Wednesday, July 15, 2015

मानव-श्रेणी |24

साधक-
              गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं-
                        मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
                       यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः || गीता 7/3 ||
               हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और ऐसे कई यत्न करने वाले योगियों में से भी कोई  एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से जानता है अर्थात कोई एक ही मुझे यथार्थ रूप से जानने वाली स्थिति को उपलब्ध होता है |
                  प्रथमतः तो इस संसार में विषयासक्त मनुष्य का ध्यान इस तरफ जाता ही नहीं है कि विषयों के अतिरिक्त प्राप्त करने के लिए यहाँ और कुछ भी है | इसी  लिए भगवान कहते हैं कि हजारों मनुष्यों में से किसी एक के ही ध्यान में यह बात आती है कि विषयों के अतिरिक्त भी यहाँ प्राप्त करने को कुछ अन्य भी उपलब्ध  है,जो विषयों से अधिक सुख और आनंद देने वाला है |परन्तु इस अन्य कुछ को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को साधना करनी पड़ती है |विषयों को प्राप्त करने के लिए किये गए प्रयास को कर्म कहते हैं और परमात्मा को प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले प्रयास को साधना कहते हैं |कर्म बंधन  पैदा करता है जबकि साधना व्यक्ति को मुक्त करती है | इसी प्रकार विषयों को प्राप्त करने के प्रयास करने वाले मनुष्य को विषयी तथा परमात्मा को पाने के लिए प्रयासरत मनुष्य को साधक कहा जाता है |
                     साधक होने के लिए इन्द्रियों के विषयों से निवृत होना आवश्यक है | बिना निवृति के प्रवृति नहीं हो सकती |एक साथ दो घोड़ों पर सवार होनेवाला प्रायः गिरता हुआ ही देखा गया है |संसार में रहते हुए भी विषयों से निवृत हुआ जा सकता है |परमात्मा की और प्रवृत होने के लिए संसार,घरबार और परिवार छोड़ना कदापि आवश्यक नहीं है |प्रवृति के लिए आवश्यक है कि आप संसार,घरबार और परिवार में आसक्ति त्याग दें |संसार से आसक्ति त्यागने का नाम  निवृति है और परमात्मा के प्रति आसक्ति का पैदा हो जाना प्रवृति है |अतः यह स्पष्ट है कि बिना निवृति के प्रवृति होना असंभव है |
क्रमशः
                                      || हरिः शरणम् ||
                                

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