विषयों में आसक्त व्यक्तियों के बारे में जो भी जाना है,उसको सार स्वरुप
में ऐसे समझा जा सकता है कि  इन्द्रियों के सभी विषय,केवल विषतुल्य ही नहीं बल्कि विष से भी अधिक  दुखदाई है । विष ग्रहण करने पर केवल उस एक शरीर का ही नाश होता है परन्तु विषय को ग्रहण करके मनुष्य अनेकों शरीरों में से  गुजरते हुए उनका नाश करता रहता है । विषयों के प्रति आसक्ति ही व्यक्ति के आवागमन का कारण  है । प्रत्येक मृत्यु के बाद एक नए शरीर को प्राप्त होकर उसका नाश कर देने का एक मात्र कारण विषय का संग करना ही है ।                                                  
                                  विषयी पुरुष के बारे में हमने इन्द्रियों के गुणों  की चर्चा करते हुए संक्षेप में जाना । हालाँकि यह एक विस्तृत विषय है परन्तु आज के इस भागदौड़ के युग में हम इतने को भी आत्मसात कर लें तो यह हम सब के लिए कल्याणकारी होगा । इस संसार में ज्ञान की कोई भी कमी नहीं है परन्तु सब कुछ जानकर ,संसार का सारा ज्ञान प्राप्त करके भी हम उसको नहीं जान पाएंगे क्योंकि वह हमारे इस सांसारिक ज्ञान से भी परे हैं । हमें सांसारिक ज्ञान प्राप्त करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जहाँ सब कुछ जानने की सीमा समाप्त हो जाती है,वहां पहुँच कर ही हम जिज्ञासु लोग उस सांसारिक ज्ञान को विस्मृत कर सकते हैं, उससे पहले नहीं । प्राप्त किये समस्त ज्ञान को भूलकर  ही हम उस अपरिमेय को जान पाएंगे । ज्ञान की सीमा है, वह परिमेय है जबकि परमात्मा अनंत है,अपरिमेय है। भला अपरिमेय को परिमेय से कैसे जान  सकते हैं ? वह जैसे समस्त ज्ञान से परे हैं,उसी प्रकार सब विषय उसके कारण होने के बावजूद भी वह सब विषयों से परे हैं । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह विषयों में आसक्त होने की बजाय उनका आनन्द लेते हुए विषयों से परे चला जाये और जिस  स्थिति को विषयों से परे जाने के लिए वह तत्पर होता है, वह एक साधक बनने की स्थिति होती है । कल से हम साधक पुरुष पर चर्चा प्रारम्भ करेंगे ।
क्रमशः
                             ॥ हरिः शरणम् ॥  

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